Saturday, January 31, 2009

तुझमें रब दिखता है, यारा मैं क्या करूं .....?

जीवन में कई लम्हे आते है, छोटे छोटे से, मुख्तसर से, मगर दिल पर बडा़ प्रभाव छोड़ जाते है.

इतने दिनों के बाद इंदौर पहुंचा . पुणे में बिटिया नुपूर के साथ तीन दिन की छुट्टीयां बिताई. सोचा था कि कहीं पिकनिक पर जायें. मगर मेरी तमन्ना थी कि पुणे से बेहद नज़दीक ही है सिंहगढ़ का वह ऐतिहासिक किला देखा जाये ,जिसे शिवाजी महाराज नें अपनी कर्मभूमी बनाया था. इतिहास से सिर्फ़ बोध लेने का ही उद्येश्य नही है, वरना सबक के साथ नई पीढी़ को भी हमारे गौरवशाली अतीत और शौर्यगाथा से अवगत कराना ज़रूरी है, ताकि हमारी नई पौध का एक राष्ट्रीय चरित्र निर्मित हो सके, जिसमें हमारे हकों के अलावा कर्तव्यों का भी मानस पर गहरा अंकन हों, और हमारे दैनंदिन कार्यों में वह स्वचलित सिस्टम की तरह परिलक्षित हो.

हम दोनों निकल तो गये, साथ में छोटी बहन प्रतिभा का पुत्र दुष्यंत, बडे़ भाई साहब विजय भैया का पुत्र सिद्धार्थ और उसकी नई वधू वंदना, और मेरे मित्र अविनाश का पूर्ण परिवार .मगर संयोग से सिंहगढ़ के लिये ऊपर जाने वाली सड़क में जाम लगने के कारण हम नीचे ही अटक गये( २५ जनवरी की छुट्टी में सभी तो कहीं कहीं निकले थे)

अब सोचा क्या करे?

तो देखा पास ही एक छोटी सी झील दिखी. दरसल वह एक बांध था, और शायद महान प्रतापी और शूर बाजीराव पेशवा नें मस्तानी के लिये बनवाया था.(Not Sure) हमनें सोचा चलो यहीं चलते है, और हम उस झील की किनारे से बनी पगदंडी से काफ़ी आगे निकल गये, और निसर्ग के उस हसीन नज़ारे का आनंद उठाने लगे.



शहर के भीड भरे , कोलाहल भरे माहौल का मखौल उडाता वह मंज़र ,शांत शांत बयार के पृष्ठभूमी में चिडियाओं की चहचहाट (मराठी में कहते है-किलबिल)आंखो के ज़रिये मन के किसी कोने में छुपा लिया.

लौटते समय पास ही के गांव से गुज़रने की सोची, क्योंकि पेडों के झुरमुट में से एक छोटे मंदिर का शीर्ष मुकुट दिख रहा था.(कळस)वह एक विठ्ठल मंदिर था और बहुत छोटे से मंदिर में विठ्ठलजी की सुंदर सी मूर्ती विराजमान थी. दोपहर का समय था, वहां सुस्ताने बैठ गये, लगा कुछ भजन हो जाये तो जैसे ही एक भजन शुरु किया . गांव वालों ने कहीं से ढोलक , छोटा तानपूरा और मंजिरे लाकर दे दिये, और बस हम सभी भक्तिभाव की गंगा में उतर कर स्नान करने लगे. दुष्यंत नें ढोलक सम्हाली(पहली बार) और बाकी हमने भजन गाकर भगवान के दरबार में अपनी हाज़िरी दी.



इन्दौर आया तो पत्नी डॊ. नेहा नें कहा कि आपके नहीं होने से ये छुट्टीयां नीरस रहीं, तो मैंने कहा कि मैं तो हमेशा ही टूर पर रहता हूं . मेरे उपस्थिती की , अभाव की तो आदत ही पड़ गयी होगी.( दूसरी बिटिया मानसी जिसकी इंजिनीयरिंग की सेमिस्टर परिक्षा होने की वजह से हम सभी नहीं जा पाये थे.)

बात आई गई नही हुई. कल रात सोचा कि कोई फ़िल्म ही देख आयें. स्लम डॊग भी देख ही ली थी, तो पत्नी बोली, मुझे रब नें बना दी जोडी फ़िर से देखनी है. तो क्या था एक बार हम उस फ़िल्म को देखनें चले गये ,जिसे पहले भी देख चुके थे.

