Sunday, January 25, 2009

जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है..


ये है मुंबई मेरी जान...

पिछले दो तीन दिनों से मुंबई में था, और काम की आपाधापी में चाह कर भी लिख नही पाया.

मुंबई में एक खबर बडी जोरदार ढंग से उछल रही है. Slumdog Millionaaire को ओस्कर के लिये नामांकित किया गया और हमारे भारतवासी बल्ले बल्ले हो गये. मानाकि फ़िल्म बनाने वाले फ़िरंगी हैं, बाकि तो सभी आपला माणूस हैं , ( याने खालिस हिन्दुस्तानी).

बात मे दम तो है. रहमान , गुलज़ार और फ़िल्म का विषय, एक स्लम के छोकरे का करोडपती बनना बावजूद इसके कि यहां सिर्फ़ गरीबी ही नही, भूकमरी के साथ गुनाहों का दलदल, धार्मिक दंगे, Child prostitution, और सबसे अधिक परेशान करने वाली बात याने कि भारत की छवि का घिघौना चित्रण, यथार्थवादी चित्रण, जिसमें टूरिस्ट के साथ छलावा और धोखा शामिल है.

सोचा फ़िल्म देख ही आये, तो देख ली.

सबसे पहले तो वह चित्रण जिसमें फ़िल्म सभी फ़ेमों में डार्क कलर्स में और मूल रंगों में भडकिली और कंट्रास्ट लिये दृष्य. अमूमन, ज़िन्दगी के सभी रंग, ग्रे शेड लिये, कहीं पेस्टल रंगों में, कहीं soothing तो कहीं चटकिले होते है. आजकल डिजिटल शूट की वजह से Post production में रंगों को थीम की तरह उभारने का चलन बढ गया है. यही वजह है, कि इतनी अच्छी फ़िल्म देखने के बाद भी मन में कडवाहट और मायूसी भर गयी. इस विवाद में ना जाकर कि क्या ये सही है, हम अपने आप से पूछें कि क्या ये सत्य भयावह नहीं , और हमारे कर्णधारों ने, राजनीति और सामाजिक नेताओं ने इस देश को दुहा है, निचोडा है, अपने स्वार्थ के लिये.और हम आम नागरिक, दूसरों की तरफ़ मूंह कर जेब में हाथ डालकर राह देख रहे हैं कि कोई और आकर जादु की छडी से स्थिती बदल देगा.


मगर रात को टीव्ही पर गुरुदत्त की प्यासा का गीत देखा- जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है..तो एक बात पर मन सोच में पड गया.

१९५७ की फ़िल्म में, Black & White में भी सिर्फ़ ग्रे शेड में बदनाम बस्ती का वह घुटन भरा , मन पर बोझ बढाता, माहौल का यथार्थ वादी चित्रण. कहां था ओस्कर तब? नहीं चाहिये ओस्कर का ठप्पा.जागतिक स्तर के इस फ़िल्म के बाद आज ५० साल से ज़्यादा हो गये, भारत की स्थिती कहीं बदली है? कहां हैं वे सभी ? २६ जनवरी के एक दिन पहले हम अपने आपसे पूछें - जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो आज भी कहां है?

14 comments:

Vikas Gupta said...

Bahut Badiya!

Alpana Verma said...

भारत की नकारात्मक छवि को कैश करना विदेशी क्या देशियों को भी खूब आता है..वह सलाम बाम्बे और वाटर बनने वाली हों या फिर कोई और. इस की विवादस्पद खबरें सुन कर लोग देख रहे हैं यह क्या फ़िल्म को लोकप्रियता रंकिंग में ऊपर नहीं कर रहा है?फ़िल्म बनाने वालों की pocket गरम होगी सो अलग.पहली बात क्यूँ हमारे देश के फ़िल्म वाले बाहर मुल्क में जाकर उनका ठप्पा लगवा कर ही अपनी फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ मनवाना चाहते हैं?क्या हमारे देश के फ़िल्म पुरस्कार बेकार हैं उनका कोई माप दंड नहीं है?अपरोक्ष रूप से बाहर के मुल्क यही चाहते हैं की ऐसी फ़िल्म को पुरस्कार दिया जाए जो भारत की नेगेटिव छवि दिखाए.क्यूँ की वे भी भारत की उन्नत्ति से जलते हैं.

