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Monday, March 29, 2010

मौत लपेटी हुई कविता....हिस्सा हिलाल -एक साहसी कवियत्री.


महिलाओं की स्थिती पर हम सभी बातें कर रहे थे, और मेरी पिछली पोस्ट पर मैने कुछ लिखा भी था, कुछ एकेडेमिक ,कुछ व्यक्तिगत. साथ में ही एक और परिचित महिला की हम बातें करने जा रहे थे.

मगर अभी रविवार को मैने कहीं कुछ पढा और साथ ही नेट पर जाकर कुछ और जानकारी ली और एक साहसी महिला की कहानी सामने आई, जिसका नाम है हिस्सा हिलाल.

हिस्सा हिलाल अमीरात में रहने वाली एक कवियत्री है, जिसनें अभी अभी पिछले दिनों संयुक्त अरब अमीरात में अबु धाबी में चल रहे एक रियलिटी शो " Poets of Millions " में भाग लिया और अपने कविता की साहसी, बोल्ड एवम निर्भय अभिव्यक्ति से ना केवल सेमी फ़ाईनल में जगह बनाई, बल्कि दुनिया की लाखों महिलाओं और पुरुषों को पूरा झंझोडा़ , और नेट्दुनिया में एक तहलका ही मचा दिया.

अमेरिकन आईडल की तर्ज़ पर होने वाले इस रेयलिटी शो में संगीत या गानें की जगह अरबी, बदायुनी जीवनशैली, इतिहास,और संस्कृती पर आधारित काव्य पठन होता है.जिस तरह अमेरिका में रॊक स्टार को जैसी लोकप्रियता मिलती है, वैसी ही अरब दुनिया में कवि या शायरों को मिलती है.

इस स्पर्धा में ये नियम है कि हर शायर को अपनी लिखी हुई शायरी ही पेश करनी होगी.प्रतिभागी का आवाज़, शायरी पेश करने का मुख्तलिफ़ अंदाज़, और अश’आर की अदबी गहराई इस पर मार्क्स मिलते हैं.

इसी प्रतियोगिता के सेमी फ़ाईनल्स में एक महिला को स्टेज पर बुलाया गया, जिसनें सर से पैर तक काला नकाब पेहन रखा था.उसके ढके हुए चेहरे पर नकाब की झिरी से दो शक्तिशाली आंखे ही दिख रही थी, और उसका स्पष्ट , निडर और गरजता आवाज़ जब कविता पाठ करने लगा तो वहां उपस्थित दर्शकों की सैकडों आंखें आश्चर्य और विस्मयता से फ़टी की फ़टी रह गयी.सिर से पैर तक काले कपडे में ढकी हुई इस महिला नें बुर्के की ओट से कठोर प्रतिबंध और फ़तवे लगाने वाली मुल्ला मौलवीयों के कपडे उतारना जो शुरु किये,उससे सारे यू ए ई और संसार में ये संदेश गया कि अरब देश की एक महिला मुस्लिम कवियत्री मौत से बिना डरे अपने शब्दों का हथियार लिये एक जेहाद का प्रण ले लिया है, या यूं कहें , विद्रोह का बिगुल बजा दिया है.

जैसे जैसे उसके पैने शब्द धर्म सत्ता के मद में अंधे ठेकेदारों ,तुगलकी फ़तवे ज़ारी करने वालों,आम आदमी का धर्म के नाम पर अत्याचार करने वालों के लिये कविता की नर्म नाज़ूक और मखमली पैरहन लिये माध्यम से दुनिया में पहुंचे तो अधिकतर महिलाओं का उसे साथ मिला,जैसे उनके मन की भावनाओं की ही वह अभिव्यक्ति थी.

ज़रा देखें -


फ़तवों की आंखों में दिखता है मुझे सैतान,

जो अनुमति को बदल देता है प्रतिबंध में,

एक हैवान, जो सत्य के चेहरे से बुर्का फ़ाडकर अंधेरे में छुप जाता है,

ज़हरीली ,धहकती आवाज़ लिये, क्रूर और अंधा,

कमरबंद से कपडे को पकडने जैसा उसने मृत्यु का परिधान पहन रहा था.....

ये मौत के पैरहन लिये आवाज़ याने आत्मघाती आतंकवादी.


मगर साथ ही कट्टर, धर्मांध व्यक्तियों को ये बात रास नहीं आयी. कई वेबसाईट्स पर हिस्सा को मार डालने की भी धमकीयां दी गयी.मगर हिस्सा नहीं डगमगाई. उसने कहा- मेरी कविता हमेशा ही रही है. धर्म और संस्कृति के नाम पर अनगिनत अरब महिलाओं की आवाज़ दबाने वाली मानसिकता के विरोध में ये मेरी छोटी सी कोशिश है.

कहने की ज़रूरत नहीं कि कि उस शो में निर्णायकों नें हिस्सा के जलते हुए शब्दों और मिले हुए उत्साहपूर्ण प्रतिसाद को देखते हुए उसे फ़ाईनल में पहुंचा दिया है.

फ़ाईनल ३१ मार्च को याने कल होगा. देखते हैं कल क्या होगा? शायद अल्पना जी यू ए ई से हमें इस शो का आंखो देखा हाल सुनवायेंगी, १ अप्रिल को!!

ये विडियो देखें,


Monday, December 14, 2009

अफ़ज़ल गुरु की फ़ांसी का मज़ाक और २००१ के हमले का आंखो देखा हाल..




ये तो वाकई हद ही हो गयी कि मैंने अपने इस ब्लोग पर पिछले दो पूरे महिनों में कुछ भी पोस्ट नहीं किया.मुआफ़ी चाहूंगा.

अभी परसों सुरेशजी चिपलूणकर की एक पोस्ट पढ़ रहा था जिसमें उन्होनें अपने चिर परिचित अंदाज़ में व्यंग करते हुए २००१ में हुए संसद पर हमले का सरगना मास्टरमाइंड अफ़ज़ल गुरु को बर्थ डे पर विश किया था.

ये वाकई शर्म की बात है कि आज उस दिन को आठ साल हो गये हैं, और हमारी शिखंडी जमात उसे अभी तक फ़ांसी तक नहीं चढा पायी.

शिखण्डी हम इसलिये हैं कि जिसनें हमारे देश के संप्रभुता को चुनौती देते हुए प्रजातंत्र के सर्वोच्च मंदिर पर हमला करने का षडयंत्र रचने का दुस्साहस किया, उसको फ़ांसी देने के लिये में आप , मैं और करोडो भारतीय बृहन्नलाओं की तरह ताली पीट पीट कर अपने अपने बिल में घुसे हुए ही गुहार मचा रहे हैं, और अफ़ज़ल गुरु जैसा ही और कोई विनाशकारी दिमाग कहीं दूर बैठ कर मुस्कुराते हुए एक नयी योजना बना रहा होगा, बेखौफ़ हो कर, क्योंकि हम जैसों को राष्ट्र भक्ति या राष्ट्राभिमान का जज़बा सिर्फ़ फ़िल्मी गीतों की रिकोर्ड बजा देने से पूरा हो जाता है.

