Friday, August 29, 2008

कहीं दूर जब दिन ढल जाये- मुकेश

आनंद
यह फ़िल्म आप हम सभी के मानस में कहीं दूर तक जा बसी है. आपके संवेदनशील मन नें हृषिकेश मुखर्जी के उस फ़िल्म के दोनों चरित्र आनंद और भास्कर के कलेवर के अंदर जा कर या उनके हल्के फ़ुल्के उल्हास के क्षणों की या दर्दो ग़म की अनुभूति ज़रूर की होगी.

यह गाना इस शाश्वत सत्य को भोगने की पीडा को अभिव्यक्त करता है, कि जीवन क्षण भंगुर है, एक यात्रा जिसकी शाम तय है.फ़िल्म का नायक आनंद युवावस्था में ही अनचाहे इस यात्रा के अंत में अपने आप को पाता है. उसनें भी सपनोंका एक जहां बसाया था,जिसके बारे में फ़िल्म के आरंभ में वह कहता भी है:

मैने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने, सपने सुरीले सपने..

कुछ हंसते, कुछ ग़म के ये सपने लिये इस खुशमिज़ाज़ इंसान से आप हम जब रूबरू होते है तो उसके Exterior के आनंदित और उल्हास भरे व्यक्तित्व के पीछे छिपी उसके मन की वेदना से हम रूबरू होते है इस गीत के ज़रिये.मौत की भयावह सच्चाई से.

यह गीत योगेश ने लिखा है . (एक और गीत लिखा है इस फ़िल्म का- ज़िंदगी , कैसी है पहेली..) सलिल दा नें शाम के किसी राग में इसकी रचना की है, और इस जीवन के यथार्थ दिखाने वाले नगमे को मुकेश से अलावा और कौन गा सकता है भला?

अब आप इसका विडिओ देखें और मेरे साथ साथ चलें, आनंद के मन में झांकने..उसके सपनों में और ग़म में शामिल होने..




गाने के प्रारम्भ में समुंदर के क्षितिज पर अस्त होते हुए सूरज से आनंद के मन को उद्वेलित होते हुए हम पाते है, मृत्यु की आहट को वह डूबते सूरज में महसूस करता है, और उदास हो जाता है. मगर अगले क्षण ही एक बैलगाडी दिखाई है निर्देशक नें, जिसे देख नायक थोडा मुत़मईन हो जाता है, शांत हो जाता है . अपने दिल को आश्वस्त कर देता है, कि जिंदगी एक सफ़र ही तो है.

कहीं दूर जब दिन ढल जाये , सांझ की दुल्हन बदन चुराये, चुपके से आये..
मेरे खयालों के आंगन में ,कोई सपनो के दीप जलाये, दीप जलाये......


आप ज़रा यहां बोलों का चयन देखें - सांझ की दुल्हन.. मृत्यु के बारे में आज तक कही गयी एक मात्र उपमा..

नायक भी इस दुल्हन का वरण करने के लिये अपने मन को तैय्यार करता है, और जो सपने उसने पहले देखे थे , उन्हे भुला कर इस दुल्हन द्वारा सपनों के दीप जलाने का स्वागत करता है.

गाने के पहले Interlude में उसके मन का अंतर्द्वंद को ,संत्रास को पत्ते गिरते हुए पेडों के झुरमुट द्वारा और समुंदर के लहरों का मन पर आघात करता हुए विज़्युअल से, साथ ही बांसुरी के हार्मोनी और वायोलीन के समूह के उतार चढाव से हृषी दा और सलिल दा नें बखूबी निर्मित किया है.

फ़िर देखिये पहला अंतरा..

कभी युं हीं जब हुईं बोझल सांसें, भर आयी बैठे बैठे जब युं ही आंखें,
तभी मचल के, प्यार से चलके, छुए कोई मुझे पर नज़र ना आये, नज़र ना आये..


क्या कुछ समझाने की ज़रूरत है? मौत में रोमांस खोजने का यह अंदाज़ , क्या बात है..

दूसरे अंतरे के पहले के interlude में आप सुनेंगे मृत्यु की आहट, Bass Trumpets के खरज़ स्वरों के प्रयोग द्वारा. साथ ही बांसुरी की उत्सवी और विरोधाभास भरी सरगम पूरी Octave में, साथ में विज़्युअल में आनंद के पुराने प्रेम की यादें दर्शाता हुआ सूखे हुए फ़ूल का किताब मे से निकलकर प्रेम की असफ़ल परिणीती का वर्णन करता है, और साथ में नये रिश्तों का मोह भी..

तभी तो वह दूसरे अंतरे में कह उठता है-

कहीं तो ये दिल कभी मिल नही पाते, कहीं पे निकल आये जनमों के नाते,
ठनी थी उल्झन, बैरी अपना मन, अपना ही होके सहे दर्द पराये,दर्द पराये..


प्रेमिका के बिछडने की पीडा़ , साथ में नये रिश्तों के अपनत्व का अहसास, दोनॊ भाव इस अंतरे में...

फ़िर तीसरे अंतरे में-

दिल जाने मेरे सारे भेद ये गहरे, हो गये वैसे मेरे सपने सुनहरे,
ये मेरे सपने, यही तो है अपने,मुझसे जुदा ना होंगे इनके ये साये.. कहीं दूर जब दिन ढल जाये.....

क्या आप बता सकेंगे यहां रचयिता तिकडी के मन के भाव क्या रहे होंगे? यह आप के लिये. और साथ में मुखडे और पहले दोनों अंतरों के कुछ अलग भाव, अर्थ अगर हैं तो आईये, सिरजने दिजिये आप के दिल से..