अगर kisi ko कुछ करना है तो क्यूँ आ कर इन slum wale बच्चों और गरीब लाचारों के लिए 'व्यवहार में कुछ करते?

वैसे भी अभी तक भारत को जादू -टोन -snake charmers का देश समझा जाता है.aur chhavi khraab karne par tule hain.
-हिंदुस्तान की छवि बनाने/बिगड़ने में हिन्दुस्तानी टीवी/film भी जिम्मेदार है..

कभी कहीं समाचारों में भारत की उपलब्धियों का ढंग से जिक्र नहीं होता--

जिन्हें हिंद पर नाज है वो कहाँ हैं???

Alpana Verma said...

बहिष्कार करना चाहिये ऐसी फिल्मों का!
एक और ऐसी ही '?? पिंकी '--इस ओस्कर फेस्टिवल में डॉक्युमेंटरी लिस्ट में nominated है--

Sajeev said...

फ़िल्म में निराशा नही है....फ़िल्म आशावाद की कहानी कहती है, मुश्किल हालातों में भी जीने वाले भारतीय लोगों की जीजिविषा की कहानी कहती है, किस देश में एक कॉल सेंटर का कर्मचारी अपने चाय वाले को सीट पर बिठा कर जायेगा...oscar विदेशिओं का फ़िल्म फेयर है....फ़िल्म विदेशी है भले ही वो भारत के सन्दर्भ में बनी हो, तो जाहिर सी बात है वहां के लोगों को इस फ़िल्म में वो नयापन मिला है जो शायद उनके मंहगे मूर्ख्पने वाले सुपर हीरो की कहिन्यों को देख देख कर उन्हें नही मिलता था, हैर्री पॉटर में ऐसा क्या था जो हम सब ने बचपन में daimond कॉमिक्स या अमर चित्रकथा में नही पढ़ा, स्लम डॉग में भी वही सब है जिसे देख हम ८० के दशक में ही ऊब चुके थे, पर नयापन अवश्य है. फिल्मांकन और चुस्त एडिटिंग और संगीत निश्चित ही फ़िल्म के मजबूत तत्व हैं. हमारे यहाँ भी ऐसे बहुत से निर्देशक हैं जिन्होंने सच को सच कह कर ही दिखाया है जैसा की आपने कहा गुरु दत्त साहब और आज भी मधुर भंडारकर....पर दुःख इस बात का है न तो हमारा फ़िल्म फेयर उस गरिमा को पा सका है जो ऑस्कर ने पाया है न ही ऐसी अच्छी फिल्मों की कभी कदर कर पाया है....ऐसे में अगर विदेशी हमारे टलेंट को पहचान पाते हैं तो ये खुशी की ही बात है....व्यक्तिगत तौर पर मैं स्लम डॉग को पथेर पांचाली से उपर रखूँगा...

विष्णु बैरागी said...

आपकी बात सही है। फिल्‍म भले ही हमारी बदनामी कर रही हो लेकिन दिखा तो वही रही है जो हमारे यहां है। हमें फिल्‍म पर आपत्ति है या फिल्‍म में बताई गई स्थितियों के होने पर? फिल्‍म का बहिष्‍कार करना या फिल्‍म की आलोचना करना तो केवल शुतुरमुर्गी आचरण होगा। कोशिश तो यह होनी चाहिए कि ऐसी स्थितियां ही न रहें।
आप पूछ रहे हैं''जिन्‍हें नाज है हिन्‍द पर वो कहां हैं ?' भाई साहब! वे तो बचारे कौम के गम में हुक्‍काम के साथ डिनर कर रहे हैं।

अक्षत विचार said...