वैसे अफ़ज़ल गुरु से मेरा व्यक्तिगत दुश्मनी का नाता भी है.

एक तो उसने मेरे भारत (Repeat MY INDIA)्की सहिष्णुता का मज़ाक उडाते हुए ये दुस्साहस किया.

दूसरे, आज भाग्य की वजह से मैं आपके सामने ये पोस्ट लिखने को ज़िंदा बचा हुआ हूं, वरना उसके अनुयायी की एक गोली उस दिन दिल्ली के संसद प्रांगण में मेरी समाधी बना चुकी होती.

बात ज़्यादह विस्तार से नहीं लिखूंगा. बस यही कि ऐसी यादें भूलनें के लिये नहीं होती, क्योंकि इससे आपके देश का सन्मान जुडा होता है.

उन दिनों मेरा काम संसद भवन के आहाते में ही बन रहे Parliament Library Project में चल रहा था. मेरी टीम के ५० से भी ज़्यादा आदमी पिहले देड महिनें से रात दिन एक करके लायब्ररी के फ़र्नीचर को असेंबल करने में लगे हुए थे जिसे मैने डिज़ाईन और सप्लाय किया था.

मैं उसी दिन अल सुबह वहां पहुंचा था, क्योंकि प्रधान मंत्री के लिये बनाई हुई टेबल में कुछ बुनियादी बदल करना थे, क्योंकि श्री अटल बिहारी बाजपेयी की घुटनों की तकलीफ़ की वजह से , उस खास डिज़ाईन में उन्हे तकलीफ़ आ रही थे.

मैं जैसे ही लायब्ररी के ६ मंज़िल की भव्य वास्तु (३ मंज़िल गाऊंड लेवल से ऊपर , और तीन बेसमेन्ट ) में जाकर काम का जायज़ा ले ही रहा थे कि अचानक गोलीयों की और मशीनगनों की आवाज़ से हम सभी काम करने वाले चौंक गये. वहां हमारे साथ करीब अलग अलग कंपनीयों के १५०० मज़दूर और २०० अफ़सरान काम कर रहे थे क्योंकि २६ जनवरी को उदघाटन तय था.

पहले तो समज़ ही नहीं पाये कि क्या हो रहा है, क्यों कि अकसर फ़िल्मों में सुनाई देने वाली आवाज़ से ये आवाज़ें अलग ही थी.

मैं भागकर उस हॊल में पहुंचा जहां से संसद का वह VIP GATE दिखाई दे रहा था जहांसे अक्सर प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति और अन्य विशिष्ट व्यक्ति आया जाया करते थे.

वहां एक बडा़ सा कांच का खिडकीनुमा पार्टिशन था, जहां से सभी गतिविधियां साफ़ दिखाई पडती थी.

मैं जैसे ही वहां से झांकने का प्रयास कर ही रहा था, दूसरी तरफ़ से याने VIP GATE की तरफ़ से दो गोलीयां कांच से टकराई.कांच अच्छी क्वालिटी का था एक ईंच मोटा, और संयोग ही हुआ कि एक गोली उसे छेदते हुए इस पार निकली और दूसरी छिटक कर रिफ़्लेक्ट हो गई(चूंकि तीखे कोण से आई थी).

बस , जो गोली अंदर आयी उसपे मेरा नाम नहीं लिखा था, और वह सामने दिवार में धंस गयी, और जो पलटी थी वह लगभग बिल्कुल मेरी ओर ही आ सकती थी!!

मैं ताबड़तोब पीछे मुड़कर वापिस हो लिया. मैं और मेरे साथ के सभी मौजूद लोग अब तक ये पूरी तरह से समझ चुके थे कि संसद पर आतंकवादीयों का हमला हो व्हुका है, और अब हमारी भी खैर नहीं.

भय की और मौत की एक थंडी़ लहर मन के किसी कोने से गुज़र गयी. दिमाग काम नहीं कर रहा था कि अब हम अपने आप को कैसे बचायें. हम सभी बाहर की ओर भागने की सोचने लगए, मगर मालूम पडा़ कि बाहर सभी ओर सेना नें परिसर को घेर लिया है, और अब सबसे मेहफ़ूज़ जगह थी यही लायब्ररी की भव्य इमारत.

मैंने और मेरे मातहत इंजीनीयरों/सहायकों नें तुरंत ही अपन आदमीयों को समेटा और बेसमेन्ट नं. १ में स्थित हमें एलॊट किये गये कमरे में जाकर बैठ गये.(यहां अभी तक दरवाज़े नहीं लगाये गये थे). आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हमारी मनस्थिति का, कि एक सामूहिक भय का और अफ़वाहों का वातावरण बन गया था, और लगातार ये आशंका व्यक्त की जा रही थी,कि आतंकवादी बडी संख्या में थे और अब वे हमारी बिल्डींग में घुसने वाले ही थे.

तभी हमने अपने बेसमेंट के कमरे की छोटे से रोशनदान से देखा कि कैसे हमारे ज़ांबाज़ सिपाही आतंकवादीयों से लोहा ले रहे थे. एक बार तो हमारे सामने एक सिपाही कवर में से एकदम बाहर निकला.शायद उसनें किसी आतंकवादी को देख लिया था,जो उस द्वार के ऊपर की छत पर छिपा हुआ था.

मगर उससे पहले आतंकवादी नें खडे हो कर उस सिपाही को शूट कर दिया. हम असहाय से , उसे चिल्ला चिल्ला कर आगाह करने लगे, जैसे कि हमारी आवाज़ उस तक पहुंच रही होगी. हम तो सिनेमाहॊल में मूव्ही देख रहे उस दर्शकों की तरह से ये सब देख रहे थे,एक मायाजाल के वर्च्युअल जगत में स्लो मोशन में फ़टी फ़टी आंखों से देख रहे थे ये नज़ारा.वक्त जैसे ठहर ही गया था.

मगर बाद में पता चला कि उस सिपाही नें गोली लगने के बावजूद अपनी राईफ़ल से उस आतंकवादी को निशाना लगाकर मार गिराया और खुद शहीद हो गया. शायद ये सिपाही शहीद नानकचंद था, जिसने देशभक्ति के और कर्तव्यपूर्ति के उस जज़बे की वजह से अपनी जान दे दी.