हां, इस गीत को पिछले एक हफ़्ते से भोग रहा हूं , सुर और अर्थ मानों दिल में गहरे पैठ गये है. इसी गाने को गाकर भी पीडा हल्की कर रहा हूं. आप भी सुनना चाहें तो यहां प्रेषित है.. सुनने का नम्रता से अनुरोध. वैसे इस बार पार्श्वसंगीत के सा्थ.

मैं, आप, संगीत और मुकेश !! दिलीप के दिल की आवाज़ से....

Friday, August 22, 2008

मानस के अमोघ शब्द

अपने एक नये ब्लोग के बारे में थोडी चर्चा..

कुछ सालों पहले जब इस दुनिया में आया था तो जिंदगी के सफ़र के दौरान पाया की अपन तो श्री ४२० के राज कपूर जैसे निकल पडे थे खुल्ली सडक पे अपना सीना ताने,यह मिशन लिये की किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वासते हो तेरे दिल में प्यार,क्योंकि जीना इसीका नाम है..

मगर पाया कि सब कुछ सीखा हमनें ना सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालों, हम है अनाडी..बस चलते रहे सुनसान डगर और अनजान नगर में, यह कहते हुए कि आवारा हूं..

मगर क्या करें? दि़ये और तूफ़ान की कहानी की मानींद, दि़या तो अपनी धुन मे मगन ,आस्था के तिनके पर सवार ,मन के और समाज के अंधकार को मिटाने फ़ड्फ़डाता रहा..

मगर वह तो अपनी कहानी है.ज़माने नें कुछ ऐतबार किया , कुछ ना ऐतबार किया. हकीकत से रूबरू हो , बेआबरू हो, ग़ैरते मेहफ़िल से भी बेखबर ,कभी बाखबर चलते रहे. इंसानीयत से बडी शिद्दत से, नेक नीयत से ,भूले से मोहोब्बत कर बैठा यह दिल,नादां था बेचारा .. दिल ही तो है..

अब हम आपकी मेह्फ़िल में शिरकत कर रहें है, तो सोचा क्यों ना हम अपने फ़लसफ़े को भी आप के साथ शेयर करें, वह जो हमने इस जहां से पाया, तिनका तिनका जोड कर..

तो एक और ब्लोग बनाया है” मानस के अमोघ शब्द ’. मानस के याने मन के गहरे पैठ जा कर मेह्सूस की गयी बातें अमोघ याने अचूक शब्दों में ..

यहां पर कोशिश रहेगी कि कुछ ऐसा लिखा जा सके,जो संगीत के अलावा हो, जिस पर जीवन में सीखे मॆनेजमेंट के फ़ंडे, कुछ तकनीकी बातें, कुछ कलात्मक चित्र, कुछ सिंदबादी किस्से,और बहुत कुछ. दिलीप के दिल से पर संगीत की बातें तो चलती रहेंगी ही, जहां हर चीज़ ज़रा शऊर और तेह्ज़ीब के दायरे में रहेंगी. कभी कभी अपने दिल की आवाज़ भी सुनायेंगे .इसका मतलब यह नही की मानस के अमोघ शब्द पर कुछ ठिलवायी होगी. कहने का मतलब है, जो मन नें पाया वही लौटाने का जतन है ये, आ अब लौट चलें..

और हां, यहां लिखे हर वाक्य में एक बात जो लगभग हर जगह प्रतिध्वनित हो रही है है, वह है मुकेश की आवाज़ .जी हां, मुकेशचंद्र माथुर ... जिनकी पुण्यतिथी आज है. तो उन्हे भी याद करें , बडी शिद्दत से, बडे सूकूं से, बडी नज़ाकत से, जैसा की मुकेश जी के गानों का आलम होता था.

उन पर कोइ गीत लगाना क्या ज़रूरी है?

आप खुद ही गा लिजिये ना..हो जायेगी उनकी याद दिल से.

हर आम व्यक्ति को यह दिली सूकूं है की वह मुकेश के किसी ना किसी गीत को अपनी ज़िंदगी में कहीं ना कहीं अपने उपर भुगता हुआ, भोगा हुआ पाता है. दर्द भरे पलों की याद या खुले मन से बेबाक प्रेम अभिव्यक्ति करते हुए.जिसके होटों पे सचाई रहती है, दिल में सफ़ाई रहती है.जो कभी गर्दिश में रहा, तो कभी आसमान का तारा .

तभी मुकेश जी नें हमेशा कहा की - कोइ जब तुम्हारा हृदय तोड दे , तडपता हुआ जब कोइ छोड दे, तब तुम मेरे पास आना- मेरा दर खुला है, खुला ही रहेगा , आप जैसे दर्दीले गीत को सुनने वालों के लिये.

और जिसने यह सब नही मेहसूस किया है, उसकी चिन्ता मैं और आप व्यर्थ में क्यों करें? आप ने यहां तक मेरा साथ दिया है , इतने दूर यह पढने चले आये है,मेरे दिल से निकले कुछ अमोघ बोल सुनने, तभी , क्योंकी आप भी तो मेरे जैसे है> अपनी धुन में रहता हूं,मैं भी तेरे जैसा हूं...यह जो सब लिखा गया है, क्या सिर्फ़ मेरे बारे में है? नही दादा, यह सब आप के मानस कि तो अभिव्यक्ती है.

तो आयें , मिल कर गा उठे -

जीना यहां , मरना यहां इसके सिवा जाना कहां ?
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