गागर में सागर

मोहन वशिष्‍ठ said...

आप सभी को 59वें गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं...

जय हिंद जय भारत

राज भाटिय़ा said...

आपको गणतंत्र दिवस की शुभकमानाऐं.
यह ऑस्कर है कया जिस के पीछे हम ओर हमारे फ़िल्म वाले जीभ लटकाये दुम हिला रहे है, ओर इस के लालच मै देश की हालत दुनिया को दिखा रहे है??
हम ने तो हमेशा यही सुना है की घर मे जेसा भी मिले खाओ, लेकिन बहार वालो को यही बतओ कि हम ने तो खुब मन भर कर खाया, तो क्या ऎसी फ़िल्मे अब देश की गरीबी दुर कर देगी, यानि लोग तरस खा कर हमे खुब भीख देगे.
मै अल्पना जी की बात से सहमत हुं, आओ ओर ऎसी फ़िल्मो का बहिष्कार करे जो हमारे देश की छवि को खराव करती हो, ओर ऎसे नायक, निर्माता का भी बहिष्कार करे जो देश की छवि को बेच कर विदेशियो के हाथो अपनी जेबे भरते है, क्या यह धन इन निर्मातो ने ., कला कारो ने इन गरीबो की भलाई के लिये लगाया, जिन को दिखा कर यह ऑस्कर ऑस्कर चिल्ला रहे है, अगर मे कोई निर्माता होता तो कभी भी ऑस्कर ना लेता ओर अगर मिलता तो उसे ठोकर मारता.
धन्यवाद

अनिल कान्त said...

छा गए गुरु ............


अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

दिलीप कवठेकर said...

आप सबको गणतंत्र के ६० वर्ष में प्रवेश पर ढेरों शुभकामनायें.

इल्म देखने के बाद जब मैं पुणें में अपनी बालिका नूपुर से मिला तो उसने कहा कि फ़िल्म उसनें भी देख ली है, और सबसे अधिक प्रभावित उसे किया फ़िल्म के उस डायलोग नें जिसमें, नायक जमाल पुलिस इंस्पेक्टर से कहता है कि

अगर राम और अल्लाह नहीं होते तो आज मेरी मां ज़िंदा होती .........

मैं सोचता ही रह गया. फ़िर अचानक उसनें मेरी तरफ़ मुड कर कहा- आप लोगों नें हमें ये क्या दे दिया ? ( हमारी पीढी़ नें )

मैं जवाब नही दे पाया. थोडी़ देर की खामोशी के बाद मैने उससे कहा - ठीक है. गलती हुई.अब तुम ठीक कर दो..(याने तुम्हारी पीढी़)

हम दोनों खामोश रहे , और शून्य में घूरते रहे.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

The film is "Slam -Dunk " contender in the Race 4 an Ocsar ...

Sorry to comment in English as I'm
away from my PC ....

Your concerns are Real.

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार
.
गणतंत्र दिवस पर आपको हार्दिक बधाई



द्विजेन्द्र द्विज


www.dwijendradwij.blogspot.com

Smart Indian said...

आज जब हर भारतीय अपने-अपने खेमे में बाँट रहा है, एक निष्पक्ष प्रस्तुति पढ़कर अच्छा लगा. यही सवाल मेरे मन में अक्सर उठता है - जिन्हें नाज़ है हिंद पर वह कहाँ हैं? फ़िर ध्यान आता है - वह हमीं तो हैं - जब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे, राष्ट्र पर ऐसी फिल्में बनायी जाती रहेंगी क्योंकि हम मानें या ना मानें, यह भी एक सच्चाई है, भले ही भयावह कितनी भी हो.

Smart Indian said...

नूपुर बिटिया ने बिल्कुल ठीक कहा है. उसे मेरी ओर से बहुत आशीष!

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