फ़िर एक लंबी खामोशी छा गयी. भय और बढ गया, क्योंकि यूं लगने लगा कि शायद अब आतंकवादी भाग रहे थे, और शायद यह नई निर्माणाधीन भवन छिपने या भागने के लिये बेहतर होगा. बीच में ये भी सुना कि उन्होनें किसी VIP को भी बंधक बना लिया है.

मौत की आहट की उस खामोशी को तोडते हुए कुछ लोगों की भागते हुए बेसमेंट में आने की आहट होने लगी.यह भवन इतना बडा था कि अब तक हमें उसके सभी रास्तों और सीढीयों का पता हो गया था. तब मुझे याद आया कि बेसमेंट नं. २ में नीचे कुछ कमरे ऐसे भी थे जहां दरवाज़े लग चुके थे और कहीं अस्थाई ताले भी लगा दिये थे.

मैं अपने साथ कुछ लोगों को लेकर नीचे की ओर भागा.मगर रास्ते में ही हमें कुछ दस बारह लोगों की भीड दिखाई दी ,जो और नीचे की ओर जा रही थी.

पहले तो हम ठिटक कर खडे हो गये , कि शायद आतंकवादी तो नहीं. मगर बाद में पता चला कि बिहार के कुछ बाहुबली सांसद उस तरफ़ से भाग कर यहां छिपने के लिये आ गये थे. बडा ही अजीब नज़ारा था कि ऐसे रौबिले और स्वयं आतंकवादी की शक्ल वाले ये माफ़िया के गुंडे लठैत संस्कृति के नुमाईंदे, जिन्होने अपने अपराधी इतिहास के बावजूद, गुंडा राजनिती के बल पर चुनाव जीत कर संसद में आ गये थे, मेरे सामने थर थर कांप रहे थे मौत के भय से. एक पहलवान नुमा सांसद का तो पजामा तक गीला हो गया था. उसनें मुझे देख कर हाथ पैर जोड़ कर मुझसे दया याचना की भीख मांगने लगा जैसे कि मैं ही कोई आतंकवादी हूं. फ़िर दूसरे नें स्थिति भापकर मुझसे बिनती की कि उन्हे तहखाने में कहीं किसी अंधेरे कमरे में बंद कर दें और बाहर से ताला लगा दें. दूसरे नें साथ में और ये जोड दिया कि ताले की चाबी कहीं अंधेरे में फ़ेंक दे!!

मैं ठगा सा विधि का विधान देख रहा था. एक वह सिपाही था , जो अपनी जान तक कुर्बान कर गया, और दूसरे जान से डरके थर थर कांपने वाले ये सांसद हैं, जिनके लिये उसनें अपनी जान दी.

खैर, मौत का खौफ़ शहादत से ऊपर चढ़ कर बोलता है. हम सभी दूसरे नीचे के तल के बेसमेंट में चले गये और करीब चार बजे तक छोटे कमरों में छुपे रहे. बाद में जब हमारे एक साथी नें ऊपर जाकर वस्तुस्थिति का पता किया (BRAVE) तब जाकर हम सभी बाह्र निकले. मगर हमारे बहादुर साथीयों नें(सांसद) फ़िर भी ऊपर जाने से मना किया, और स्वयं नज़मा हेपतुल्ला जी आयीं और उन्हे बाहर निकाला.

क्या विरोधाभास और मज़ाक नही है, कि आज आठ साल के बाद भी अफ़ज़ल गुरु , जिसे हमारे न्यायालय ने बाकायदा न्याय प्रक्रिया के तेहत दोषी करा देते हुए फ़ांसी की सज़ा मुकर्रर की , उसे अभी तक किसी ना किसी खोखले तर्क के बिना पर ज़िंदगी मुहैय्या कराई जा रही है. ये उन्शहीदों और सच्चे देशभक्त लोगों की शहादत का मज़ाक है, और हम सभी उसे समझ कर भी कर्महीनता के कारण चुप बैठे है.

पता चला है कि कोई श्री राधा रंजन नें Hang Afazal Guru के नाम से ओनलाईन हस्ताक्षर अभियान चला रखा है,और अब तक १४०० लोगों ने उसपर समर्थन दिया है. मगर दुख की या शर्म की बात ये भी है कि किसी तथाकथित मानव अधिकार संगठन नें Justice for Afazal Guru नाम से समानांतर अभियान चला रखा है नेट पर, और उसपर १६६६ लोग अपना नाम दर्ज़ करा चुके हैं.

याने यहां भी हमारी हार?

क्या आप मुझसे सेहमत हैं?

क्या आप नहीं चाहेंगे कि हम सभी ब्लोगर दुनिया के भाई और बेहनों को नही चाइये कि हम अपना विरोध दर्ज़ करायें और एक सामाजिक चेतना में अपना भी सहभाग दें?
http://www.petitiononline.com/hmag1234/petition.html

Sunday, December 13, 2009

अफ़ज़ल गुरु की फ़ांसी का मज़ाक और २००१ के हमले का आंखो देखा हाल..




ये तो वाकई हद ही हो गयी कि मैंने अपने इस ब्लोग पर पिछले दो पूरे महिनों में कुछ भी पोस्ट नहीं किया.मुआफ़ी चाहूंगा.

अभी परसों सुरेशजी चिपलूणकर की एक पोस्ट पढ़ रहा था जिसमें उन्होनें अपने चिर परिचित अंदाज़ में व्यंग करते हुए २००१ में हुए संसद पर हमले का सरगना मास्टरमाइंड अफ़ज़ल गुरु को बर्थ डे पर विश किया था.

ये वाकई शर्म की बात है कि आज उस दिन को आठ साल हो गये हैं, और हमारी शिखंडी जमात उसे अभी तक फ़ांसी तक नहीं चढा पायी.

शिखण्डी हम इसलिये हैं कि जिसनें हमारे देश के संप्रभुता को चुनौती देते हुए प्रजातंत्र के सर्वोच्च मंदिर पर हमला करने का षडयंत्र रचने का दुस्साहस किया, उसको फ़ांसी देने के लिये में आप , मैं और करोडो भारतीय बृहन्नलाओं की तरह ताली पीट पीट कर अपने अपने बिल में घुसे हुए ही गुहार मचा रहे हैं, और अफ़ज़ल गुरु जैसा ही और कोई विनाशकारी दिमाग कहीं दूर बैठ कर मुस्कुराते हुए एक नयी योजना बना रहा होगा, बेखौफ़ हो कर, क्योंकि हम जैसों को राष्ट्र भक्ति या राष्ट्राभिमान का जज़बा सिर्फ़ फ़िल्मी गीतों की रिकोर्ड बजा देने से पूरा हो जाता है.

वैसे अफ़ज़ल गुरु से मेरा व्यक्तिगत दुश्मनी का नाता भी है.

एक तो उसने मेरे भारत (Repeat MY INDIA)्की सहिष्णुता का मज़ाक उडाते हुए ये दुस्साहस किया.

