Monday, December 14, 2009

अफ़ज़ल गुरु की फ़ांसी का मज़ाक और २००१ के हमले का आंखो देखा हाल..




ये तो वाकई हद ही हो गयी कि मैंने अपने इस ब्लोग पर पिछले दो पूरे महिनों में कुछ भी पोस्ट नहीं किया.मुआफ़ी चाहूंगा.

अभी परसों सुरेशजी चिपलूणकर की एक पोस्ट पढ़ रहा था जिसमें उन्होनें अपने चिर परिचित अंदाज़ में व्यंग करते हुए २००१ में हुए संसद पर हमले का सरगना मास्टरमाइंड अफ़ज़ल गुरु को बर्थ डे पर विश किया था.

ये वाकई शर्म की बात है कि आज उस दिन को आठ साल हो गये हैं, और हमारी शिखंडी जमात उसे अभी तक फ़ांसी तक नहीं चढा पायी.

शिखण्डी हम इसलिये हैं कि जिसनें हमारे देश के संप्रभुता को चुनौती देते हुए प्रजातंत्र के सर्वोच्च मंदिर पर हमला करने का षडयंत्र रचने का दुस्साहस किया, उसको फ़ांसी देने के लिये में आप , मैं और करोडो भारतीय बृहन्नलाओं की तरह ताली पीट पीट कर अपने अपने बिल में घुसे हुए ही गुहार मचा रहे हैं, और अफ़ज़ल गुरु जैसा ही और कोई विनाशकारी दिमाग कहीं दूर बैठ कर मुस्कुराते हुए एक नयी योजना बना रहा होगा, बेखौफ़ हो कर, क्योंकि हम जैसों को राष्ट्र भक्ति या राष्ट्राभिमान का जज़बा सिर्फ़ फ़िल्मी गीतों की रिकोर्ड बजा देने से पूरा हो जाता है.

वैसे अफ़ज़ल गुरु से मेरा व्यक्तिगत दुश्मनी का नाता भी है.

एक तो उसने मेरे भारत (Repeat MY INDIA)्की सहिष्णुता का मज़ाक उडाते हुए ये दुस्साहस किया.

दूसरे, आज भाग्य की वजह से मैं आपके सामने ये पोस्ट लिखने को ज़िंदा बचा हुआ हूं, वरना उसके अनुयायी की एक गोली उस दिन दिल्ली के संसद प्रांगण में मेरी समाधी बना चुकी होती.

बात ज़्यादह विस्तार से नहीं लिखूंगा. बस यही कि ऐसी यादें भूलनें के लिये नहीं होती, क्योंकि इससे आपके देश का सन्मान जुडा होता है.

उन दिनों मेरा काम संसद भवन के आहाते में ही बन रहे Parliament Library Project में चल रहा था. मेरी टीम के ५० से भी ज़्यादा आदमी पिहले देड महिनें से रात दिन एक करके लायब्ररी के फ़र्नीचर को असेंबल करने में लगे हुए थे जिसे मैने डिज़ाईन और सप्लाय किया था.

मैं उसी दिन अल सुबह वहां पहुंचा था, क्योंकि प्रधान मंत्री के लिये बनाई हुई टेबल में कुछ बुनियादी बदल करना थे, क्योंकि श्री अटल बिहारी बाजपेयी की घुटनों की तकलीफ़ की वजह से , उस खास डिज़ाईन में उन्हे तकलीफ़ आ रही थे.

मैं जैसे ही लायब्ररी के ६ मंज़िल की भव्य वास्तु (३ मंज़िल गाऊंड लेवल से ऊपर , और तीन बेसमेन्ट ) में जाकर काम का जायज़ा ले ही रहा थे कि अचानक गोलीयों की और मशीनगनों की आवाज़ से हम सभी काम करने वाले चौंक गये. वहां हमारे साथ करीब अलग अलग कंपनीयों के १५०० मज़दूर और २०० अफ़सरान काम कर रहे थे क्योंकि २६ जनवरी को उदघाटन तय था.

पहले तो समज़ ही नहीं पाये कि क्या हो रहा है, क्यों कि अकसर फ़िल्मों में सुनाई देने वाली आवाज़ से ये आवाज़ें अलग ही थी.

मैं भागकर उस हॊल में पहुंचा जहां से संसद का वह VIP GATE दिखाई दे रहा था जहांसे अक्सर प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति और अन्य विशिष्ट व्यक्ति आया जाया करते थे.

वहां एक बडा़ सा कांच का खिडकीनुमा पार्टिशन था, जहां से सभी गतिविधियां साफ़ दिखाई पडती थी.

मैं जैसे ही वहां से झांकने का प्रयास कर ही रहा था, दूसरी तरफ़ से याने VIP GATE की तरफ़ से दो गोलीयां कांच से टकराई.कांच अच्छी क्वालिटी का था एक ईंच मोटा, और संयोग ही हुआ कि एक गोली उसे छेदते हुए इस पार निकली और दूसरी छिटक कर रिफ़्लेक्ट हो गई(चूंकि तीखे कोण से आई थी).

बस , जो गोली अंदर आयी उसपे मेरा नाम नहीं लिखा था, और वह सामने दिवार में धंस गयी, और जो पलटी थी वह लगभग बिल्कुल मेरी ओर ही आ सकती थी!!

मैं ताबड़तोब पीछे मुड़कर वापिस हो लिया. मैं और मेरे साथ के सभी मौजूद लोग अब तक ये पूरी तरह से समझ चुके थे कि संसद पर आतंकवादीयों का हमला हो व्हुका है, और अब हमारी भी खैर नहीं.

भय की और मौत की एक थंडी़ लहर मन के किसी कोने से गुज़र गयी. दिमाग काम नहीं कर रहा था कि अब हम अपने आप को कैसे बचायें. हम सभी बाहर की ओर भागने की सोचने लगए, मगर मालूम पडा़ कि बाहर सभी ओर सेना नें परिसर को घेर लिया है, और अब सबसे मेहफ़ूज़ जगह थी यही लायब्ररी की भव्य इमारत.

मैंने और मेरे मातहत इंजीनीयरों/सहायकों नें तुरंत ही अपन आदमीयों को समेटा और बेसमेन्ट नं. १ में स्थित हमें एलॊट किये गये कमरे में जाकर बैठ गये.(यहां अभी तक दरवाज़े नहीं लगाये गये थे). आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हमारी मनस्थिति का, कि एक सामूहिक भय का और अफ़वाहों का वातावरण बन गया था, और लगातार ये आशंका व्यक्त की जा रही थी,कि आतंकवादी बडी संख्या में थे और अब वे हमारी बिल्डींग में घुसने वाले ही थे.

तभी हमने अपने बेसमेंट के कमरे की छोटे से रोशनदान से देखा कि कैसे हमारे ज़ांबाज़ सिपाही आतंकवादीयों से लोहा ले रहे थे. एक बार तो हमारे सामने एक सिपाही कवर में से एकदम बाहर निकला.शायद उसनें किसी आतंकवादी को देख लिया था,जो उस द्वार के ऊपर की छत पर छिपा हुआ था.

मगर उससे पहले आतंकवादी नें खडे हो कर उस सिपाही को शूट कर दिया. हम असहाय से , उसे चिल्ला चिल्ला कर आगाह करने लगे, जैसे कि हमारी आवाज़ उस तक पहुंच रही होगी. हम तो सिनेमाहॊल में मूव्ही देख रहे उस दर्शकों की तरह से ये सब देख रहे थे,एक मायाजाल के वर्च्युअल जगत में स्लो मोशन में फ़टी फ़टी आंखों से देख रहे थे ये नज़ारा.वक्त जैसे ठहर ही गया था.

मगर बाद में पता चला कि उस सिपाही नें गोली लगने के बावजूद अपनी राईफ़ल से उस आतंकवादी को निशाना लगाकर मार गिराया और खुद शहीद हो गया. शायद ये सिपाही शहीद नानकचंद था, जिसने देशभक्ति के और कर्तव्यपूर्ति के उस जज़बे की वजह से अपनी जान दे दी.

फ़िर एक लंबी खामोशी छा गयी. भय और बढ गया, क्योंकि यूं लगने लगा कि शायद अब आतंकवादी भाग रहे थे, और शायद यह नई निर्माणाधीन भवन छिपने या भागने के लिये बेहतर होगा. बीच में ये भी सुना कि उन्होनें किसी VIP को भी बंधक बना लिया है.

मौत की आहट की उस खामोशी को तोडते हुए कुछ लोगों की भागते हुए बेसमेंट में आने की आहट होने लगी.यह भवन इतना बडा था कि अब तक हमें उसके सभी रास्तों और सीढीयों का पता हो गया था. तब मुझे याद आया कि बेसमेंट नं. २ में नीचे कुछ कमरे ऐसे भी थे जहां दरवाज़े लग चुके थे और कहीं अस्थाई ताले भी लगा दिये थे.

मैं अपने साथ कुछ लोगों को लेकर नीचे की ओर भागा.मगर रास्ते में ही हमें कुछ दस बारह लोगों की भीड दिखाई दी ,जो और नीचे की ओर जा रही थी.

पहले तो हम ठिटक कर खडे हो गये , कि शायद आतंकवादी तो नहीं. मगर बाद में पता चला कि बिहार के कुछ बाहुबली सांसद उस तरफ़ से भाग कर यहां छिपने के लिये आ गये थे. बडा ही अजीब नज़ारा था कि ऐसे रौबिले और स्वयं आतंकवादी की शक्ल वाले ये माफ़िया के गुंडे लठैत संस्कृति के नुमाईंदे, जिन्होने अपने अपराधी इतिहास के बावजूद, गुंडा राजनिती के बल पर चुनाव जीत कर संसद में आ गये थे, मेरे सामने थर थर कांप रहे थे मौत के भय से. एक पहलवान नुमा सांसद का तो पजामा तक गीला हो गया था. उसनें मुझे देख कर हाथ पैर जोड़ कर मुझसे दया याचना की भीख मांगने लगा जैसे कि मैं ही कोई आतंकवादी हूं. फ़िर दूसरे नें स्थिति भापकर मुझसे बिनती की कि उन्हे तहखाने में कहीं किसी अंधेरे कमरे में बंद कर दें और बाहर से ताला लगा दें. दूसरे नें साथ में और ये जोड दिया कि ताले की चाबी कहीं अंधेरे में फ़ेंक दे!!

मैं ठगा सा विधि का विधान देख रहा था. एक वह सिपाही था , जो अपनी जान तक कुर्बान कर गया, और दूसरे जान से डरके थर थर कांपने वाले ये सांसद हैं, जिनके लिये उसनें अपनी जान दी.

खैर, मौत का खौफ़ शहादत से ऊपर चढ़ कर बोलता है. हम सभी दूसरे नीचे के तल के बेसमेंट में चले गये और करीब चार बजे तक छोटे कमरों में छुपे रहे. बाद में जब हमारे एक साथी नें ऊपर जाकर वस्तुस्थिति का पता किया (BRAVE) तब जाकर हम सभी बाह्र निकले. मगर हमारे बहादुर साथीयों नें(सांसद) फ़िर भी ऊपर जाने से मना किया, और स्वयं नज़मा हेपतुल्ला जी आयीं और उन्हे बाहर निकाला.

क्या विरोधाभास और मज़ाक नही है, कि आज आठ साल के बाद भी अफ़ज़ल गुरु , जिसे हमारे न्यायालय ने बाकायदा न्याय प्रक्रिया के तेहत दोषी करा देते हुए फ़ांसी की सज़ा मुकर्रर की , उसे अभी तक किसी ना किसी खोखले तर्क के बिना पर ज़िंदगी मुहैय्या कराई जा रही है. ये उन्शहीदों और सच्चे देशभक्त लोगों की शहादत का मज़ाक है, और हम सभी उसे समझ कर भी कर्महीनता के कारण चुप बैठे है.

पता चला है कि कोई श्री राधा रंजन नें Hang Afazal Guru के नाम से ओनलाईन हस्ताक्षर अभियान चला रखा है,और अब तक १४०० लोगों ने उसपर समर्थन दिया है. मगर दुख की या शर्म की बात ये भी है कि किसी तथाकथित मानव अधिकार संगठन नें Justice for Afazal Guru नाम से समानांतर अभियान चला रखा है नेट पर, और उसपर १६६६ लोग अपना नाम दर्ज़ करा चुके हैं.