फ़िल्म के आखरी भाग नें मुझे झकजोर दिया, जिसमें तानियाजी को पति में रब दिखाई दिया. नेहा बोली ये संभव है. मेरा मन संभावना तलाश करने की जुगत में मानसिक वल्गनायें करने लगा. हम दोनों पढे़लिखे ,तर्क के पतीली में प्रेम की वह बघार नहीं दे पाये शायद.

मगर अपने लंबे वैवाहिक जीवन में आई परेशानीयों और अभावों के बावजूद सकारात्मक स्नेह और प्रेम बंधन के भीगे भीगे फ़ेविकोल के जोड़ का जो अहसास हमें हुआ, वह काफ़ी था आगे के कुछ और साल हाथ में हाथ डाले रिश्तों के झूले में पवन की बहार तले झूलते ,जीवन के यथार्थ के थपेडे सहते हुए हंसी खुशी हसीन पल गुज़ारने के लिये.

आज सुबह सुबह जब मैं नेहा को भोपाल के लिये इंटरसिटी एक्सप्रेस में स्टेशन छोड आया तो नेहा नें मुझे एक ही कार्य सौंपा- मेरे ९ वर्षीय बेटे अमोघ को तैय्यार कर स्कूल में पहुंचाने का काम. राजीव गांधी तकनीकी विश्वविद्यालय के बोर्ड ऒफ़ स्टडीज़ की मीटींग के लिये मेरी प्रोफ़ेसर पत्नी को सुबह जाकर रात को वापिस आना था.

जैसे तैसे अमोघ को दूध नाश्ता करवा कर , बिटिया मानसी द्वारा मेनेज करवा कर अभी अभी ये पोस्ट लिखने बैठा तो आंखों के सामने सभी गुज़रे साल घूम गये.


पत्नी के एक दिन नहीं रहने का अहसास पहली बार हुआ( रात को देखी फ़िल्म का असर था शायद). हर व्यक्ति वास्तव में विवाह के पहले अपनीं मां द्वारा और बाद में अपनी पत्नी द्वारा मेनेज होता चला आया है. अपन तो घुमक्कड दरवेश. फ़कीरी मन को लिये दुनिया में पुरुषार्थ दिखाने निकल पडे़ थे और पत्नी अपनी कामकाजी जिम्मेदारीयों के बावजूद ,मेरी, मेरे बच्चों की और मेरे ८६ वर्षीय पिताजी की देखभाल करते करते कब इतनी ऊंचाईयों पर पहूंच गई इसका बोध अभी अभी जाकर हुआ.



मेरे मन में वह विठ्ठल की मूर्ती की धूंधली सी छवि फ़िर से स्पष्ट होती चली गई, और मैं कह उठा-


तुझमें रब दिखता है, यारा मैं क्या करूं ...... ?

Wednesday, January 28, 2009

स्वाधीन भारत का संविधान...

२६ जनवरी आई और चली गयी.२७ जनवरी को अखबारों को छुट्टी थी इसलिये आज २८ जनवरी को पूरे अखबार साठवें गणतंत्र दिवस की बासी खबरें लेकर हाज़िर हुए. किस नेता नें क्या कहा, किस स्कूल में बच्चों नें क्या किया, परेड में क्या हुआ आदि आदि.

आज से कई सालों पहले सन १९५० में जब स्वाधीन भारत का यह संविधान बना तब हम भारतीयों नें अच्छे नागरिक के कर्तव्यों को समझा और उसपर अमल करने की कसम खाई. आज इतने सालों बाद, किसी को भी ये याद नहीं है, मगर अपने मूल अधिकारों से भी आगे बढ कर अपने अपने निजी , राजनैतिक या जातिगत स्वार्थों के लिये लढ़ना, हडताल करना , मारपीट और दंगे करना, आदि याद रहा.



मेरी आप सब से इल्तेजा है, कि अपने अपने गरेबां में झांक कर क्या देखना गंवारा करेंगे, कि हम इस संविधान की मूल तत्वों से कितने प्रामाणिक है? मेरा मानना है, कि जो भी व्यक्ति इस ब्लोग जगत में है, वह प्रामाणिक तो ज़रूर है, इसीलिये ये गुस्ताखी कर रहा हूं.वह इसलिये कि जब भी कोई लेखक, या कवि या संगीत का तान सेन या कान सेन है,उसका ज़मीर, अखलाक़ , या morality का अपना एक उच्च स्तर होना लाज़मी है, या यूं कहें -prerequisite है.