दूसरे, आज भाग्य की वजह से मैं आपके सामने ये पोस्ट लिखने को ज़िंदा बचा हुआ हूं, वरना उसके अनुयायी की एक गोली उस दिन दिल्ली के संसद प्रांगण में मेरी समाधी बना चुकी होती.

बात ज़्यादह विस्तार से नहीं लिखूंगा. बस यही कि ऐसी यादें भूलनें के लिये नहीं होती, क्योंकि इससे आपके देश का सन्मान जुडा होता है.

उन दिनों मेरा काम संसद भवन के आहाते में ही बन रहे Parliament Library Project में चल रहा था. मेरी टीम के ५० से भी ज़्यादा आदमी पिहले देड महिनें से रात दिन एक करके लायब्ररी के फ़र्नीचर को असेंबल करने में लगे हुए थे जिसे मैने डिज़ाईन और सप्लाय किया था.

मैं उसी दिन अल सुबह वहां पहुंचा था, क्योंकि प्रधान मंत्री के लिये बनाई हुई टेबल में कुछ बुनियादी बदल करना थे, क्योंकि श्री अटल बिहारी बाजपेयी की घुटनों की तकलीफ़ की वजह से , उस खास डिज़ाईन में उन्हे तकलीफ़ आ रही थे.

मैं जैसे ही लायब्ररी के ६ मंज़िल की भव्य वास्तु (३ मंज़िल गाऊंड लेवल से ऊपर , और तीन बेसमेन्ट ) में जाकर काम का जायज़ा ले ही रहा थे कि अचानक गोलीयों की और मशीनगनों की आवाज़ से हम सभी काम करने वाले चौंक गये. वहां हमारे साथ करीब अलग अलग कंपनीयों के १५०० मज़दूर और २०० अफ़सरान काम कर रहे थे क्योंकि २६ जनवरी को उदघाटन तय था.

पहले तो समज़ ही नहीं पाये कि क्या हो रहा है, क्यों कि अकसर फ़िल्मों में सुनाई देने वाली आवाज़ से ये आवाज़ें अलग ही थी.

मैं भागकर उस हॊल में पहुंचा जहां से संसद का वह VIP GATE दिखाई दे रहा था जहांसे अक्सर प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति और अन्य विशिष्ट व्यक्ति आया जाया करते थे.

वहां एक बडा़ सा कांच का खिडकीनुमा पार्टिशन था, जहां से सभी गतिविधियां साफ़ दिखाई पडती थी.

मैं जैसे ही वहां से झांकने का प्रयास कर ही रहा था, दूसरी तरफ़ से याने VIP GATE की तरफ़ से दो गोलीयां कांच से टकराई.कांच अच्छी क्वालिटी का था एक ईंच मोटा, और संयोग ही हुआ कि एक गोली उसे छेदते हुए इस पार निकली और दूसरी छिटक कर रिफ़्लेक्ट हो गई(चूंकि तीखे कोण से आई थी).

बस , जो गोली अंदर आयी उसपे मेरा नाम नहीं लिखा था, और वह सामने दिवार में धंस गयी, और जो पलटी थी वह लगभग बिल्कुल मेरी ओर ही आ सकती थी!!

मैं ताबड़तोब पीछे मुड़कर वापिस हो लिया. मैं और मेरे साथ के सभी मौजूद लोग अब तक ये पूरी तरह से समझ चुके थे कि संसद पर आतंकवादीयों का हमला हो व्हुका है, और अब हमारी भी खैर नहीं.

भय की और मौत की एक थंडी़ लहर मन के किसी कोने से गुज़र गयी. दिमाग काम नहीं कर रहा था कि अब हम अपने आप को कैसे बचायें. हम सभी बाहर की ओर भागने की सोचने लगए, मगर मालूम पडा़ कि बाहर सभी ओर सेना नें परिसर को घेर लिया है, और अब सबसे मेहफ़ूज़ जगह थी यही लायब्ररी की भव्य इमारत.

मैंने और मेरे मातहत इंजीनीयरों/सहायकों नें तुरंत ही अपन आदमीयों को समेटा और बेसमेन्ट नं. १ में स्थित हमें एलॊट किये गये कमरे में जाकर बैठ गये.(यहां अभी तक दरवाज़े नहीं लगाये गये थे). आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हमारी मनस्थिति का, कि एक सामूहिक भय का और अफ़वाहों का वातावरण बन गया था, और लगातार ये आशंका व्यक्त की जा रही थी,कि आतंकवादी बडी संख्या में थे और अब वे हमारी बिल्डींग में घुसने वाले ही थे.

तभी हमने अपने बेसमेंट के कमरे की छोटे से रोशनदान से देखा कि कैसे हमारे ज़ांबाज़ सिपाही आतंकवादीयों से लोहा ले रहे थे. एक बार तो हमारे सामने एक सिपाही कवर में से एकदम बाहर निकला.शायद उसनें किसी आतंकवादी को देख लिया था,जो उस द्वार के ऊपर की छत पर छिपा हुआ था.

मगर उससे पहले आतंकवादी नें खडे हो कर उस सिपाही को शूट कर दिया. हम असहाय से , उसे चिल्ला चिल्ला कर आगाह करने लगे, जैसे कि हमारी आवाज़ उस तक पहुंच रही होगी. हम तो सिनेमाहॊल में मूव्ही देख रहे उस दर्शकों की तरह से ये सब देख रहे थे,एक मायाजाल के वर्च्युअल जगत में स्लो मोशन में फ़टी फ़टी आंखों से देख रहे थे ये नज़ारा.वक्त जैसे ठहर ही गया था.

मगर बाद में पता चला कि उस सिपाही नें गोली लगने के बावजूद अपनी राईफ़ल से उस आतंकवादी को निशाना लगाकर मार गिराया और खुद शहीद हो गया. शायद ये सिपाही शहीद नानकचंद था, जिसने देशभक्ति के और कर्तव्यपूर्ति के उस जज़बे की वजह से अपनी जान दे दी.

फ़िर एक लंबी खामोशी छा गयी. भय और बढ गया, क्योंकि यूं लगने लगा कि शायद अब आतंकवादी भाग रहे थे, और शायद यह नई निर्माणाधीन भवन छिपने या भागने के लिये बेहतर होगा. बीच में ये भी सुना कि उन्होनें किसी VIP को भी बंधक बना लिया है.

मौत की आहट की उस खामोशी को तोडते हुए कुछ लोगों की भागते हुए बेसमेंट में आने की आहट होने लगी.यह भवन इतना बडा था कि अब तक हमें उसके सभी रास्तों और सीढीयों का पता हो गया था. तब मुझे याद आया कि बेसमेंट नं. २ में नीचे कुछ कमरे ऐसे भी थे जहां दरवाज़े लग चुके थे और कहीं अस्थाई ताले भी लगा दिये थे.