याने यहां भी हमारी हार?

क्या आप मुझसे सेहमत हैं?

क्या आप नहीं चाहेंगे कि हम सभी ब्लोगर दुनिया के भाई और बेहनों को नही चाइये कि हम अपना विरोध दर्ज़ करायें और एक सामाजिक चेतना में अपना भी सहभाग दें?
http://www.petitiononline.com/hmag1234/petition.html

Sunday, December 13, 2009

अफ़ज़ल गुरु की फ़ांसी का मज़ाक और २००१ के हमले का आंखो देखा हाल..




ये तो वाकई हद ही हो गयी कि मैंने अपने इस ब्लोग पर पिछले दो पूरे महिनों में कुछ भी पोस्ट नहीं किया.मुआफ़ी चाहूंगा.

अभी परसों सुरेशजी चिपलूणकर की एक पोस्ट पढ़ रहा था जिसमें उन्होनें अपने चिर परिचित अंदाज़ में व्यंग करते हुए २००१ में हुए संसद पर हमले का सरगना मास्टरमाइंड अफ़ज़ल गुरु को बर्थ डे पर विश किया था.

ये वाकई शर्म की बात है कि आज उस दिन को आठ साल हो गये हैं, और हमारी शिखंडी जमात उसे अभी तक फ़ांसी तक नहीं चढा पायी.

शिखण्डी हम इसलिये हैं कि जिसनें हमारे देश के संप्रभुता को चुनौती देते हुए प्रजातंत्र के सर्वोच्च मंदिर पर हमला करने का षडयंत्र रचने का दुस्साहस किया, उसको फ़ांसी देने के लिये में आप , मैं और करोडो भारतीय बृहन्नलाओं की तरह ताली पीट पीट कर अपने अपने बिल में घुसे हुए ही गुहार मचा रहे हैं, और अफ़ज़ल गुरु जैसा ही और कोई विनाशकारी दिमाग कहीं दूर बैठ कर मुस्कुराते हुए एक नयी योजना बना रहा होगा, बेखौफ़ हो कर, क्योंकि हम जैसों को राष्ट्र भक्ति या राष्ट्राभिमान का जज़बा सिर्फ़ फ़िल्मी गीतों की रिकोर्ड बजा देने से पूरा हो जाता है.

वैसे अफ़ज़ल गुरु से मेरा व्यक्तिगत दुश्मनी का नाता भी है.

एक तो उसने मेरे भारत (Repeat MY INDIA)्की सहिष्णुता का मज़ाक उडाते हुए ये दुस्साहस किया.

दूसरे, आज भाग्य की वजह से मैं आपके सामने ये पोस्ट लिखने को ज़िंदा बचा हुआ हूं, वरना उसके अनुयायी की एक गोली उस दिन दिल्ली के संसद प्रांगण में मेरी समाधी बना चुकी होती.

बात ज़्यादह विस्तार से नहीं लिखूंगा. बस यही कि ऐसी यादें भूलनें के लिये नहीं होती, क्योंकि इससे आपके देश का सन्मान जुडा होता है.

उन दिनों मेरा काम संसद भवन के आहाते में ही बन रहे Parliament Library Project में चल रहा था. मेरी टीम के ५० से भी ज़्यादा आदमी पिहले देड महिनें से रात दिन एक करके लायब्ररी के फ़र्नीचर को असेंबल करने में लगे हुए थे जिसे मैने डिज़ाईन और सप्लाय किया था.

मैं उसी दिन अल सुबह वहां पहुंचा था, क्योंकि प्रधान मंत्री के लिये बनाई हुई टेबल में कुछ बुनियादी बदल करना थे, क्योंकि श्री अटल बिहारी बाजपेयी की घुटनों की तकलीफ़ की वजह से , उस खास डिज़ाईन में उन्हे तकलीफ़ आ रही थे.

मैं जैसे ही लायब्ररी के ६ मंज़िल की भव्य वास्तु (३ मंज़िल गाऊंड लेवल से ऊपर , और तीन बेसमेन्ट ) में जाकर काम का जायज़ा ले ही रहा थे कि अचानक गोलीयों की और मशीनगनों की आवाज़ से हम सभी काम करने वाले चौंक गये. वहां हमारे साथ करीब अलग अलग कंपनीयों के १५०० मज़दूर और २०० अफ़सरान काम कर रहे थे क्योंकि २६ जनवरी को उदघाटन तय था.

पहले तो समज़ ही नहीं पाये कि क्या हो रहा है, क्यों कि अकसर फ़िल्मों में सुनाई देने वाली आवाज़ से ये आवाज़ें अलग ही थी.

मैं भागकर उस हॊल में पहुंचा जहां से संसद का वह VIP GATE दिखाई दे रहा था जहांसे अक्सर प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति और अन्य विशिष्ट व्यक्ति आया जाया करते थे.

वहां एक बडा़ सा कांच का खिडकीनुमा पार्टिशन था, जहां से सभी गतिविधियां साफ़ दिखाई पडती थी.

मैं जैसे ही वहां से झांकने का प्रयास कर ही रहा था, दूसरी तरफ़ से याने VIP GATE की तरफ़ से दो गोलीयां कांच से टकराई.कांच अच्छी क्वालिटी का था एक ईंच मोटा, और संयोग ही हुआ कि एक गोली उसे छेदते हुए इस पार निकली और दूसरी छिटक कर रिफ़्लेक्ट हो गई(चूंकि तीखे कोण से आई थी).

बस , जो गोली अंदर आयी उसपे मेरा नाम नहीं लिखा था, और वह सामने दिवार में धंस गयी, और जो पलटी थी वह लगभग बिल्कुल मेरी ओर ही आ सकती थी!!

मैं ताबड़तोब पीछे मुड़कर वापिस हो लिया. मैं और मेरे साथ के सभी मौजूद लोग अब तक ये पूरी तरह से समझ चुके थे कि संसद पर आतंकवादीयों का हमला हो व्हुका है, और अब हमारी भी खैर नहीं.

भय की और मौत की एक थंडी़ लहर मन के किसी कोने से गुज़र गयी. दिमाग काम नहीं कर रहा था कि अब हम अपने आप को कैसे बचायें. हम सभी बाहर की ओर भागने की सोचने लगए, मगर मालूम पडा़ कि बाहर सभी ओर सेना नें परिसर को घेर लिया है, और अब सबसे मेहफ़ूज़ जगह थी यही लायब्ररी की भव्य इमारत.

मैंने और मेरे मातहत इंजीनीयरों/सहायकों नें तुरंत ही अपन आदमीयों को समेटा और बेसमेन्ट नं. १ में स्थित हमें एलॊट किये गये कमरे में जाकर बैठ गये.(यहां अभी तक दरवाज़े नहीं लगाये गये थे). आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हमारी मनस्थिति का, कि एक सामूहिक भय का और अफ़वाहों का वातावरण बन गया था, और लगातार ये आशंका व्यक्त की जा रही थी,कि आतंकवादी बडी संख्या में थे और अब वे हमारी बिल्डींग में घुसने वाले ही थे.

तभी हमने अपने बेसमेंट के कमरे की छोटे से रोशनदान से देखा कि कैसे हमारे ज़ांबाज़ सिपाही आतंकवादीयों से लोहा ले रहे थे. एक बार तो हमारे सामने एक सिपाही कवर में से एकदम बाहर निकला.शायद उसनें किसी आतंकवादी को देख लिया था,जो उस द्वार के ऊपर की छत पर छिपा हुआ था.

मगर उससे पहले आतंकवादी नें खडे हो कर उस सिपाही को शूट कर दिया. हम असहाय से , उसे चिल्ला चिल्ला कर आगाह करने लगे, जैसे कि हमारी आवाज़ उस तक पहुंच रही होगी. हम तो सिनेमाहॊल में मूव्ही देख रहे उस दर्शकों की तरह से ये सब देख रहे थे,एक मायाजाल के वर्च्युअल जगत में स्लो मोशन में फ़टी फ़टी आंखों से देख रहे थे ये नज़ारा.वक्त जैसे ठहर ही गया था.

मगर बाद में पता चला कि उस सिपाही नें गोली लगने के बावजूद अपनी राईफ़ल से उस आतंकवादी को निशाना लगाकर मार गिराया और खुद शहीद हो गया. शायद ये सिपाही शहीद नानकचंद था, जिसने देशभक्ति के और कर्तव्यपूर्ति के उस जज़बे की वजह से अपनी जान दे दी.

फ़िर एक लंबी खामोशी छा गयी. भय और बढ गया, क्योंकि यूं लगने लगा कि शायद अब आतंकवादी भाग रहे थे, और शायद यह नई निर्माणाधीन भवन छिपने या भागने के लिये बेहतर होगा. बीच में ये भी सुना कि उन्होनें किसी VIP को भी बंधक बना लिया है.

मौत की आहट की उस खामोशी को तोडते हुए कुछ लोगों की भागते हुए बेसमेंट में आने की आहट होने लगी.यह भवन इतना बडा था कि अब तक हमें उसके सभी रास्तों और सीढीयों का पता हो गया था. तब मुझे याद आया कि बेसमेंट नं. २ में नीचे कुछ कमरे ऐसे भी थे जहां दरवाज़े लग चुके थे और कहीं अस्थाई ताले भी लगा दिये थे.

मैं अपने साथ कुछ लोगों को लेकर नीचे की ओर भागा.मगर रास्ते में ही हमें कुछ दस बारह लोगों की भीड दिखाई दी ,जो और नीचे की ओर जा रही थी.

पहले तो हम ठिटक कर खडे हो गये , कि शायद आतंकवादी तो नहीं. मगर बाद में पता चला कि बिहार के कुछ बाहुबली सांसद उस तरफ़ से भाग कर यहां छिपने के लिये आ गये थे. बडा ही अजीब नज़ारा था कि ऐसे रौबिले और स्वयं आतंकवादी की शक्ल वाले ये माफ़िया के गुंडे लठैत संस्कृति के नुमाईंदे, जिन्होने अपने अपराधी इतिहास के बावजूद, गुंडा राजनिती के बल पर चुनाव जीत कर संसद में आ गये थे, मेरे सामने थर थर कांप रहे थे मौत के भय से. एक पहलवान नुमा सांसद का तो पजामा तक गीला हो गया था. उसनें मुझे देख कर हाथ पैर जोड़ कर मुझसे दया याचना की भीख मांगने लगा जैसे कि मैं ही कोई आतंकवादी हूं. फ़िर दूसरे नें स्थिति भापकर मुझसे बिनती की कि उन्हे तहखाने में कहीं किसी अंधेरे कमरे में बंद कर दें और बाहर से ताला लगा दें. दूसरे नें साथ में और ये जोड दिया कि ताले की चाबी कहीं अंधेरे में फ़ेंक दे!!

मैं ठगा सा विधि का विधान देख रहा था. एक वह सिपाही था , जो अपनी जान तक कुर्बान कर गया, और दूसरे जान से डरके थर थर कांपने वाले ये सांसद हैं, जिनके लिये उसनें अपनी जान दी.

खैर, मौत का खौफ़ शहादत से ऊपर चढ़ कर बोलता है. हम सभी दूसरे नीचे के तल के बेसमेंट में चले गये और करीब चार बजे तक छोटे कमरों में छुपे रहे. बाद में जब हमारे एक साथी नें ऊपर जाकर वस्तुस्थिति का पता किया (BRAVE) तब जाकर हम सभी बाह्र निकले. मगर हमारे बहादुर साथीयों नें(सांसद) फ़िर भी ऊपर जाने से मना किया, और स्वयं नज़मा हेपतुल्ला जी आयीं और उन्हे बाहर निकाला.

क्या विरोधाभास और मज़ाक नही है, कि आज आठ साल के बाद भी अफ़ज़ल गुरु , जिसे हमारे न्यायालय ने बाकायदा न्याय प्रक्रिया के तेहत दोषी करा देते हुए फ़ांसी की सज़ा मुकर्रर की , उसे अभी तक किसी ना किसी खोखले तर्क के बिना पर ज़िंदगी मुहैय्या कराई जा रही है. ये उन्शहीदों और सच्चे देशभक्त लोगों की शहादत का मज़ाक है, और हम सभी उसे समझ कर भी कर्महीनता के कारण चुप बैठे है.