एक बढिया quote है जो यहां प्रासंगीक है-

The measure of Man's Real Character is what he would Do,if he knew he would never be found out........

Sunday, January 25, 2009

जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है..


ये है मुंबई मेरी जान...

पिछले दो तीन दिनों से मुंबई में था, और काम की आपाधापी में चाह कर भी लिख नही पाया.

मुंबई में एक खबर बडी जोरदार ढंग से उछल रही है. Slumdog Millionaaire को ओस्कर के लिये नामांकित किया गया और हमारे भारतवासी बल्ले बल्ले हो गये. मानाकि फ़िल्म बनाने वाले फ़िरंगी हैं, बाकि तो सभी आपला माणूस हैं , ( याने खालिस हिन्दुस्तानी).

बात मे दम तो है. रहमान , गुलज़ार और फ़िल्म का विषय, एक स्लम के छोकरे का करोडपती बनना बावजूद इसके कि यहां सिर्फ़ गरीबी ही नही, भूकमरी के साथ गुनाहों का दलदल, धार्मिक दंगे, Child prostitution, और सबसे अधिक परेशान करने वाली बात याने कि भारत की छवि का घिघौना चित्रण, यथार्थवादी चित्रण, जिसमें टूरिस्ट के साथ छलावा और धोखा शामिल है.

सोचा फ़िल्म देख ही आये, तो देख ली.

सबसे पहले तो वह चित्रण जिसमें फ़िल्म सभी फ़ेमों में डार्क कलर्स में और मूल रंगों में भडकिली और कंट्रास्ट लिये दृष्य. अमूमन, ज़िन्दगी के सभी रंग, ग्रे शेड लिये, कहीं पेस्टल रंगों में, कहीं soothing तो कहीं चटकिले होते है. आजकल डिजिटल शूट की वजह से Post production में रंगों को थीम की तरह उभारने का चलन बढ गया है. यही वजह है, कि इतनी अच्छी फ़िल्म देखने के बाद भी मन में कडवाहट और मायूसी भर गयी. इस विवाद में ना जाकर कि क्या ये सही है, हम अपने आप से पूछें कि क्या ये सत्य भयावह नहीं , और हमारे कर्णधारों ने, राजनीति और सामाजिक नेताओं ने इस देश को दुहा है, निचोडा है, अपने स्वार्थ के लिये.और हम आम नागरिक, दूसरों की तरफ़ मूंह कर जेब में हाथ डालकर राह देख रहे हैं कि कोई और आकर जादु की छडी से स्थिती बदल देगा.


मगर रात को टीव्ही पर गुरुदत्त की प्यासा का गीत देखा- जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो कहां है..तो एक बात पर मन सोच में पड गया.

१९५७ की फ़िल्म में, Black & White में भी सिर्फ़ ग्रे शेड में बदनाम बस्ती का वह घुटन भरा , मन पर बोझ बढाता, माहौल का यथार्थ वादी चित्रण. कहां था ओस्कर तब? नहीं चाहिये ओस्कर का ठप्पा.जागतिक स्तर के इस फ़िल्म के बाद आज ५० साल से ज़्यादा हो गये, भारत की स्थिती कहीं बदली है? कहां हैं वे सभी ? २६ जनवरी के एक दिन पहले हम अपने आपसे पूछें - जिन्हे नाज़ है हिंद पर वो आज भी कहां है?

Friday, January 16, 2009

फ़िर वही शाम वही गम वही तनहाई है..

जॊर्ज बुश (छोटे) अब जा रहे है, बडी़ दुख की बात है.



वे वैश्विक राजनीति के लालु प्रसाद यादव थे. दादागिरी में वे कही भी मायावती से कम नही पडते थे.उनकी वजह से ही चौधराहट का ग्लोबलाईज़ेशन हुआ. हम सब भारतीय उनके जाने के बाद बडे़ ही मायूस हो जायेंगे , कि फ़िर वही अमरसिंग लल्ला , मुलायम दद्दु , शिवराज ताऊ पातिल ( पाटिल की कडक़ इस्त्री ढीली हो गई तो पाटिल का पातिल हो गया, और फ़िर हालत और पतली हो गई है जब से पाताल में पहुंच गये है)..