मैं अपने साथ कुछ लोगों को लेकर नीचे की ओर भागा.मगर रास्ते में ही हमें कुछ दस बारह लोगों की भीड दिखाई दी ,जो और नीचे की ओर जा रही थी.

पहले तो हम ठिटक कर खडे हो गये , कि शायद आतंकवादी तो नहीं. मगर बाद में पता चला कि बिहार के कुछ बाहुबली सांसद उस तरफ़ से भाग कर यहां छिपने के लिये आ गये थे. बडा ही अजीब नज़ारा था कि ऐसे रौबिले और स्वयं आतंकवादी की शक्ल वाले ये माफ़िया के गुंडे लठैत संस्कृति के नुमाईंदे, जिन्होने अपने अपराधी इतिहास के बावजूद, गुंडा राजनिती के बल पर चुनाव जीत कर संसद में आ गये थे, मेरे सामने थर थर कांप रहे थे मौत के भय से. एक पहलवान नुमा सांसद का तो पजामा तक गीला हो गया था. उसनें मुझे देख कर हाथ पैर जोड़ कर मुझसे दया याचना की भीख मांगने लगा जैसे कि मैं ही कोई आतंकवादी हूं. फ़िर दूसरे नें स्थिति भापकर मुझसे बिनती की कि उन्हे तहखाने में कहीं किसी अंधेरे कमरे में बंद कर दें और बाहर से ताला लगा दें. दूसरे नें साथ में और ये जोड दिया कि ताले की चाबी कहीं अंधेरे में फ़ेंक दे!!

मैं ठगा सा विधि का विधान देख रहा था. एक वह सिपाही था , जो अपनी जान तक कुर्बान कर गया, और दूसरे जान से डरके थर थर कांपने वाले ये सांसद हैं, जिनके लिये उसनें अपनी जान दी.

खैर, मौत का खौफ़ शहादत से ऊपर चढ़ कर बोलता है. हम सभी दूसरे नीचे के तल के बेसमेंट में चले गये और करीब चार बजे तक छोटे कमरों में छुपे रहे. बाद में जब हमारे एक साथी नें ऊपर जाकर वस्तुस्थिति का पता किया (BRAVE) तब जाकर हम सभी बाह्र निकले. मगर हमारे बहादुर साथीयों नें(सांसद) फ़िर भी ऊपर जाने से मना किया, और स्वयं नज़मा हेपतुल्ला जी आयीं और उन्हे बाहर निकाला.

क्या विरोधाभास और मज़ाक नही है, कि आज आठ साल के बाद भी अफ़ज़ल गुरु , जिसे हमारे न्यायालय ने बाकायदा न्याय प्रक्रिया के तेहत दोषी करा देते हुए फ़ांसी की सज़ा मुकर्रर की , उसे अभी तक किसी ना किसी खोखले तर्क के बिना पर ज़िंदगी मुहैय्या कराई जा रही है. ये उन्शहीदों और सच्चे देशभक्त लोगों की शहादत का मज़ाक है, और हम सभी उसे समझ कर भी कर्महीनता के कारण चुप बैठे है.

पता चला है कि कोई श्री राधा रंजन नें Hang Afazal Guru के नाम से ओनलाईन हस्ताक्षर अभियान चला रखा है,और अब तक १४०० लोगों ने उसपर समर्थन दिया है. मगर दुख की या शर्म की बात ये भी है कि किसी तथाकथित मानव अधिकार संगठन नें Justice for Afazal Guru नाम से समानांतर अभियान चला रखा है नेट पर, और उसपर १६६६ लोग अपना नाम दर्ज़ करा चुके हैं.

याने यहां भी हमारी हार?

क्या आप मुझसे सेहमत हैं?

क्या आप नहीं चाहेंगे कि हम सभी ब्लोगर दुनिया के भाई और बेहनों को नही चाइये कि हम अपना विरोध दर्ज़ करायें और एक सामाजिक चेतना में अपना भी सहभाग दें?
http://www.petitiononline.com/hmag1234/petition.html

Monday, February 2, 2009

पद्मश्री की लिस्ट - ताऊ और उडन तश्तरी


जबसे सरकार ने पद्मश्री की लिस्ट लाई है बाज़ार में ,मेरा जीना दुश्वार हो गया है.

क्षमा करें , मैने बाज़ार लिखा तो किसी को आपत्ती नही होनी चाहिये. अब तो ये बाज़ार ही है, और ये पद्म अलंकरण भी एक कोमोडीटी ही हो गई है, तिजारत के लिये.याने बार्टर सिस्टम मेरे मित्रों. इस हाथ दे , उस हाथ ले.

मगर ये मत कहिये कि चूंकि मुझे नहीं मिला है तो मैं चिढ़ कर ऐसा कह रहा हूं.बात सिद्धांत की है.

वैसे ये बात अलग है कि मैं चिढा़ हुआ तो हूं ही.ये तो कोई बात नहीं हुई कि ९३ लोगों को रेवडी़ बांट दी और मैं रह गया.क्या कमी रह गई थी उनमें और मुझमें?

चलो देखते हैं.

कुछ समाजसेवी है इनमें. हालांकि, सत्यम के राजू का नाम तो भारत रत्न के लिये आया ही था मगर मेरी कोम्पीटीशन तो पद्मश्री के लिये है.

तो भाई साहब मैं भी तो लायन्स क्लब के झंडे तले कई बार अपने पलासिया चौक पर २ अक्टूबर को चंदा इकठ्ठा करने खडा हुआ हूं.चार साल पहले दृष्टीहीन संस्था में ब्रेल की किताबें और पांच बार विकलांगों को ट्राईसिकल बांट चुका हूं .
( पूछ लिजिये राम शरण से जिसे पिछले पांच साल से बांट रहा हूं).

दूसरी बात ये कि फ़िल्मों से जुडा हुआ होने की भी शर्त पूरी करता हूं. पिछले कई सालों से फ़िल्मों का उपभोक्ता रहा हूं जनाब. ये हेलन ,ऐश्वर्या राय और अक्षय कुमार जो माल परोस रहे हैं , उसे मैं ही तो खरीद रहा हूं.तो ऐसा क्या कर दिया कि मैं कहीं कम पड गया? बेचने वालों को इनाम जिनने पैसा बनाया, और खरीदने वाले को ठेंगा जिसका पैसा व्यर्थ गया?

और हां- कुमार सानु, और उदित नारायण को मिला है तो ठीक, मगर कोई बतायेगा कि सुमन कल्याणपुर को भी कोई पद्म पुरस्कार मिला है?