पता चला है कि कोई श्री राधा रंजन नें Hang Afazal Guru के नाम से ओनलाईन हस्ताक्षर अभियान चला रखा है,और अब तक १४०० लोगों ने उसपर समर्थन दिया है. मगर दुख की या शर्म की बात ये भी है कि किसी तथाकथित मानव अधिकार संगठन नें Justice for Afazal Guru नाम से समानांतर अभियान चला रखा है नेट पर, और उसपर १६६६ लोग अपना नाम दर्ज़ करा चुके हैं.

याने यहां भी हमारी हार?

क्या आप मुझसे सेहमत हैं?

क्या आप नहीं चाहेंगे कि हम सभी ब्लोगर दुनिया के भाई और बेहनों को नही चाइये कि हम अपना विरोध दर्ज़ करायें और एक सामाजिक चेतना में अपना भी सहभाग दें?
http://www.petitiononline.com/hmag1234/petition.html

Thursday, October 8, 2009

मन रे तू काहे ना धीर धरे..... करवा चौथ-- बनाम सातवां जन्म


नहीं, मैं यहां आपको ये गीत नहीं सुनवा रहा हूं. ना ही अपनी आवाज़ में , ना ही रफ़ी जी के स्वार्गिक स्वर में.मैं तो आज बडा ही खुश हूं , मूड में हूं , क्योंकि आज का दिन बडा ही भाग्यशाली दिन है,जो पूरा खुशनुमा गुज़रता है, और पत्नी की तरफ़ से कोई रिस्क नहीं होती.

जी हां,आज करवा चौथ के व्रत का पावन दिन है. आपको मालूम ही है कि आज के दिन उत्तर भारत में पत्नीयां अपने (अपने) पति की लंबी उमर के लिये व्रत रखती हैं, दिन भर उपवास रखती हैं, और रात को चंद्रमा को देखकर ही व्रत तोडती हैं.

मगर हमारे यहां महाराष्ट्रीय परिवार में करवा चौथ नहीं मनाया जाता.

इसलिये हमारी एक मात्र पत्नी डॊ. नेहा नें जब आज मुझसे सुबह यह बताया कि वह भी आज व्रत में उपवास रख रही है, तो मैं हैरान हो गया.मगर उन्होने बाद में स्पष्टिकरण दिया कि आज संकष्टि चतुर्थी है और इस बार से वह हर महिने यह व्रत रखा करेगी.

मैंने चैन की सांस ली. चूंकि हमारे यहां हरतालिका का व्रत रखती हैं पत्नीयां जो करवा चौथ से बहुत ज़्यादा कडा होता है.एक रात पहले के डिनर के बाद पूरा दिन और रात बारह बजे तक कोई अन्न या जल तक नहीं लेती.जबकि सुना है, कि करवा चौथ में सुबह उठ कर पहले कुछ खा लिया जाता है, और शाम को चांद को देखकर व्रत तोडा जाता है.

वैसे हमारे देश में यह बात बडे महत्वपूर्ण और असर के साथ कही जाती है, कि हर पत्नी सात जन्मों के लिये एक ही पति की कामना करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करती है, और व्रत रखती है.

अब बताईये ,मेरे मित्र की पत्नी का एक SMS नेहा को आया था जो जंच गया अपुन को, कि पत्नीयां इसलिये हर जन्म उसी पति को ईश्वर से मांगती हैं , क्योंकि अगले जनम में पति पर इस जनम की गई उसकी मेहनत बेकार नहीं चली जाये!!!(सात जनम तो लगेंगे ही एक अदद पति को पूरी तरह से ’सुधरने’ को!!!)

इसीलिये मैंने पत्नी को इस बार भी आश्वासन दिया( हमेशा की तरह ) कि इस साल तो मैं सुधर कर दिखाऊंगा. मगर पत्नी सिर्फ़ हंस दी. गोया , ना मैं सुधरूंगा, और ना ही अगले जनम की बर्थ पक्की.

वैसे नेहा अपने उस मित्र से फोन पर कह थी कि यह जनम आखरी है.याने सातवां!!!!!

याने , इसका क्या मतलब हुआ?

याने अपन पूरे सुधर गये है?
या
अपने में अब सुधरने का कोई चांस नही रहा?
या
जो भी हो, अब बहुत हुआ.नई घोडी(या नया घोडा) नया दाम ?
या
क्या आपको ही सेंस ओफ़ ह्युमर है?, हम मज़ाक नहीं कर सकते?(इति-पत्नी)

वैसे अब ये गीत कहां तक सार्थक होता है - और किसके लिये -(मेरे या पत्नी के लिये) कि मन रे तू काहे ना धीर धरे- बस ये तो सातवां जन्म है!!!

अब बताईये , अगर कोई चेनल वाला आ गया और मुझसे पूछ बैठा कि आपकी क्या रियेक्शन है? तो मैं क्या जवाब दूंगा?

Friday, September 18, 2009

डेंग्यु बनाम वाईरल फ़्ल्यु


अंत भला तो सब भला.

बिटिया भी चंगी हो गयी और अपन भी.

दरसल स्वाईन फ़्यु के चक्कर में मीडीया इतनी व्यस्त हो गयी है कि घबराहट ज़्यादा हो रही है, मौतों के बनिस्बत.

ये चित्र मेरी बडी बेटी नूपुर नें पुणें से भेजी है, एक शादी का विचित्र किंतु सत्य चित्र. सत्य यूं कि पूणें में भी हास्य बोध की कमी नहीं है.

वैसे मानसी को डेंग्यु हुआ था और मुझे वाईरल फ़्ल्यु, मगर दोनों में लक्षण एक होने के बावजूद डेंग्यु घातक है, क्योंकि उसमें खून में प्लेटलेट्स की मात्रा काफ़ी कम हो जाती है, और रक्त स्त्राव शुरु हो जाता है, जो कि जानलेवा भी हो सकता है.
इंदौर में इस समय हर १० में से ३ व्यक्ति डेंग्यु या वाईरल से पीडीत है( डेंग्यु की मोर्टेलिटी रेट ५% है जबकि स्वाईन फ़्यु का १%)

मेरे मित्र के बेटे का केस इतना बिगडा कि रातो रात मुम्बई लीलावती हस्पताल में भरती करना पडा.वहां पता चला कि चूंकि बदन दर्द की वजह से एनल्जेसिक गोली दी गयी थी उसने प्लेटलेट्स और भी खतरनाक स्तर तक कम कर दिये.बिटिया को भी गलती या अनजाने में मैने भी यही गोली दी थी, मगर मालूम होते ही स्वयं को दूर रखा, पीडा के गहरे एहसास के बावजूद.

अब पता चला है, कि भारत में अन्य शहरों में भी यही बुखार फ़ैल रहा है, जिसे मीडीया ने अधिक तवज्जो नहीं दी है, जो ठीक ही है.

भगवान ना करे, किसी को ये बुखार हो, मगर ये पोस्ट लिखने का मुख्य उद्देश्य ये ही है, कि अगर हड्डी तोड दर्द के साथ बुखार आये तो प्लेटलेट्स का ध्यान रखें , और एनल्जेसिक गोली से या अस्प्रिन से एकदम परहेज करें.....(डॊ. की सलाहनुसार)

Tuesday, September 15, 2009

हिंदी डे के ग्रेट ऒकेज़न पर आपसे रिक्वेस्ट


आपमें से कई ब्लॊगर्स जानते ही होंगे कि कल हिंदी डे था.

कल वैसे मैं ज़्यादा ही बीज़ी था , क्योंकि एक दम से मुझे भी फ़ीवर आ गया था.ऊपर से मेरे दोनों लेपटॊप मेंटेनेंस में,याने करेला और नीम चढा. मगर आई लव हिंदी, इसलिये मेरी बडी डिज़ायर थी कि हिंदी पर कुछ लिखूं.इसीलिये आज लेपटॊप आते ही ये राईट अप.वाईफ़ पहले से दो पेशंट्स से डिस्टर्ब थी और अब १०२ टेंपरेचर में मेरा पोस्ट लिखना कुछ टू मच ही हो गया.मगर मेरे हिडी सोरी हिंदी प्रेम नें मुझे मोटीवेट किया और मिसेस के ऒब्जेक्शन के बावजूद लिखने बैठ गया.

अब आप से क्या छुपाऊं.एक्च्युअली मेरा हिंदी प्रेम तो पूरे वर्ल्ड में फ़ेमस है.मैं जब भी हिंदी बोलता हूं तो ये काफ़ी ट्राई करता हूं कि सिर्फ़ हिंदी के ही वर्ड्स बोलूं, और साथ में राईटिंग में जब भी मैं कोई सेंटेंस लिखता हूं तो मेरी कोशिश होती है, कि इंग्लिश का युज़ ना करूं.

दर असल, हमें अपनी मातृ भाषा पर प्राईड होना चाहिये. यह मात्र भाषा नहीं , लेकिन मदर टंग है हमारी.

इसलिये आप सभी से मेरा रिक्वेस्ट है कि जहां तक हो सकें हिंदी को अपलिफ़्ट करें, और उसके सामने इंग्लिश को कही भी इम्पोर्टेंस ना दें. ये कोई डिफ़िकल्ट नहीं है,बडा ही ईज़ी है.बस आपके माइंड में आप डिसाईड कर लें तो ये कोई इम्पोसिबल नही हैं.

तो आप सब मुझे प्रोमिस करें कि सभी मिलकर इस ग्रेट ऒकेज़न पर याने हिंदी डे पर हम हिन्दी को और इसके कल्चर को , लिट्रेचर को सपोर्ट करें ताकि एक दिन हम गर्व के साथ कह सकें कि हिंदी है हम, हिंदी हैं हम,हिंदी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा.....


क्या आप मेरे लॊजिक और फिलॊसॊफ़ी से एग्री करतें है?

Tuesday, August 25, 2009

सुखकर्ता , दुखहर्ता - गणेश चतुर्थी



सुखकर्ता , दुखहर्ता भगवान श्री गणेश की जन्म दिवस गणेश चतुर्थी पर आप सभी को लेट लतीफ़ का नमस्कार.

हमारे राष्ट्र में और खासकर महा’राष्ट्र’ में हर जगह बडे उत्साह से हर भक्त नें अपने अपने सामर्थ्य से भगवान श्री गजानन की मूर्ती की स्थापना अपने घरों में, ऒफ़िस में और अन्य कार्य क्षेत्रों में ज़रूर लगाई होगी. जो नहीं लगा पायें हों उन्होने भी अपने मन में उस मनोहर मूरत की छबि बसाई होगी.

हमारा परिवार महाराष्ट्रीय संस्कृति और परंपरा का निर्वाह करते हुए हर साल अपने यहां भगवान श्री वक्रतुंड महाकाय की मनोहारी मूर्ती स्थापित करता चला आ रहा है. हमारे पूर्वज करीब २०० साल पहले मालवा के सुबेदार मल्हारराव होल्कर प्रथम के राजगुरु बनके जब इंदौर आये तब से हमारे यहां इस परंपरा के अनुसार ५ दिन के बाद भगवान श्री गजानान की मंगल मूर्ती का विसर्जन कर देते हैं.

आज के दिन सुबह हम सभी परिवार के सदस्य इंदौर के प्रसिद्ध शनि मंदिर के पास गणेश मंदिर जाते हैं, और करीब दो पीढीयों से मिट्टी की ईको फ़्रेंडली मूर्ती बनाने वाले प्रसिद्ध मूर्तिकार खरगोणकर के यहां से मूर्ती लाते हैं. यह मूर्ति विसर्जन करते समय बहुत ही जल्दी जल में घुल जाती है, और इसमें सभी रंग नॊन टॊक्सिक लगाये जाते हैं. वरना आज हर जगह प्लास्टर ओफ़ पेरिस की सांचे में ढली मूर्तीयां मिलती है, जिसपर टोक्सिक पेंट किया जाता है, और जब भी इन्हे शहर के कूंवें , बावडीयों में विसर्जित किया जाता है, तो ये जल में घुलती नहीं है, और प्रदूषण फ़ैलाती है.


वैसे हम दो गणेशजी की स्थापना करते है>



एक दायीं सूंड वाले गणपति ,जिन्हे हम सार्वजनिक झांकी के साथ विराजमान करते हैं.
(पुणेरी पगडी़ धारण किये हुए- ऊपर के चित्र में झांकी)












दूसरे बांयी सूंड वाले गणपति , जो हमारे पूजा स्थान में बिराजते हैं, और उनकी पूजा बडी कडाई से परंपरागत सोवले में याने रेशमी धोती में होती है.(वैसे मुझे बचपन से यह कभी समझ में नहीं आया कि रोज़ रोज़ धुलने वाले कपडे या धोती भला क्यों स्वच्छ होते हुए भी नहीं पहनी जाती थी, बल्कि इतने दिनों से ना धोये, सोवला( सोळं )क्यों चल जाता था.




फ़िर २१ मोदकॊं का भोग लगने के बाद हमें प्रसाद मिलता है, जो पांच दिनों रोज़ दो बार की आरती के बाद ग्रहण किया जाता है.

पहले बचपन में गणेशोत्सव बडी धूमधाम से होते थे, और आज भी होते हैं. गली गली, मोहल्ले मोहल्ले में गणेशोत्सव समितियों का गठन होता था और हर दिन शाम को सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे. उन दिनों हम सभी गीत गायन प्रतियोगिता में भाग लेकर कप जीतते थे, एकांकियां और नाटक के मंचन करते थे और तालियां बटोरते थे.

इन्दौर शहर में तो यह उत्सव १० दिन चल कर इसका समापन अनंत चौदस पर होता था, जिसमें नगर के सभी गणमान्य गणेशोत्सव समितियों के (खासकर यहां की कपडा़ मीलों के) स्थापित गणेश जी को विसर्जित किया जाता था बाकायदा झांकीयों के रूप में, जो रात भर चलती थी, और सुबह जाकर विसर्जन किया जाता था.इन झांकियो को एक कार्निवाल सा स्वरूप होता था, और आस पास से , और दूर से टूरिस्ट्स के जत्थे के जत्थे इन्दौर में आते थे.



आज भी कमोबेश समितियां बन रहीं है, और चंदे उगाये जा रहें है.मगर दुख यही है, कि अधिकतर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में संकृति या संस्कार के दर्शन होने की बजाये, दिन भर लाउडस्पीकर पर फ़िल्मी धुनें बजती हैं(बीडी जलई ले..) और रात को डिस्को धुनों पर नाच गाना. हां , यहां के मराठी समाज नें ज़रूर अपनी पुरानी परंपरा जारी रखी हुई है, और महंगाई और बीमार मीलों के बावजूद झांकी निकलना जारी है. मैं अपनी दिली कोशिश करके इसके बारे में एक अलग पोस्ट पेश करूंगा.के पास

Tuesday, August 18, 2009

शहीद मदनलाल धिंग्रा - पुण्य स्मरण


इस हफ़्ते बडी़ गहमा गहमी थी. जैसे पिछले हफ़्ते राखी के त्योहार का सुरूर चढा, इस हफ़्ते जन्माष्टमी का. और साथ ही हमारे सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां का स्वतंत्रता दिवस!! क्या बात है!!

दोस्तों आपको याद ही होगा, भारत का स्वतंत्रता दिवस १५ अगस्त को होता है.

अरे आप बुरा मत मानिये! मैं तो जरा मजे ले रहा था. मैं तो नेताओं के बारे में सोच रहा था. बचपन में आर.के. लक्ष्मण का एक बढिया कार्टून देखा था जो अब तक जेहन में है.उसमें गांधीजी के एक बडे़ फ़्रेम लगे चित्र को देख कर उसके नीचे लिखी नामपट्टी को एक नेताजी पढ रहे थे झुक कर, तो उनका पी ए फ़ुसफ़ुसाकर कह रहा था - सर, गांधीजी हैं ये!!!

वैसे आजकल कोई भी स्वनामधन्य नेता १५ अगस्त नहीं भूलता. हर कद्दावर नेता इस अवसर को भुनाने की पहले सोचता है. मगर हर पार्टी नें अपने अपने नेता बांट लिये है. कांग्रेस के नेताओं द्वारा आयोजित कार्यक्रम (या प्रायोजित?)के बेनर पर उस नेता और मित्र मंडल के बडे बडे फोटूओं के साथ सोनिया और राहुल के चित्र के साथ दो चार छोटे छोटे चित्र गांधीजी, नेहरूजी, और शास्त्री जी के मिल सकते हैं(कभी भगत सिंह के भी). वैसे ही भाजपा के कार्यक्रम में सावरकरी,उपाध्यायजी आदि के चित्र अटल जी और अडवानी जी के साथ नमूदार हो सकते है.याने इन सभी राष्ट्रीय संतों को भी बांट लिया गया है.

शहीदों की बात चल पडी है, तो ये बात गौर करने लायक है, कि हम भगतसिंह, राजगुरु आदि को तो याद कर लेते हैं, (अच्छी बात है) मगर अन्य कई शहीदों को भूल जाते हैं जिन्होने भी इस मातृभूमि के लिये अपने प्राणों की आहूति दी है.याने उन्हे मीडीया का भी साथ नहीं मिल पाता , क्योंकि शायद आजकल की नई पीढी के टाई लगा कर एयरकंडीशन ओफ़िस में कीबोर्ड पर लिखने वाले पत्रकार (उसपर अंग्रेज़ी के जर्नलिस्ट्स-याने करेला और नीम चढा) इन के नाम तक ही नही जानते , उनके हीरोईक कारनामों का तसव्वूर करना तो दूर ही की बात है.

ऐसा ही एक नाम है- शहीद मदनलाल धिंग्रा का.

जब हमारे यहां भारत में गांधीजी, नेहरूजी,सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद आदि अहिंसा और सत्याग्रह के मार्ग पर चल कर और चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंग,सुभाशचंद्र बोस आदि अन्य विचारधारा से प्रेरित राष्ट्रभक्त अपने प्राणों को न्योछावर करने के लिये इस महा संग्राम में कूद पडे थे, वहीं ग्रेट ब्रिटन में भी एक और ब्रिगेड के साथी आज़ादी की इस क्रांति के दहकते ज्वालाकुंड में आहूति देने के लिये कटिबद्ध थे -

स्वातंत्रवीर सावरकर, श्यामजी कृष्णवर्मा, मेडम भिकाजी कामा, सरदार अजितसिंग, सरोजिनी नायडू के भाई वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय ,रामबिहारी बोस, चंपकरमण पिल्लई आदि .और उनमें एक नाम बोल्ड अक्षरों के साथ लिखा गया है, मदनलाल धिंग्रा का.

एकदम निश्चयी मन के , त्याग की प्रतिमूर्ति , देशभक्ति के लिये धधकते हुए जज़बात जिसके नस नस में भरे हुए थे ,ऐसे इस क्रांतिवीर के पराक्रम और देश के लिये दी गयी कुर्बानी को इस कृतघ्न देश नें याद नहीं रखा.

मैं यहां आपको बता दूं , कि इस उपेक्षित शहीद शिरोमणि को ब्रिटिश सरकार नें १७ अगस्त सन १९०९ को फ़ांसी पर लटका दिया था, और आज इस दिन को १०० वर्ष पूरे हो गये हैं. क्या आपने कहीं किसी अखबार में(इक्के दुक्के को छोड कर)इस महत्वपूर्ण जानकारी का और शहीद दिन की शताब्दी दिवस का ज़िक्र पाया है?

वैसे मैं यहां इस अमर शहीद की जीवनी के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं लिखूंगा, क्योंकि आज वह प्रासंगिक नही होगा शायद, मगर ये ज़रूर बताना चाहूंगा कि उसे किस लिये फ़ांसी की सज़ा दी गयी और इस नौजवान में जो देशभक्ति का जज़बा था उसकी प्रेरणा उसे कैसे मिली?

ब्रिक्स्टन जेल जहां मदनलाल,सावरकर आदि को रखा गया था.

एक सिविल सर्जन के बेटे, अमृतसर के सुखसुविधा से संपन्न परिवार में जन्म लेकर क्रांतिवीर बनने तक का सफ़र लंदन में शुरु हुआ जब मदनलाल लंदन के युनिवर्सिटी कॊलेज से सिविल इन्जिनीयरिंग में डि़प्लोमा कर रहे थे.सन १९०५ के आसपास का समय था.वहां के इंडिया हाउस में युवावस्था के रंगीन मस्ती भरी शामें बिताने जाया करते थे मदनलाल.रोमांटिक गाने,मित्रों के बीच सपनों की दीवानी दुनिया की चुहुलबाज़ी, बौद्धिक बहसें आदि दिनचर्या थी.देशभक्ति की भावना का दूर दूर तक पता नहीं था.

उन दिनों साथी क्रांतिकारीयों के साथ सावरकरजी की बम बनाने और अन्य शस्त्रों को हासिल करने की कोशिशें चल रही थी तो मदनलाल भी उनके संपर्क में आये, और वहां से उनके जीवन धारा में एक रेडिकल बदलाव आया, और वे भी शामिल हो गये इस आज़ादी की लढाई में.

उसके बाद उन्होने लोर्ड कर्ज़न वाईसरॊय का कत्ल करने की कोशिश की, मगर वह दो बार बच गया.बंगाल के पूर्व गवर्नर ब्रॆमफ़िल्ड फ़ुल्लर को मारने की योजना भी नाकाम रही क्योंकि मदनलाजी वहां लेट पहुंचे. फ़िर उन्होने कर्ज़न वाईली को मारने का निश्चय किया.जिस मीटिंग में योजना बनाई गयी उसमें बिपिनचंद्र पाल भी मौजूद थे. सावरकर नें कठोरता से मदनलाल को कहा कि अगर सफ़ल होकर नही आये तो कभी भी मुंह नही दिखाना.

१ जुलाई १००९ को रात को मदनलाल वाईली से मिले और उनसे कुछ खास बात करने के बहाने उनके समीप पहुंचे .११ बजकर २० मिनीट पर उन्होने जेब से कोल्ट पिस्टल निकाल कर कर्ज़न वाईली पर करीब से दो गोलीयां चलाई, जिससे वह जगह पर ही ढेर हो गया.ये देखकर एक पारसी डॊक्टर कावसजी लालकाका उसे बचाने दौडा तो उस पर भी गोली चलाई , और खुद पर भी चलाने ही वाले थे कि उन्हे पकड लिया गया.

उन्हे पकड कर जब मेजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया तो उन्होनें शान से कहा कि मैं आपका कानून नहीं मानता. जिस तरह से जर्मन लोगों का ब्रिटेन पर राज करने का कोई अधिकार नहीं वैसे ही आप लोगो को भी हम पर राज करने का अधिकार कैसे हो सकता है?

१७ अगस्त १९०९ को याने आज से सौ साल पहले सुबह पेण्टोविले की जेल में फ़ांसी पर चढाया गया.यह वही जेल है, जहां १९४० में भारत माता के एक और लाडले सपूत शईद उधमसिंग को भी फ़ांसी पर चढा़या गया था.

दुर्भाग्य से इस देशभक्त के पार्थिव शरीर को वापस नहीं दिया गया और इसी जेल में दफ़ना दिया गया.

बाद में सन १२ डिसेंबर १९७६ को भारत सरकार के प्रयत्नों के कारण उनके पार्थिव शरीर लिये हुए शवपेटी को भारत लाया गया, और जीते जी तो नही , मगर फ़ांसी के कई सालों के बाद शहीद मदनलाल धिंग्रा के पार्थिव शरीर को अपने स्वतंत्र देश की मिट्टी नसीब हुई.

ऐसे शूर और वतन पर मर मिटने वाले जांबाज़ मदनलाल धिंग्रा की पावन आत्मा को मेरा नमन.........

Monday, August 10, 2009

कर्मशील , स्वयंसिद्धा बहन- रजनी...



रक्षा बंधन का पुनीत दिवस आकर चला गया.

राखी पर पोस्ट तैय्यार करने बैठा तो सोचा चित्र नेट से ले लूं. गूगल बाबा में सर्च में राखी डाला तो ८० प्रतिशत परिणाम आये राखी सावंत के और उसके स्वयंवर के बारे में !!! अब राखी सावंत जैसा व्यक्तित्व , और राखी के धागे के पवित्र ,प्लेटोनिक स्नेह बंधन.... वाह , क्या कंट्रास्ट है जनाब!!! खैर.

वैसे परंपरा के अनुसार इस दिन भाई अपनी बहनों की रक्षा करने का वचन लेते थे.

आज नारी स्वयं सक्षम है, स्वयंसिद्धा है. मगर फ़िर भी ये प्रेम , स्नेह का त्योहार हम सभी के मन की गहराई में रच बस गया है, किसी भी फ़्रेंडशिप डे की ज़रूरत महसूस ना करते हुए भी .