चलो, खिलाडीयों की ओर भी चल के देख लेते है. शायद आपको मालूम नही है कि मैं भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का खिलाडी हूं गुल्ली दंडे में. हमारे शहर के करीब के कस्बें कंपेल में आयोजित अखिल विश्व गुल्ली दंडा प्रतियोगिता में मैं दूसरा रहा हूं .
( अब उसमें कोई अंतरराष्ट्रीय खिलाडी नहीं पहुंचा तो मैं क्या करूं?)

हां , ये बात तो कबूल है, कि मेरा किसी भी राजनैतिक पार्टी से सरोकार नही रहा है.मगर ये पक्का कि नैतिक मूल्यों की नैतिकता में मैं इन सबसे अव्वल हूं. नहीं चलेगा ये क्वालिफ़िकेशन?

राज की बात दरअसल ये है, कि मुझे पद्मश्री देने के लिये कोई प्रायोजक नहीं है, नहीं तो ऐसे वैसों को दिया है, मुझको भी तू लिफ़्ट करा देता, हे ईश्वर.

श्रीमती जी को जब पता चला तो वह हंस पडी़. मुझे सांत्वना देने के लिये उसनें कहा- कोई बात नहीं, कई लोग छूट गये है, जैसे कि विजेन्दर और सुशील कुमार आदि, तो क्यों बुरा मानते हो.

बात में दम है, बंदो मे भले ही ना हो.मात्र ग्यारह देशों से मात्र खेलने वाली आज की क्रिकेट टीम में पांच खिलाडी़ पद्म पुरस्कार से नवाजे गये है, मगर विश्व स्तर पर इतने सारे देशों के खिलाडीयों को मात कर ऒलेंपिक मेड़ल प्राप्त करने वाले इन खिलाडीयों को सरकार भूल गयी?

मुंबई के सी एस टी स्टेशन पर शौर्य पराक्रम दिखाने वाले पोलिस कॊंस्टेबल शशांक शिन्दे को तो अशोक चक्र तक नहीं मिला.कसाब नें नहीं बताया होता तो हमें पता ही नहीं चलता कि वीरता से उसका सामना करने वाले अशोक शिन्दे की रक्तरंजीत लाश रात भर स्टेशन पर पडी़ रही तो इसके पीछे शूरता की क्या बेमिसाल कहानी थी. ये शरम की ही तो बात है , कि शिंदे की विधवा और बेटी को इस अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना पडा़ तो हम जागे.वैसे २६/११ के मुंबई हमले में शहीद हुए सभी अधिकारीयों और सिपाहियों को अशोक चक्र की जगह वीर चक्र मिलना चाहिये था क्योंकि क्या पाकिस्तान ने भारत पर किया वह अघोषित युद्ध नहीं था?बात वहीं आ कर ठहरती है, कि प्रायोजक नही मिले उन्हे.

हां , ये ठीक है. मैं अकेला ही तो नहीं हूं जिसे पद्मश्री नहीं मिली है.आप भी परेशान नहीं हों अगर आपको भी नहीं मिली हो तो. अगले बंदर बांट में देख लेंगे.तब तक प्रायोजक ढूंढ़ते है.

ब्रेकिन्ग न्यूज़ !!!

अभी अभी पता चला है कि सरकार कि उस लिस्ट में हमारे अपने ताऊ के नाम की शिफ़ारीश की गई थी, मगर ताऊ के चरित्र-माफ़ किजीये, कलम फ़िसल गई - व्यक्तित्व के बारे में संशय की स्थिती अभी तक बनी हुई होने की वजह से अंत में उन्हे पद्मश्री से हाथ धोना पडा़. ( वैसे भी हमारे ब्लोगर समाज के है भी कितने वोट?)

कल परसों तक न्यूज़ चेनल की जांच पडताल से कई अन्य बातें भी सामने आंयीं है जिसका खुलासा भी अभी किया गया है. पता चला है, कि ताऊ को ढूंढने पहुंची सरकारी टीम इन्दौर में ताऊ के ठिकाने का अभी तक पता नहीं लगा पा रही है.खोजी कुत्ते पानवाले की दुकान से वापिस लौट गये है. पानवाले से पूछताछ जारी है, और खबर मिलते ही इस चेनल पर सबसे पहले ये एक्स्ल्युसिव खबर दी जायेगी.

खुदा का शुक्र है कि उन्हे मेरे बारे में पता नहीं है, कि मैं भी इन्दोरी ब्लोगर हूं,नहीं तो मेरे पीछे पड़ जाते. मगर क्या बताऊं , सच्ची कहता हूं कि मेरे साथ साथ पानवाला भी अंधेरे में है !!

इसी बीच सरकार नें अमेरीका में ओबामा से ये गुजारीश की थी कि वे ताऊ का पता लगाने में उनकी मदद करें. खबर ये है, कि ओसामा बिन लादेन को ढूंढने गई टीम को भेजने के लिये फ़ाईल तो चलाई गई थी, मगर सुना है वह टीम अभी जबलपुर में है ! यहां पिछले दिनों उडन तश्तरी के दिखाई देने की खबर थी, जहां परग्रह से आये हमारे कुछ एलीयन मेहमान बडकुल की जलेबी की दुकान पर देखे गये थे.

क्या वे जलेबी के सेम्पल ले जाकर परग्रह पर दुकान खोलने की योजना बना रहे थे?

या वे हमारे ही पूर्वज हैं जिन्हे शताब्दी पहले परग्रही यहां से उठा ले गये थे?

या ये अमेरीका के अंडरकवर खूफ़िया टीम है जो ओसामा के लिये मध्य प्रदेश आयी है?

या फ़िर ताऊ को खोजने?

ये भंडा़फ़ोड हमारे अगले कार्यक्रम में देखें, कृपया कहीं नहीं जायें, मिलते है ब्रेक के बाद....

Friday, December 26, 2008

Comedy of Terrors-

आतंकवाद के ३० दिन...



२६/११ को पूरे ३० दिन हो गये है. ज़ेहन में अभी भी वो यादें बाबस्ता है, वह त्रासदी, वह कसक ,वह पीडा़, वह झटपटाहट, वह निराशावाद सभी बरकरार है, किसी भी हिंदी फ़िल्म के मसाले से भरपूर स्क्रीन प्ले की तरह.

मगर यह एहसास जब अपनी निरंतरता को प्राप्त कर जाता है, तो कहीं जाकर एक स्थाई भाव अख्तियार कर लेता है, जो किसी भी सूरत में आप के मानस से किसी भी रबड से मिटाया नही जा सकता.ये चित्र देखा. अभी कल ही एक चित्रों की प्रदर्शनी लगाई गई थी उन दिनों के स्मृतिचित्रों की.

मगर मेरे पास कुछ टोटके हैं , जिन्हे मै कभी कभी इस्तेमाल कर स्ट्रेस या भावनाओं के अतिरेक से प्रेशर कूकर की सीटी की भांति रिलीज़ कर लेता हूं, जो मान्यताओं से भी कभी कभी विपरीत होता है.इसे मैं Comedy of Terrors कह सकता हूं.

हां , मैं कॊमेडी या हास्य की बात कर रहा हूं. मुन्नाभाई की फ़िल्म में दॊ. अस्थाना को याद करें, जब खीज या गु़स्सा चरम सीमा से बढ़ जाता है तो वे हंसने लगते थे. मेरा अलग है थोडा, कि मैं उस पी्डा या वेदना में भी हास्य ढूंढ लेता हूं ताकि दिल की चुभन के अहसासात को थोडा तो कम किया जा सके.

वैसे मैं कोई बहुत गलत भी नहीं हूं. अमेरिका में पिछले दिनों जिन फ़िल्मों नें रिकॊर्ड तोड व्यवसाय किया है, उनमें कॊमेडी या व्यंग से भरपूर फ़िल्में या कार्टून फ़िल्मों का बाहुल्य रहा है. बाकी को देखें तो फ़ेंटासी की फ़िल्में भी उन्हे राहत दे रहीं है, इस जगव्यापी रिशेशन या आतंकवाद के भयनुमा स्ट्रेस से.

कोई इसी नकारात्मकता से देख कर पलायनवाद की परिभाषा में डाल सकते है.मगर क्या गालिब नहीं पूछ रहे हैं कि दिले नादां तुझे हुआ क्या है? , आखिर इस दर्द की दवा क्या है?

अब देखिये इस Comedy of Terrors को. शेक्सपीयर ने लिखा था Comedy of Errors. और यहां इस त्रासदी में भी हमें व्यंग या हास्य कैसे निकलता है ये देखें.

पहले तो नेताओं को ही याद कर लिजिये. गुस्से से ज़्यादा अब हंसी आती है जब हम याद करते है कि महाराष्ट्र के गृह मंत्री कहते है, कि ऐसे छोटे मोटे हादसे तो होते ही रहते है. मगर उन्हे क्या पता था कि ना केवल वे और उनके boss, मगर राष्ट्रीय मंच पर भी ग्रूह मंत्री ( जिनकी अपनी खुद की लॊंड्री की दुकान है वे, याद आये?)भी अपना जॊब खो बैठे.

केरल के मुख्य मंत्री का फोटो भी कुत्ते के गले में देख कर हंसी आयी. मेरे पडोसी कुत्ते नें भी एक दिन मौन रखा था जब मुझ पर गुर्राया नहीं.

मुझे याद है, उन दिनों मुम्बई में चेंबुर मोनोरेल के प्रॊजेक्ट के उदघाटन के पोस्टर पूरे शहर में लगे थे और बाद में उन्ही के साथ सभी पार्टियों के भी शहीदों को श्रद्धांजली देने के पोस्टर लग गये थे. उसमें कॊंग्रेस्स के पोस्तर पर देशमुख जी का वही हंसता हुआ चित्र लग गया था जो उदघाटन के पोस्टर पे था( मैं उसका फ़ोटो नहीं खींच पाया, क्योंकि किसी ने उसे उतारने की कवायद शुरु कर दी थी.

क्या होता अगर ताज़ होटल में आतंकवादीयों और एन एस जी के कमांडो के बीच की मुठभेड़ के दौरान लाईट चली जाती ? ( यहां भारत में संभव है). कोई आतंकवादी कमांडो से पूछता की भाई साहब माचिस देना तो ज़रा..., या फ़िर कहता हमारी टाईम्स है, या कच्ची है.( बचपन में हारते समय अपन नें बहुत बार टाईम्स ले लिया था या पदने से बचने से कच्ची कर लिया करते थे)


पाकिस्तान तो रोज़ रोज़ कॊमेडी कर रहा है. पूरा देश और अंतरराष्ट्रीय जगत देख रहा है, मान रहा है, सबूतों पे सबूत दिये जा रहें हैं. मगर हमारे पडोसी तो इन्कार पे इन्कार किये जा रहे हैं. अब हम हाथ जोड कर कह रहें है, कि भाई साहब हम आप पर हमला नहीं कर रहें है, मगर इनकी तो फ़ूंक ही खिसकी जा रही है, बेकार में युद्ध का माहौल खडा कर रहे है. अब अगर खुदा न खास्ता युद्ध हुआ तो पाकिस्तान नहीं बचेगा. मगर क्या हमारे नेतृत्व में इतना दम है?














अब ज़रा बेहन जी का टेरर देखिये. जी हां मायावती की. ( जी नहीं लगाऊंगा, क्षमा करें). अब एक इंजिनीयर की ये औकात हो गई कि मायावती के जन्मदिन पर ५० लाख का तोहफ़ा भी नही दे सकता. उसे क्या जीने का हक है, अगर आका का ये अपमान करे तो. मगर आप हैं कि बिना शरम कह रहीं हैं कि ये सब विपक्ष की चाल है.


एक कार्टून भी इसी पर छपा है जो आपकी नज़र है.(साभार दैनिक भास्कर)



मगर सबसे ऊपर, रेंकिंग नं. १ है यह बात कि हमारे अंतर्राष्ट्रिय चौधरी, भाईयों के भाई, आतंकवादीयों के सिरमौर जनाब बुश साहब को भी कोई जुता मार गया. क्या खूब बात है.


हमारे यहां लोगों को कब अकल आयेगी.

Tuesday, September 30, 2008

’अब ना हिन्दी बोलें,हमका माफ़ी दईदो !! ’ छोरा गंगा किनारे वाला..


बहुत दिनों बाद मुख़ाति़ब हो रहा हूं आपसे.

इन दिनों गंगा में से बहुत पानी बह गया.छोरा गंगा किनारेवाला आख़िर में डर ही गया.

"वह इतना डर जाता है कि बीबी के हिंदी बोलने तक की माफ़ी अंग्रेज़ी में मांग लेता है.हिंदी शिरोमणी कवि बच्चन की सांस्कृतिक विरासत को आगे बढाने वाले इस कुलदीपक ने सलीम जावेद से शब्द उधार ले कभी अकड़कर किसी फ़िल्म में कहा था कि जहां हम खडे़ होते है, लाइन वहीं से शुरु होती है."

पिछले दिनों यहां के अग्रणी एवं प्रतिष्ठित समाचार पत्र ’नईदुनिया’ में प्रसिद्ध हिंदी लेखिका निर्मला भुराड़िया नें अपने स्तंभ ’ अपनी बात ’ में ’अब ना हिन्दी बोलें,हमका माफ़ी दईदो !’ में ऐसा ही कुछ लिखा था. वे आगे बजा फ़रमाती हैं, कि अमिताभजी अगर आप सच के पक्ष में डटे रहते, शान से हिंदी बोलते तो आपके पीछे लाईन बन जाती!(साथ में कार्टून भी नईदुनिया से साभार).