कल मैं काम के सिलसिले में इंदौर से करीब १२० किमी पर बसे प्रकृति की गोद में बसे एक छोटे से कस्बे खातेगांव गया था. रास्ते में मालवा के पठार के उतरन की हसीन वादियां छोटे पैमाने पर हमारा स्वागत कर रही थी.मेरे बडे भाई के बचपन के मित्र वहां एक फ़ेक्टरी खोलने की प्लानिंग करने के लिये मुझे साईट दिखाने ले गये थे.

उन्होनें वहां ज़मीन के मूल पुश्तैनी मालिक से भी मिलवाने का वादा किया था , जिनसे कुछ ज़मीन खरीदकर उसपर प्रोजेक्ट तय्यार करना था.

काम करने के पश्चात जब हम मालिक से मिले तो मैं आश्चर्य चकित रह गया जब मैं मिला एक २०-२१ साल की युवती से, जिसका नाम था रजनी. गांव के परिवेश में पली बढी होने के बाद अब वह एक आधुनिका थी , और बेहद सुलझी और मेच्युर बातें कर रही थी. जींस, और मोबाईल के साथ साथ बिज़नेस का सलीका भी बखूबी नज़र आ रहा था.

मैने जब उसके हाथ पर बहुत सारी राखीयां बंधी हुई पायी तो उससे पूछ ही बैठा कि ये क्या, तुम्हारे हाथों पर राखी? क्या मालवा या निमाड क्षेत्र का कोई रिवाज है?

तो उसने जो बताया , तो उस कर्मशील , स्वयंसिद्धा बहन के प्रति मेरे मन में आदर भर आया.

उसके पिता इस दुनिया में बहुत पहले छोड गये थे, और उसकी ६ और बहनें थी, जिनके लालन पालन का ज़िम्मा उसकी मां के बदले रजनी पर आया. और अब कुछ सालों से वह इंदौर आ गयी है, अकेले रहती है, और एक निजी ओफ़िस में प्रबंधन का काम कर अपने परिवार का खर्चा वहन करती है.आगे चल कर अपनी ज़मीन पर वह अपना खुद का कोई उद्यम शुरु करने का भी साहस भरा निर्णय ले चुकी है.

याने,समय नें उसे कम उम्र में ही अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास करा दिया, और अब वह बखूबी एक भाई की तरह अपने बाकी सभी बहनों की रक्षा कर रही है!!(Literally)

और इसी भावना को मन में रख कर रजनी की सारी बहनें उसे रक्षाबंधन के त्योहार पर राखी बांधती है!!!

आज रजनी जैसी और भी कई बहनें होंगी, और भी कई भाई , जिनके जीवन में रजनी जैसी बहन एक अहम भूमिका निभा रही होगी!!

इस रजनी को और उन सभी अनाम रजनीयों को सलाम!!!

Wednesday, August 5, 2009

रक्षा बंधन - ब्लोग परिवार की अलग और विशिष्ट संस्कृति


(मेरी बहन प्रतिभा नें भेजी हुई राखी!!)


रक्षा बंधन के इस पावन और पुनीत पर्व पर ब्लोग परिवार की सभी बहनों को शुभकामनायें, बधाई, और इस भाई की ओर से प्रणाम!!

ब्लोग दुनिया से जुडने के एक साल के बाद जब भी मैं आज पीछे मुड कर देखता हूं तो पाता हूं कि इस नई विधा नें अंतर्जाल के माध्यम से कितने सारे नये परिवार मुझे दिये. वसुधैव कुटुंबकम की परिकल्पना इतना अच्छा और सार्थक उदाहरण इससे बेहतर क्या होगा?

मेरी सबसे पहली पोस्ट नश्र हुई थी ( दिलीप के दिल से )-२३ जुलाई २००८ को और सबसे पहले टिप्पणी दी थी मेरे मानस अनुज श्री संजय पटेल नें और दूसरी सुश्री अल्पना वर्मा नें.संजय भाई तो मुझे इस ब्लोग जगत में लाने के प्रेरणा स्रोत ही रहें है, और इस ब्लोग वास्तु के नाम - दिलीप के दिल से और अमोघ के मानस शब्द की संकल्पना के रचयिता भी वहीं है .सुश्री अल्पना जी नें पहले ही कमेंट से जो उपयोगी और सार्थक टिप्स दी वो आज तक जारी है, यानी हफ़्ते दर हफ़्ते इस वास्तु पर जो भी क्रमवार विकास हो रहा है,- तकनीकी और सुरमई - इसमें उनके सुझावों और सहयोग से यह सभी संभव हो रहा है.

दोनों के साथ साथ , मेरे कई और मित्रों ने भी मार्गदर्शन दिया जैसे हिन्दयुग्म के सजीव सारथी, जिन्होने मुझे अपने गाये गानों को ब्लोग पर डालने की सलाह दी.मैने अब तक मात्र अल्पनाजी को ऐसा करते हुए देखा था .आप ही नें कहा कि जब हम सभी अपनी रचनायें पोस्ट करते हैं तो वो भी आपका सृजन ही तो है. उसके बाद, मुझे हमारे सभी के प्रियजन ताऊ का भी मारग्दर्शन मिला, अपने ब्लोग के स्वरूप को और बेहतर और रंगीन करने के लिये. साथ ही एक मित्रवत आग्रह भी कि आपसे जितना भी संभव हो,अपने पसंदीदा साईट्स पर जाकर टिप्पणी करें उससे हमारे ही साथियों का उत्साहवर्धन होगा , साहित्य की सेवा होगी, और प्रेम और संवेदनाओं के साये तले एक परिवार की अवधारणा बनेगी.

और भी मेरे मित्र हैं जिन्होनें हमेशा मेरे दोनों ब्लोग पर आकर अपनी जीवंत टिप्पणीयों से मुझे नवाज़ा है; लावण्या दीदी, समीर लाल, अनुराग शर्मा , डा. अनुराग, अर्श,हरकीरत जी, रंजु जी, और अन्य कई.

तो बीते हुए उन दिनों हम सभी भाईयों और बहनों नें अपने अपने सुख और दुख में एक दूसरे को शामिल किया, और एक नया आयाम रचा प्रेम और स्नेह के उस बंधन का , जिसे हम रक्षा बंधन के नाम से ना पुकारें तो किससे पुकारे?

हम सभी अलग अलग क्षेत्र से जुडकर, अलग अलग विचार धारा से अभिप्रेत, अलग अलग देश, धर्म, जाति, और उम्र के बंधन से निकलकर, ब्लोग दुनिया के इस नये देश के नागरिक हो गये हैं, और अंतर्जाल के महीन वर्च्युअल धागे के बंधन से जुड कर एक परिवार का हिस्सा बन गयें है.

हम नागरिक कुछ तो अलग है, दीगर जमात से.

हम कलाकार है, लेखक हैं , कवि हैं, चित्रकार हैं, फोटोग्राफ़र हैं, और अब हमारा एक अलग वजूद हो गया है, जो देश विदेश के दूसरे बुद्धिजीवीयों से थोडा अलग यूं है, कि हम सभी भावनात्मक रूप से करीब हैं. याने की हम तर्क के धरातल से उठ कर संवेदनाओं और एहसासत के रूहानी स्तर पर जाकर दिमाग की जगह दिल से जुडे हैं.

इसीलिये हमारे बीच अब एक अलग और विशिष्ट संस्कृति का प्रादुर्भाव हो गया है.

क्या आप सहमत हैं?

( अभी अभी मेरे पिताजी नें मुझे संस्कृति की उनकी व्याख्या दी- संस्कारों द्वारा परिष्कृत कृति ही संस्कृति है!!)

Thursday, July 9, 2009

वही होता है जो मंज़ूरे खुदा होता है.

आज मैं भावाभिभूत हूं....


नतमस्तक हूं उस   परमेश्वर के पावन चरणों में....


मित्रों , अभी पिछली पोस्ट में मैने ज़िक्र किया था मेरे बेटे अमोघके जन्म दिन पर उसके साथ हुई नाइंसाफ़ी का-

कृपया यहां पढें

दुख इस बात का नही था दोस्तों कि उसे तब चेम्पियनशिप नही मिली थी. वह तो उसके कर्म, भाग्य और भगवान के आशिर्वादों का फ़ल था.


मगर सही होने का भी अगर खामियाज़ा भुगतना पडे तो मन को कष्ट होता है,हुआ भी.गोया ,अच्छे की बुराई पर हमेशा जीत होती है ये जुमला मात्र किस्से कहानियों में या फ़िर फ़िल्मों में ही शेष रह गया था .


मगर आप सभी साथियों नें जिस तरह से हौसला अफ़ज़ाई की थी, और इस बात से मन में अच्छे कार्य के प्रति विश्वास का जो भाव जगाये रखा उसकी परिणीति अभी हुई.


अभी पिछले रविवार को चेन्नई में अखिल भारतीय एबेकस मेण्टल अरिथ्मेटिक कोंपीटिशन २००९ सम्पन्न हुई. पूरे भारतवर्ष से करीब २२००० बच्चों ने भाग लिया- पहले से लेकर १० वें लेवल की परीक्षा में ८ मिनीट में ३०० सवाल करने थे जोड/घटा/गुणा/भाग आदि.


मुझे यह बताते हुए प्रसन्नता होती है, जो मैं अपने ब्लोग परिवार में बांटना पसंद करूंगा कि -


<strong>अमोघ को अपने लेवल ९ में पूरे भारत वर्ष में अव्वल स्थान प्राप्त हुआ और उसे चेम्पियन घोषित किया गया !!!

 Amogh 2

 

और साथ ही में १ से १० लेवल के चेम्पियन्स में भी वह सबसे प्रथम स्थान पर रहा और उसे Champion of the Champions घोषित किया गया !!!!

 

Amogh 4

(कंप्युटर और मलेशिया के विज़िट की स्पोंसरशिप लेते हुए)

यह बात तो सर्व दृष्टि से साबित हो गयी है, कि अमोघ नें कभी भी सच का साथ नही छोडा़ ,और सही और गलत की पहचान भी उसके बाल मन में उपज गयी है.अब यही मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति उसे अगले विश्च प्रतियोगिता (क्वालालम्पूर , मलेशिया- नवम्बर २००९)में भी सही राह पर चल कर लक्ष्य प्राप्त करने में मदत करेगी.इन्शाल्लाह!!!

मैं इस बात पर ज़रूर शर्मिंदा हूं कि मैंने उस परमपिता ईश्वर पर भी आक्षेप लगाया था कि शायद अब वह भी टी आर पी बढाने के लिये अपने सच्चे भक्तों की जगह ऐसे अवसरवादियों की सुनने लगा है,जिन्हे किसी भी सूरत में कामयाबी हासिल करनी है, BY HOOK or BY CROOK . और तो और मैने और नेहा नें यह भी सोच लिया था कि इस बार अमोघ को चेन्नई में Competition मे नही ले जायें.मगर उसकी शिक्षिका मॆडम लीना सचदेव नें शब्दशः मिन्नते करते हुए उसे भेजने के लिये राज़ी किया.

मुझे वाकई लगने लगा था कि आध्यात्म का जो मानस मेरे मन में और आत्मा में रचा बसा है, उसनें मेरा क्या भला किया वह महत्वपूर्ण नही है, क्योंकि मैं हमेशा से मानता आया हूं कि हमें हमेशा ही अपना कर्म करते रहना है, और फ़ल की आशा नही करना चाहिये.बल्कि क्या यह सही है, कि मैं अपने पुत्र को भी उसी संस्कारों और परंपराओं का चोला पहनाऊं जो उसे इस तामसिक हलाहल भरे विश्व की तपन,पीडा , और नैराश्य से बचाव भी ना करा सके, और उसे Expose कर दे. 

मगर इस दुविधा और नकारत्मक नैराश्य से उबारा उसी नें. और आशा, विश्वास, और सकरात्मक उर्जा का संचार कराया है  उसी नें..

हे भगवान- मुझे क्षमा करें ....

आज मैं संतुष्ट हूं कि अमोघ के पीछे अच्छेपन का सिला देने वाला जागृत है. यह इसलिये नही कि उसे प्रथम स्थान मिला है. यह तो उसमें विश्वास के पुर्नर्जीवन का सबब ही तो है!और आप सभी अच्छे अख़लाक़ के मालिक ब्लोग परिवार के मित्रों के मन से निकली दुआओं का असर भी,जो उसे अगली परीक्षाओं में भी यही संबल देता रहें..