क्या अचूक बात कही है उन्होनें..


आपको याद है दीवार फ़िल्म का वह डायलॊग, जिसमें इस महानायक नें कहा था-

आज खुश तो बहुत होगे तुम, बहुत खुश होगे, कि वो आदमी , जो कभी तुम्हारे मंदिर की सीढ़ी नही चढ़ा ...आदि .. आदि..

आज मैं कुछ इस तरह से कह रह हूं , राज ठाकरे से कि..

आज खुश तो बहुत होगे तुम, बहुत खुश होगे, कि वो आदमी , जो कभी तुम्हारे दरबार की सीढ़ी नही चढ़ा, वह आदमी आज तुम्हारे सामने हाथ जोड कर खडा है...और ये तुम्हारी जीत है.क्या कसूर है उसका, यही कि उसने उसकी मातृ भाषा बोली, या यूं कहें राष्ट्र भाषा बोली?

मगर महानायक, एंग्री यंग मॆन, ये सब फ़ुस्स हो गया.

ठाकरेवाद, या आतंकवाद या जो कोई भी वाद कहें .. राष्ट्रवाद कहां रह गया भाई?

इधर आनन फ़ानन में आमिर खान नें भी पैंतरा बदला. मोदी के सामने डट कर खडे होने वाले और शाबासी बटोरने वाले इस नायक नें यह कहा कि वह तो मराठी ही है, चूंकि उसने यहीं जन्म लिया है.याद है ,तब उन दिनों वह जहां खडा़ हुआ , वहीं लाइन बन गयी थी,एक असली नायक के पीछे.

बात खरी कही. आज से कुछ बीस साल पहले, एक बार किसी अन्य संदर्भ में अभिनेता रणधीर कपूर नें यही कहा था.मै स्वयं मराठी होने के बाद भी अपने आप को मालवी (मालवा अंचल का) समझता हूं. मगर अब आमिर खान को भी यही वक्त मिला था अपनी ये बात कहने का?कहां गया वह असली नायक?

कालाय तस्मै नमः !!!

अभी अभी यहां पोस्टते पोस्टते (!!!) सुबह पढी़ यह छोटी सी ख़बर याद आ गयी, जो उपरोक्त अख़बार में कहीं किसी कोनें में छपी थी.

आख़िर पुलिस नें बडी़ ज़द्दोज़ेहद के बाद अमिताभ बच्चन को धमकी देने वाले ’राज ’ को राजस्थान में पकड ही लिया. क्षमा करें , ये ’वो’ नहीं , वरन कोई देवीसिंग राज पुरोहित है जिसने इस महानायक को SMS कर २५ करोड की रु. की फ़िरौती मांगी थी !!!

चलो, ऐसा नही है कि पुलिस काम नही करती, आप ख़्वामख्वाह ताना देते रहतें हैं.मुम्बई में दादर बांद्रा में नहीं जा सकी तो क्या? राजस्थान तक जाने की मुस्तैदी तो दिखाई.सॊरी, हमका भी माफ़ी दई देब.

कालाय तस्मै नमः !!!



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दुर्गा पूजा और नवरात्रि...


आज से आद्यशक्ति की आराधना का नौ दिवसीय पर्व नवरात्रि उत्सव प्रारंभ हुआ.घर घर में घटस्थापना और देवी मां की मूर्ति स्थापित होगी. गुजरात , महाराष्ट्र , और मध्य प्रदेश में हर मोहल्ले , हर गली में गरबे और डांडिया की धूम मचेगी.बंगाल में काली मां की मूर्ति स्थापना के साथ बंगला संस्कृति और कला का मंचन किया जायेगा.आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें..



तुम्ही वैष्णवी,
तुम्ही रुद्राणी,
तुम्ही शारदा अरु ब्राम्हणी..
नमस्तस्यै,नमस्तस्यै,नमस्तस्यै, नमो नमः ...





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ईद मुबारक ...


















अनेकता में एकता के कथन को सच करने आ गया है ईद-उल-फ़ितर का पाक़ ,पवित्र त्योहार.

तन , मन और आत्मा की शुद्धता के लिये रमज़ान के महिनें में कडे़ रोज़े रखने वाले हमारे मुसस्सल ईमान रखने वाले भाई बहनों को ईद की दिली मुबारकबाद, हार्दिक शुभकामनायें..

नाज़िरीन , ज़रा इन तस्वीरों पर गौर तो फ़रमायें...















क्या इन मासूम चेहरों में आपको कोई आतंकवादी दिखाई दे रहा है?

Thursday, September 25, 2008

आतंकवाद--- बहा के लहू इंसां का मिलेगी क्या...तुमको वो जन्नत...


I am just returning from my solitude , as I was ground due to my accident.

Today , just few minutes back, I hit a site just mentioned below, with a very terrifying title:

बहा के लहू इंसां का मिलेगी क्या...तुमको वो जन्नत...

आतंकवाद के खिलाफ आवाज़ की 'ऑडियो-वीडियो' पहल ...

Yes, our friend Sanjeev Saarathie has labourously worked upon this timely creation,in association with Team of D - Lab, that I felt a need to just get up, and reach to the top most place of my house & cry. Cry for those innocent lives, those unfortunates, who could not even realise, why they met with that gastly end.

जरा इनकी मार्मिक अपील पर ध्यान दें..

Terrorism at its Worst!!

Friends---


Music with a purpose, that is what we all wants to achieve, isn't it ? these guys from chennai have tried to do the same, being a music person i want u too to give ur valuable opinions about these shocking incidents that happening all around us, together we should make an voice .I need ur support to encourage such efforts so please spare a few moments to comment on this video.

www.podcast.hindyugm.com/2008/09/war-against-terrorism-audio-video.html


How unfortunate I am , that I am unable to post my comments on this blog site due to some technical problem with my site.

Now, here I am trying to achieve two objectives.

THIS VIDEO MUST REACH HUNDREDS OF THOUSAND HOMES, TO ALL CROSS SESTION OF SOCIETY, IRRESPECTIVE OF RELIGION , CASTE OR REGION.

And to put my small reaction as comment to this video, which I could not post.

"What to remark. I am totally speechless and dumbfound. Indeed a very creative fusion of effective and charging lyrics with dramatic visualisation content by array of shocking & heartbreaking visuals."

One line keeps on hauting me.

How can you live in Heaven...?

By creating HELL on earth... ?


All visuals fade out, but HELL remains on your screen. That is reality, a stark reality indeed.

The last nail in the coffin was the picture of young children, who could not even start their journey in this cruel world.

This video must reach to every corner of India , at least the blog world. "

Second objective is not all that important. First is.
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