धन्यवाद..


 Amogh 11

मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है,
वही होता है जो मंज़ूरे खुदा होता है.

Thursday, July 2, 2009

नील मुकेश या नील नितीन...

पिछले दिनों काम के सिलसिले में छुट्टियां भी एंजोय करने का मूड हो गया था, इसलिये फ़िर गायब हो गया.

मौसम की पहली बारीश छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रसिद्ध दुर्गम किले रायगढ़ पर !!! क्या बात है. उसपर अलग से लिख रहा हूं.

कल न्युयोर्क फ़िल्म देखी. एक अलग विश्व, अलग समस्या और अलग तरीके से हेंडल किया गया वह महत्व पूर्ण विषय -

आतंकवाद!!!

शायद कबीरखान नें मुसलमानों के नज़रीये से भी पहली बार इस फ़िल्म में यह बात बताने की कोशिश की है, कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता. बात में दम है. दोनों ओर के दृष्टिकोण बडी बारीकी से और खुलासेवार पेश किये गये.अच्छा लगा.

फ़िल्म में रोशन का यह वाक्य बडा ही सारगर्भित है, जिसका सार यह है,कि एक मुसलमान होते हुए भी उसने काम के साथ कभी समझौता नही किया, और शायद अल्लाहताला नें ही उसे यह मौका दिया है, कि दुनिया में उस मुसस्सल ईमान की परख हो जाये, जिसके लिये हर मुसलमान इज़्ज़त की दृष्टि से देखा जाता है.

साथ ही में उसके जरिये यह बात भी बताई गयी कि चाहे कुछ भी हो जाये , आतंकवाद को किसी भी तर्क से जायज़ नही ठहराया जा सकता, जबकी बडी ही दुख की बात थी कि ९/११ के बाद ख्वामख्वाह मुसलमानों को तकलीफ़ों को झेलना पडा, और अमरीकी सरकार को अधिकतर इनोसेंट लोगों को छोडना पडा.




मुझे तो सबसे बढियां सीन वो लगा , जहां नील नितीन मुकेश नें अपने दादा स्वर्गीय मुकेश जी का वह गीत स्वयं गाया-

ज़िंदगी ख्वाब है, ख्वाब में झूट क्या, और भला सच है क्या!!

माशाल्लाह , बडा ही सुरीला गया है. खुदा उन्हे और ऐसे मौके दे, जहां वे गाना भी गाये.

आज मुझे पिछले साल की वह बात याद आ रही है, जो नील के पिता नितीन मुकेश जी नें एक व्यक्तिगत लंच में बताई थी, जब वे इंदौर आये थी लता मंगेशकर सन्मान समारोह में प्रस्तुति देनें.

उन्होने एक बडी ही रोचक बात बताई, कि जब फ़िल्मों के लिये नील को नाम चुनने को कहा गया तो उसे दो ओप्शन दिये गये थे--

नील मुकेश ...

या

नील नितीन...

यह बात बताते हुए नितीन मुकेश जी का सीना गर्व से फ़ूल गया था कि नील नें कहा:

मैं जो भी हूं आज अपने पिता की वजह से हूं , और साथ ही में मेरे दादाजी की भी विरासत का वारीस हू, और उनके आशिर्वाद हैं ही.

इसलिये मैं उन दोनों को मान देते हुए अपना नाम रखूंगा;

नील नितीन मुकेश..

Sunday, June 7, 2009

नो चीटींग .... रोंग साईड ओव्हरटेक...

आज ७ जून है.

आज खुशी की बात ये है, कि मेरे बेटे अमोघ का नवां जन्म दिन हैं और अभी शाम हमने एक पारिवारिक माहौल में मनाया है.

अभी अभी एक बडा अचीवमेंट भी उसके नाम रहा है. युसीमास मेंटल अरिथमेटिक्स एबेकस प्रतियोगिता में लगातार तीसरी बार मध्य प्रदेश में पांचवे लेवल में वह चेम्पियन याने प्रथम घोषित किया गया है.


मात्र मेंटल केल्क्युलेशन से वह मात्र एक-दो सेकंद में बडे बडे अंको के जोडने, घटाने, गुणा और भाग के उत्तर दे पाता है, जो आश्चर्यजनक है.दर असल एबेकस नाम के एक इंस्ट्रुमेंट की मदत से ये सभी गणनायें बडी ही आसान हो जाती है, और फ़िर बाद में अभ्यास से छात्र अपने दिमाग में ही वह गणना कर लेता है, उस उपकरण की मेंटल छबि बना कर. वैसे पिछले दो साल वह चेन्नई मे संपन्न हुए अखिल भारतीय प्रतियोगिता में भी प्रथम रनर अप रहा है, और दो साल पहले कुवालालम्पूर में हुई अखिल विश्व प्रतियोगिता में उसके आयु वर्ग में इंटरनेशनल चेम्पियन का रनर अप, और इंटरनेशनल लेवल पर पांचवा रहा .

आज ही हमनें उसका चेन्नई में ५ जुलाई को होने वाले अखिल भारतीय कोंपीटीशन के लिये फ़ार्म भरा है.उसका ये अंतिम वर्ष है क्योंकि उसने इस साल ग्रेजुएशन कर डाला है इस शिक्षा पद्धती में अपने नवें साल में ही.याने के ये साल उसका अंतिम साल है, इस शिक्षा पद्धति की पढाई में.

यहां एक बात का विशेष उल्लेख करने के लिये ये पोस्ट है. अपने बेटे की सफ़लता में खुश होना और गौरवान्वित होना हर पिता का स्वप्न होता है. मगर उसके साथ जुडी हुई कुछ घटनाओं से हमें हमारे ऊसूलों या वेल्यु को भी परखने का मौका मिलता है, और हम कभी कभी निर्णय लेने के उस मोड पर खडे हो जाते है, जहां पर एक बडी ही पतली रेखा रहती है,जिससे पासे पलट जाते हैं, और ग़म और खुशी का उपहार हमें मिलता है.

दो साल पहले जब चेन्नई में चेम्पियन शिप में रनर अप आने से पूरे भारत वर्ष में चेंपियन बनने की आभिलाषा अधूरी रह गयी थी.आश्चर्य की बात ये भी थी कि चेम्पियन बना था उसका ही मित्र तेजस, जो उसकी ही कक्षा में पढता है.हमने भी यही सोचा कि उसकी मेहनत कम पड गयी होगी या भाग्य नें आज साथ नही दिया तो वर्ल्ड लेवल पर भी प्रयत्न करने में हर्ज़ नही है.

कोंपीटीशन हॊल में जाने से पहले अमोघ मेरे पास आया और उसनें मुझसे एक बडी ही आश्चर्यजनक बात बताई. उस प्रतियोगिता में एबेकस इंस्ट्रुमेंट की मदत से आठ मिनीट में २०० सवाल हल करने थे, जबकि अमोघ का और हमारे भारतीय बच्चों का मेंटल लेवल इतना अधिक कुशाग्र था कि वे मन में ही सवाल हल करने को निपुण हो गये थे.

इसीलिये जब हमारे बच्चों को पता था कि उन्हे उपकरण से करने में थोडा समय लगेगा, बनिस्बत कि दिमाग से करने, तो तेजस नें अमोघ को बताया कि उसके पापा नें उससे कहा है, कि वे वहां पहले दो मिनीट तो मेंटली हल करें, और ऊपर से ये दिखायें कि वे उपकरण से हल कर रहें है.तो वे बाकी बच्चों से थोडा आगे निकल जायेंगे.तो वह क्या करे?

मैं और मेरी पत्नी डा. नेहा अचंभित हो कर सोच में पड गये कि अब हमें क्या निर्णय लेना है. क्या हम अपने बेटे को चीटींग करने को प्रवृ्त्त करें और गलत तरीके से चेम्पियनशीप हथियाई जाये.या जो भी हो , सत्य और अनुशासन की राह पर चल कर जो भी रिज़ल्ट हो उसे स्वीकार करें. इसी उधेडबुन में हम थे कि समय के अभाव के कारण अमोघ हाल में चला गया, हमसे उत्तर लिये बगैर.

अब हम यही सोच रहे थे कि एक ७ वर्षीय बच्चे से हम क्या उम्मीद करें जो यहां वह उचित और सही निर्णय ले.उतने में हाल में एक घोषणा हुई कि कोई भी बच्चा दिमागी तौर पर गणित के सवाल हल नही करेगा, सिर्फ़ उपकरण से ही करेगा., और कोई अगर पकडा जायेगा तो हमेशा के लिये उसे बाहर कर दिया जायेगा.

हम इसी बीच निर्णय ले चुके थे कि जैसे भी हो, उसे सच की राह पर ही चलना चाहिये, मगर इस बात से हम बडा ही चिंतित हो गये, कि पता नही अमोघ नें क्या निर्णय लिया.

जब वह परीक्षा देकर बाहर आया तो सबसे पहले उससे हमनें यही पूछा कि उसने क्या किया?

उस सात वर्षीय बच्चे नें ये कह कर हमारी आंखों में आंसू ला दिये और हमारे सर गर्व से ऊपर उठा दिये कि-

पापा- मैनें सोचा कि ये बात गलत है, और मैं कुछ भी हो जाये चीटींग नहीं करूंगा. हो सकता है, कि आज मैं हार जाऊं मगर मैं गलत काम नहीं करूंगा.

हुआ भी वही. तेजस वर्ल्ड चेंपियन बन गया और अमोघ रनर अप.

चेम्पियन्शिप नही मिलने की उदासी स्वाभाविक ही थी जिसने उस बच्चे को दुखी कर दिया. जैसे कि मैने एक फ़िल्म चितचोर में देखा था, दुख इस बात का नही कि हार गये या पीछे रह गये. मगर रोंग साईड से ओवरटेक कर के गाडी आगे चली गयी थी. उन हताशा भरे क्षणो के बीच में उसनें मुझसे कहा - सॊरी पापा.

मैने और नेहा नें अमोघ से कहा- नही बेटे, तुम ही चेम्पियन हो. You are Real Champion.

भारत लौटने पर मैने अपने कंप्युटर में अमोघ ने तेजस को लिखा एक पत्र पढा, (उसका पहिला पत्र!!) जिसमें उसको बधाई देते हुए अमोघ नें लिखा था- अगले साल तो पूरा मेंटल ही है, तो फ़िर मिलेंगे.

आज उस घटना को दो साल बीत गये हैं. पिछले साल मैं उसे फ़िर नही ले गया.मगर इसी बीच अमोघ दो सालों में दो लेवल की जगह चार लेवेल पास कर के ग्रेज्युएट हो गया है, और तेजस दो ही लेवल कर पाया है.(यहां ये संभव था)इस साल वह भी चेम्पियन बना , मगर छोटी कक्षा में.

मैं भी कभी कभी सोचता हूं , कि क्या अमोघ नें सही निर्णय लिया था. आज कुछ भी हो, तेजस वर्ल्ड चेम्पियन है, और दुनिया यही जानती है, मानती है. आज तक अपने जीवन में मैने भी इसी सत्य की राह पर अपने निर्णय लिये हैं, मगर मैं एक सफ़ल बिज़नेसमन नहीं हूं. ( मूल्यों से कंप्रोमाईज़ नही करने वाला व्यवसाई!!! हा हा हा!!!-हास्यास्पद है ना?)


a. आप ही बताईये, कि क्या सही है , क्या गलत?

b. क्या उसे फ़िर इस साल कुवालालंपूर भेजना चाहिये?

c. क्या अमोघ भी अपने पिता के समान सच की राह पर चलते हुए असफ़लताओं का बोझा ढोयेगा, या फ़िर उसे Survival of Fittest के इस जंगल राज के नियम को मानते हुए, सीधी या टेढी उंगली कर के घी निकालना चाहिये?

d. क्या सच्चे का बोलबाला और झूटे का मुंह काला ये कहावत आज भी चरितार्थ हो रही है?...

बताईये आप सभी प्रबुद्ध जन क्या राय रखते है?

Sunday, May 31, 2009

बेवकूफ़ कौन?

आज तंबाखू निषेध दिवस है...

आज एक बार फ़िर अखबार रंग गये हैं , ये बात दो करोड बीस लाख वीं बार बताने को, कि तंबाखू स्वास्थ्य के लिये हानि कारक है, और केंसर का सबब. फ़िर हममें से कई सिरियसली सोचेंगे- यार वाकई में ये सही है. सिगरेट या गुटके से कोई लाभ नही है .किसी ना किसी ना किसी को तो पहल करनी ही चाहिये.

और ये सोचने के तीन सेकंद बाद एक सिगरेट सुलगाकर एक लंबा कश लेकर धुआं छोडते हुए कहेंगे-

हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला गया.

क्या अजीब दुखद संयोग है. आज अभी अभी मैं एक दाहसंस्कार से हो कर आया हूं और आते ही लिखने बैठ गया. मेरे पिताजी के मित्र श्री अजीतसिंग जी नही रहे.८८ वर्ष की आयु में आज ही सुबह उनका स्वर्गवास हुआ और उनके निधन का कारण था केंसर...

हम कई सालों पहले जहां रहते थे (पिपली बाज़ार) वे हमारे पडोसी थे. तहसिलदार से कलेक्टर तक का सफ़र तय किया था उन्होनें और हम बचपन से देखते चले आये हैं कि वे पान बहार यूं खाते हैं जैसे कि हम सांस लेते हैं.(पहले वे तमाखू खाते थे और बाद में पान मसाला). उन्हे हम सभी मालेक हुकुम बुलाते थे, मगर चूंकि उनका तकिया कलाम था बेवकूफ़- तो मेरे पिताजी ने उनका उपनाम ही रख दिया था कि बेवकूफ़..वो पिताजी को मास्टर ...

मुझे वह दिन आज भी याद है, कि हमारे संयुक्त परिवार में मेरे बडे भाईयों (भाऊ,दादा)के साथ एक बार मैं भी मालेक हुकुम के दोनो बेटों के साथ पिक्चर देखने चला गया था. मैं छो्टा होने से हमारी व्यवस्था भेड की तरह होती थी. जहां बडे ले जाये,वहां चले जायें.

बाद में लौटने पर मालूम हुआ, कि मालेक हुकुम के बेटों ने, एम भैया और एन भैया(महेंद्र और नरेंद्र) नें अपने पिताजी को बिना पूछे घर की रद्दी बेच दी थी(पांच आने सेर के भाव में )और पैसे लेकर सिनेमा देखने चले गये थे श्रीकृष्ण टाकीज़ में.रद्दीवाले की चुगली नें भांडा फ़ोड दिया था.

बस क्या था, आते ही आनन फ़ानन में मालिक हुकुम नें एम और एन भैया को आडे हाथों लेते हुए लकडी की स्केल से चार पांच बार सुताई कर दी, और एक दो बार हमारे बडे भाईयों की भी(मैं बच गया क्योंकि बहुत ही छोटा होने से अपराधियों के श्रेणी में नही आया था तब तक!- मगर कान उमेठनें की सज़ा ज़रूर पायी)

ताबडतोब हमारे ताऊ जी को बुलाया गया , और वे भी वहीं शुरु हो गये.(मुर्गा बनने की सज़ा की वजह से बाद में हिंसक गतिविधियां बंद हुई!!!)

क्या आपने एक बात नोट की ? कोई अपने पडोसी के बेटे को आज मार सकता है? पडोसी तो पडोसी, क्या सगे ताऊ या चाचा ये ज़ुर्रत कर सकतें है?

इस सभी एपिसोड के अंत में मालेक हुकुम नें हम सभी को पास में लेते हुए पुचकारते हुए कहा- बच्चों , पैसे चाहिये थे तो हमसे मांग लेते - गलत आदत क्यों डालते हो?

आज हम रिस्ट्रोस्पेक्ट में देखते हैं तो मन ये सोचता है, कि हम नें बाद में ऐसी कोई भी आदत नही डाली,और खुद मालेक साहब हुकुम ?

इसलिये कल शाम को जब मेरे पिताजी उन्हे मिलने गये थे तो वे यही बोले- मैं तुझे बेवकूफ़ कहता था - कि तू मास्टर का मास्टर ही रहा ( वैसे पिताजी वाईस चांसलर बन कर रिटायर हुए थे). मगर आज अगर ये तमाखूं नही होती तो और भी जीते.

आज सुबह उनको जब ये खबर दी तो वे यही बोले-- बेवकूफ़ नही रहा.....

आज जब उनके पार्थिव देह को उठाया तो एम भैया की लडकी नें अंदर से उनकी छडी और ऐनक लाकर दी , उनके साथ ले जाने के लिये.. और साथ में अग्नि के हवाले करने के लिये.

मगर अचानक बडी भाभी पूजा भाभी अंदर गयीं और एक पान बहार का डब्बा भी उठाकर ले आयी,और अर्थी पर रख दिया. एम भैया चौंक पडे. उन्होने डिब्बे को देखा और फ़िर भाभी को. मेरे से भी आंखे पल भर के लिये मिली ,और झुक गयी.

फ़िर मुंह में से पान मसाले की पीक थूकते हुए (शायद आखरी बार?) एम भैया अर्थी को कांधा देने के लिये बढे़.........

वह डब्बा मालेक हुकुम का नही था.वह था एम भैय्या का .......

Monday, May 4, 2009

युगपुरुष श्री राम के जन्म दिनांक के प्रमाण - २

युगपुरुष श्री राम के जन्म दिनांक (रविवार , ४ डिसेंबर ,७३२३ ई.सन पूर्व ) के प्रमाणों के लिये पिछली पोस्ट पर मैंने ज़िक्र किया था ३ प्रमुख प्रमाणों का, जिसमें पहला था –पुरातात्विक प्रमाण, दूसरा था साहित्यिक प्रमाण, और तीसरा था ज्योतिषीय एवम खगोलीय प्रमाण.

कृपया यहां पढें...

मैं बडा़ ही शर्मसार हूं, वादाशिकन भी, कि आपकी उत्कंठा के विपरीत इतने दिनों नेट से अनुपस्थित रहा और आगे इस महत्वपूर्ण एवम रोचक विषय पर आगे कुछ नही लिख सका. कारोबारी सिलसिले में इन दिनों बाहर ही हूं अधिकतर, जिससे, इतने गंभीर मसले पर हल्का फ़ुल्का लिख पाना मुनासिब नही समझता. मुझे यकीं है कि आप मुझे मुआफ़ करेंगे.कोशिश करूंगा कि इस बार देर नही होगी…….
१. पुरातात्विक प्रमाण:

हमने पिछली कडी में पढा कि दुर्भाग्य से हमें राम के जीवन काल पर कोई ठोस पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिल पाये. मगर जैसा कि हमारे ब्लोगर        श्री पी एन सुब्रमन्यन नें सही लिखा है, कि दर असल आज जिस जगह हम अयोध्या मान कर चल रहें है, वहां मूल अयोध्या है ही नही. वह कही और ही आस पास होनी चाहिये.

बाकि अन्य राम को आस्था का विषय तो मानते हीं है, मगर कुछ  उनके ऐतिहासिक वजूद को मानने में पूर्ण तयः निश्चित नहीं हैं. अब हम देखें कि अन्य क्या तर्क दिये जा सकते हैं , जिससे हम इस बात की संपूर्ण पुष्टि कर लें.

ramaइसलिये इस लेख के प्रारंभ में मैं ये स्पष्ट  कर दूं , कि मेरा ये निश्चित मत है कि श्री राम एक ऐतिहासिक महापुरुष थे जिन्होने इस भारत वर्ष की पावन धरती पर सांस ली थी. अतः, उनके ईश्वरत्व और आस्था के परे जाकर अभी तो हम उन्हे एक पुरुषोत्तम महामानव की दृष्टि से ही देखेंगे. मेरी राय से इत्तेफ़ाक नही रखने वालों से विनम्र निवेदन है, कि जैसा कि शास्त्रार्थ का नियम है, अपने मत और तर्क बुद्धिमत्ता, विवेक, और ग्यान के धरातल पर जांच कर ही रखें तो इस विषय को सार्थक और नयी दिशा मिलेगी. दूसरी बात ये भी है, कि यहां जो भी लिखा जा रहा है, मूल कंटेंट में काफ़ी विस्तार से विवेचना उपलब्ध है, मगर मूल भावना को ही यहां रेखांकित किया जा रहा है.
२. साहित्यिक प्रमाण :

भारत में किसी  ऐतिहासिक महापुरुष या साहित्य कृति का सही काल निर्णय करना बडी ही कठिण समस्या है. वह इसलिये कि बडे़ बडे़ ग्रंथ, ऋचायें, महागाथायें, और पोथियां हमारे स्वयंसिद्ध ऋषियों नें लिख कर अगली पीढी को सौंपी है, उसमें उन्होने कभी भी ये गर्वोक्ति नही की हैं कि फ़लां काव्य मैने लिखा है. परमेश्वर द्वारा प्रदत्त कर्तव्य  मानकर किये गये कार्य की भावना के कारण हमें वेदों , उपनिषदों तक के लेखकों के नाम नहीं मिलते. इसलिये ही हमें ये देखना पडता हैं, कि प्रस्तुत विषय पर किस ग्रंथ में कहां क्या क्या संदर्भ है, जिससे बेहद हद तक अनुमान की बजाय निष्चित किया जा सकता है. 
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इस बात में संदेह नहीं कि  वाल्मिकी रामायण वह ग्रंथ है, जो कि  महाकवि ऋषि वाल्मिकी नें लिखा है जो स्वयं  श्री राम के तत्कालीन थे, और उनके जीवन काल में ही यह सभी घटनाक्रम घटा था. अतः , इस महा गाथा को एक प्रामाणिक या Authentic  सूत्र माना जा सकता हैं. अतः , जहां जहां भी इस ग्रंथ का, या वाल्मिकी ऋषि का संदर्भ आयेगा और उसी तरह श्री राम का या उनसे जुडी घटनाओं का या पात्रों का ज़िक्र कहीं आयेगा तो निष्चित ही रामायण की घटनाओं की तारीख  नक्की होती चली जायेगी.


previewश्री राम एक काल्पनिक पात्र नही है, जैसे कि सुपरमेन, मिकी माऊस, रॊबिन हूड जो किसी Fiction या कपोल कल्पित उपन्यास का मात्र एक नायक हो, वरन एक ऐतिहासिक पुरुष है जैसे कि येशु ख्रिस्त, हज़रत मोहम्मद पैगंबर , महात्मा बुद्ध एवम महावीर स्वामी .इसका सबसे महत्वपूर्ण और ठोस तर्क यह है,इतने हज़ारों साल से सैंकडो ग्रंथों में, महाकाव्यों मे, साहित्यिक और ऐतिहासिक रचनाओं में श्री राम का उल्लेख और संदर्भ आता है, जिसके समकक्ष किसी और काल्पनिक पात्र का नाम हमें नही दिखता. 
                           
अब हम संदर्भों को तलाशतें हैं इस्वी सन के आरंभ के आसपास से, और फ़िर पीछी अतीत में जायेंगे-
 
ईस्वी सन से पूर्व ५५० वर्ष :


१. सबसे पहले महाकवि कालिदास की रचना रघुवंश में हम श्री राम के कुलपुरुष एवम दादा अयोध्या नरेश रघु के जीवन पर वृत्तांत पाते हैं. कालिदास का जीवन काल ईसा पूर्व पहला या दूसरा शतक ठहराया जाता है(इसके बारे में मेरे पूज्य पिता डॊ. प्र. ना. कवठेकर नें अभी एक पुरातात्विक प्रमाण अपनी पुस्तक – कालिदास , व्यक्ति और अभिव्यक्ति मॆं प्रकाषित किया है).

२. उसीके आसपास भास द्वारा लिखित दो संस्कृत नाटक हम पाते हैं, जो  रामायण की घटनाओं पर ही लिखे गये है.विद्वानों नें भास का काल ईस्वी सन पूर्व ५०० वर्ष के आसपास निष्चित किया है. भास के किसी भी साहित्य कृति में बुद्ध का ज़िक्र नही है, इसलिये ये स्वप्रमाणित है, कि श्री राम और रामायण बुद्ध और महावीर से पुराने हैं. (जैन धार्मिक ग्रंथों में भी तीर्थंकरों एक संदर्भ मॆं कहीं श्री राम का उल्लेख पाया गया है. हालांकि धार्मिक ग्रंथों को पूर्णतयः प्रामाणिक नही माना जा सकता, मगर ये तो तय है, कि उल्लेल्ख तो है ही.)

३.भास से समकक्ष है राजा शूद्रक जिसनें अपनें संस्कृत नाटक म्रूच्छ कटिकम में हनुमान का उल्लेख किया है. वैसे ही कवि कल्हण के राज तरंगिनी इस महाकाव्य में काश्मीर के राजा दामोदर के संदर्भ में रामायण का उल्लेख है.इस राजा का काल खंड भी लगभग यही है. कात्यायन के ग्रण्थ कर्म प्रदीप और कात्यायन स्मृति में ,कामंदकीय नीतिसार , शुक्र नीति  आदि में भी राम और सीतात्याग का  उल्लेख है.
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४. अनेक बौद्ध, जैन, ग्रीक साहित्य में कोशल देश की राजधानी ’ श्रावस्ती’ का वर्णन है, जिसे स्वयम श्री राम नें लव को स्थपित कर दी थी. 

५. पाणिनी और पतंजली के महाभाष्य में रामायण का उल्लेख है जिसका काल लगभग ईसा से लगभग  ८०० -  ११०० साल का है.

ईस्वी पूर्व १५०० वर्ष  के पहले :

१. जैमिनि ऋषि के  अश्वमेध ग्रंथ में और  गर्गसंहिता  , विष्णु पुराण ,पद्मपुराण , ब्रम्ह पुराण आदि में भी श्री राम का उल्लेख है.

२. रामायण में सिंहल द्वीप का कहीं वर्णन नही है, जब कि बुद्ध के जन्म के समय एक राजा हुआ था, विजय नाम का, जिसनें अपने पिता सिंहल के नाम से लंका का पुनर्नामकरण किया था. सिलोन या श्री लंका में महाराजाबलि नामक बौद्ध ग्रंथ में स्पष्ट उल्लेख है के बुद्ध  जन्म के पूर्व इस द्वीप का नाम लंका था और बुद्ध निर्वाण के १८४५ वर्ष पहले रावण युद्ध हुआ था. इस गणित से रामायण का समय आता है -  ईसा पूर्व २३८८ वर्ष .

३. सिंधु संस्कृति के (ई.पू.२३५० लगभग) काल में शहरों के चारो ओर सुरक्षा तटबंदी  और  खंदक हुआ करती थी . रामायण  में भी अयोध्या और लंका की सुरक्षा का ऐसाही  वर्णन है.

४. इससे भी  पुराना ग्रंथ है तैत्तिरीय ब्राम्हण, जिसमें वाल्मिकी का उल्लेख है. लोकमान्य तिलक और केतकर नें इसका कालखंड माना है  ईसा पूर्व ४६५० वर्ष.

५. महाभारत उपरोक्त सभी ग्रंथोंसे  पुराना है, और इसका कालखंड अनेक विद्वानों नें अलग अलग माना है. वैदिक विग्यान संशोधन मंडल नें इसका काल माना है, ईसा से ५५६१ साल पूर्व. इसमें भी रामायण के कई पात्रों का ज़िक्र है, और कथाओं में रामायण की घटनाओं का उल्लेख हर जगह पाया जाता है.मगर रामायण में कहीं भी महाभारत के किसी भी घटनाक्रम का उल्लेख नही है.

महाभारत के समय रामायण बडा ही लोकप्रिय था क्योंकि अधिकतर पात्रॊं के जुबानी रामायण की घटनायें और पात्रोंका  उल्लेख है. (इसकी बृहद चर्चा यहां नहीं करेंगे, मगर किसीको अगर रुचि हो तो कृपया बतायॆं.)

कभी अलग पोस्ट मॆं महाभारत के काल समय की विवेचना अलग से करूंगा .
(श्री कृष्ण जन्म दिनांक- ?  !!!)

६. रामायण मॆं चारों वेदों का वर्णन है. मगर ऋग्वेद में  एक जगह इक्वाषु वंषी  राम का जिक्र है.संभवतः ये हमारे  ही राम हो सकते है. तिलक जी नें ऋग्वेद का काल ई.पू. ६००० वर्ष लगभग बताया है.

७. देवता – रामायण में ऋग्वेदकालीन देवता है, और महाभारत से  अलग हैं. रामायणमें इंद्र का अधिक उल्लेख है,मगर  महाभारत में नही के बराबर.महाभारत में गणपति है, मगर रामायणमें नहीं.(कार्तिकेय की पूजा का जिक्र है). महाभारत में स्त्रीयां होम  हवन नहीं करती थी मगर रामायण में ये प्रथा थी .

वेदों में और रामायण में स्त्रीयों का युद्ध पर जाने का जिक्र है, मगर महाभारतमें नही.सती की प्रथा रामायण में नही थी.

८. वंशावलीयां- हरिवंश , श्रीमद भागवत , महा भारत और रामायण में भी कुछ वंशावलीयां उपलब्ध है. उसके संदर्भों से  भी लगभग  रामायण का काल ई.पू. ७००० वर्ष आता है.

इसीलिये अब हम  मोटे तौर पर ये कह सकते हैं कि रामायण का समय ईसा पूर्व करीब सात हज़ार साल के आसपास हो सकता है.
४ डिसेंबर ई.पू. ७३२३…..

जन्म दिनांक का अब इतना अचूक गणित  मात्र ज्योतिष शास्त्र और खगोल विग्यान कि सहायता से ही  संभव है. हम भागशाली हैं कि हमारे ऋषियों को इस विषय पर पूर्ण अधिकार था, अतः उन्होने अपने  कथानक में हर संभव प्रयास किया है कि उन घटनाओं के समय आकाश में नक्षत्रों की स्थिति , आदि का स्पष्ट वर्णन नमूद किया गया है.

मित्रों, ये बात फ़िर से कबूल करने में कोई शर्म नही कि आपका ये खाकसार चाह कर भी समय पर पोस्ट नहीं लिख सका. तो कोशिश रहेगी कि अगले शनिवार/रविवार तक इसकी समापन किश्त भी प्रस्तुत की जायेगी.

यहां मैं हमारे हर दिल अज़ीज़ ताऊ का बहुत बहुत धन्यवाद देना चाहूंगा कि मानस के अमोघ शब्द के इस नये रंग रूप लिये कलेवर के लिये मुझे यथा संभव मार्गदर्शन दिया है.

(पिछली एक पोस्ट में लगाये गये नटराज के चित्र श्री पंकज के सौजन्य से साभार प्राप्त किये गये.)

Friday, April 10, 2009

भगवान श्री राम के जन्म दिनांक के प्रमाण..

 

पिछले अंक में राम नवमी के दिन मैने आपको श्री राम जन्म दिन की अचूक तारीख और उनसे संबंधित अन्य घटनाओं के भी दिन, वार और सन बताये थे.

कृपया यहां पढें

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राम जन्म                        -    रविवार - ४ डिसेम्बर  ७३२३  ई.स.पूर्व

राम विवाह                        -    शुक्रवार - ७ अप्रिल  ७३०७  ई.सन.पूर्व

राम -वनवास गमन          -    गुरुवार - २९ नवम्बर ७३०६ ई.सन.पूर्व

रावण वध                        -   रविवार  - १५ नवम्बर ७२९२ ई.सन.पूर्व

राम -अयोध्या प्रवेश          -   रविवार  - ६ डिसेम्बर ७२९२ ई.सन.पूर्व


हमारे कई ब्लोगर साथियों नें ये जानने की उत्कंठा व्यक्त की है, जैसे ताऊ नें ये पूछा है, कि क्या इसका कोई सोफ़्ट्वेयर है. राज भाटिया जी को सबूत भी चाहिये, और अन्य जैसे अर्श,अल्पनाजी,उडन तश्तरी,संगीताजी इस रोचक तथ्य को जानने को उत्सुक हैं.

हालांकि, इतिहास मेरा विषय कभी नही रहा है, मगर चूंकि पिताजी एक जानेमाने Indologist   और संस्कृत के विद्वान और प्राचीन संस्कृति के , साहित्य के शोधक रहे हैं, मुझे हमेशा ही इन बातों में रुचि रही है, और उनके पास आने वाले बृहद शोध प्रबंधों और मूर्धन्य विद्वानों के रिसर्च पेपर्स को खंगालने की आदत भी.

पूणे में एक ऐसे ही विद्वान है, जिनका नाम है, डॊ. पद्माकर विष्णु वर्तक.पेशे से सर्जन हैं और एक नर्सिंग होम भी चलाते है. मगर साथ ही में उन्होने प्राचीन ग्रंथों, वेदों , उपनिषदों और इतिहास पर पूरा संशोधनात्मक अध्ययन किया है.साथ में आपने अपने जैसे अन्य अभ्यासू और जिग्यासू विद्वानों के साथ वैदिक संशोधन मंडल का भी गठन किया है जिसमें इन ग्रंथों में छुपे हुए रहस्य, विग्यान संबंधी रोचक और तथ्यात्मक अध्ययन किया जा रहा है. पिताजी के साथ साथ मैं भी इस संस्था से कई सालों से जुडा हुआ हूं, और इसीलिये अपनी ओर से मैंने भी कुछ प्रयास किये है, अन्य विषयों पर भी.
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आपने अपने एक मराठी प्रबंध पुस्तक वास्तव रामायण में भगवान श्री राम के चरित्र, रावण और अन्य पात्रों और घटनाओं को इतिहास की दृष्टी से देखा है और विवेचना की है.

मेरे मित्रों, सबसे पहले हम यहां इस बात की विवेचना में पडने की आवश्यकता नहीं समझते कि क्या वास्तव में श्री राम एक ऐतिहासिक पुरुष थे या नहीं. यह बात हज़ारों वर्षों से परंपरा, साहित्य, लोकगाथायें, पुरातात्विक और एतिहासिक घटनाओं से स्वयंसिद्ध रही है. हमारी विवेचना के साथ साथ इस सत्यता की परख अपने आप भी  रेखांकित होती जायेगी.

जब हम किसी भी घटना, या काल या विवरण का वस्तुपरक अध्ययन या शोध करते है, तो हमें उसे मोटे तौर पर तीन विधाओं  के प्रमाणों की कसौटी पर परखना होता है:

1. पुरातात्विक प्रमाण
    (Archeological Evidence)
2. साहित्यिक प्रमाण 
   ( Literary Evidence)
3. ज्योतिषिय और खगोलीय प्रमाण
    ( Astrological &   Astronomical  Evidence)

1. पुरातात्विक प्रमाण :

    दुर्भाग्य से, हमें राम की जीवनी पर पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिलते. वर्तमान अयोध्या के पास किये गये खुदाई के प्रयासों से हम लोग अधिकतम ईसा से १५०० से २००० वर्षों तक ही पहुंच पाये है. कार्बन डेटिंग के माध्यम से हमें उत्खनन से प्राप्त वस्तुओं की आयु सीमा का मान हो पाता है.

मगर , हमारे देश में और देश के बाहर भी कई ऐसे स्थान मिलते है, जहां कि लोक कथाओं मे या लोकोक्ति में राम जी के जीवन संबंधी वर्णन मिलते हैं. मगर ये सभी तथ्यात्मक प्रमाण नहीं माने जा सकते.

2. साहित्यिक प्रमाण   :

सौभाग्य से हमारा इतिहास और संस्कृति की धरोहर रहे है हमारे प्राचीन ग्रंथ , जिनमे प्रमुख हैं – चारों वेद, उपनिषद, पुराण, वाल्मिकी रामायण, वेद व्यास रचित महाभारत, और अनेक ऋषि मुनियों द्वारा लिखे गये ऐतिहासिक और आध्यात्मिक ग्रंथावलीयां आदि….

अब हम अपनी अगली कडी़ में इस प्रमाण पर विस्तृत चर्चा करेंगें. चूंकि हम बात को प्रमाणित करने का प्रामाणिक प्रयत्न कर रहें है, अतः थोडा गहराई में जाना आवश्यक हो जाता है. अगर आपमें से कोई जानकार इसमें कोई नई जानकारी देकर कोई नयी रोशनी डालना चाहे तो स्वागत ही है…….

मिलते हैं ब्रेक के बाद……
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डॊ. वर्तक आध्यात्मिक शक्ति के भी साधक हैं, जिसका उपयोग उन्होनें वैदिक विग्यान के कई अबूझ रहस्यों को सुलझाने के लिये किया है. जैसे गुरु और मंगल ग्रह सूक्ष्म देह से विचरण इत्यादि.इसके बारे में अगले किसी अंक में…
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