मायावती का जन्म दिन भी निपट गया. लोग भी बडे वो है . अगला परधान मन्तरी बनने के सपनें देख रिया है, और आप है, उस इंजिनीयर को पकड के बईठे है .बहुत नाइन्साफ़ी है. जरा रुको ,परधान मन्तरी बनने दो, मध्य प्रदेश और सारे देश का भारतीयकरण हो जायेगा , और सारे देश के इंजिनीयर हमारे ही लिये केक काटेंगे.शुक्र है कि मैंने हाऊसिंग बोर्ड की नौकरी शुरुआती दिनों में ही छोड दी थी, वरना मेरी ऊंगलिया भी सडक बनाते बनाते ( याने कुछ और बनाते बनाते ) इतनी मोटी हो जाती कि ये ब्लॊग भी नही टाईप कर पाता.

बात तो बुश बाबुजी की हो रही थी. पिछले दिनों में जो जूतम पैजार हुई थी, उसके बाद सी आई ए नें यु एस ए में जूतों का इम्पोर्ट बंद करवा दिया.हमारे यहां भी जूतों का स्टॊक बजार से मंदी के बावजूद गायब हो गया. पता नही, ऊपर उल्लेखित नामों ने पहले ही रिस्क कवर कर ली होगी.


बराक ओसामा ( माफ़ करें, की बोर्ड फ़िसल गया, बराक ओबामा) आवेंगे और फ़िर बहेगी नई हवा, पुराने प्रदूषण को दूर किया जायेगा, नये डीयोडोरेंट के स्प्रे से. आप सिरदर्द के लिये बाम लगाते है, दर्द को भगाने के लिये नही, वर्ना उससे बडा़ दर्द देकर उसे भुलाने के लिये.ओबामा का दिया दर्द भुलाने के लिये ओबामा आवेगा क्या?




किसी ने ठीक ही कहा है कि - अगर मर के भी चैन ना पाये तो कहां जायेंगे?

शू.... चुप रहिये, हम गाना गा रहे है :-

फ़िर वही शाम वही गम वही तनहाई है,

और आप ये कार्टून देखिये ..(अपने ताऊ माफ़ करें शिवराज को ताऊ बोल दिया)

Monday, January 12, 2009

जागो सोने वालों, सुनों मेरी कहानी..



आज महान साधक, आध्यात्म के महासागर , युवा जागृति के प्रणेता स्वामी विवेकानंद की जन्म तिथी है.

स्वामी विवेकानंद नें मेरे शैशव काल से मन पर प्रभाव करना प्रारंभ किया था, मगर अनजाने में मैं उनके गुरु स्वामी श्री रामकृष्ण परमहंस से ज़्यादा प्रभावित होता चला गया, क्योंकि जिस आध्यात्म की राह पर मैं चल रहा था, उसमें राजयोग या ग्यानयोग की जगह मेरे अंतरमन की घड़न भक्तियोग के सिद्धांतों के अनुरूप हो चुकी थी, जो बात मुझे काफ़ी बाद में मालूम पडी़.

इसी तारतम्य में, मेरे हरदिल अज़ीज़ मित्र जिसका ज़िक्र मैनें पिछली पोस्ट में किया था, स्वामी जी के पदचिंहों पर इस राह पर आगे बढ गया, जो अभी तक अविवाहित रहा है.मेरे और उसमें इस बात पर भी बेहस होती रहती थी कि गुरु शिष्यों में कौन श्रेष्ठ है. मित्र कहता था कि आज स्वामी जी की ज़रूरत है इस राष्ट्र को, समाज को, युवा पीढी़ को ऐसे ही मार्ग दर्शक की ज़रूरत है.इसलिये वे ज़्यादा श्रेष्ठ है. मेरा मित्र तार्किक और बौद्धिक सोच पर काफ़ी अधिकार रखता था, अतः वह अध्यात्म को लॊजिक के तड़के लगाने के बाद ही स्वीकार करता था. जबकि मैं परिपक्वता की राह पर तर्क के झूलें में गुलांटे मारते हुए चलने की बजाय सीधा अंतिम सत्य पर पहूंचना चाहता था.

इसलिये मेरा मानना था कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस का सरल और तर्क से परे आध्यात्मिक ग्यान का मार्ग ही उस समय से आज तक सर्वमान्य और अनुसरण करने योग्य है.

मगर आज की पीढी़ का जो चरित्र है, वह अत्याधुनिक वैग्यानिक गेजेट्स और बौद्धिक कसरतों पर पला हुआ है, और हर चुनौती को आज के बदलते हुए मूल्यों की कसौटी पर तौलता है, जिसमें राष्ट्र, समाज या परिवार से अधिक मात्र स्वयं पर केन्द्रित व्यवस्था है.

इसीलिये , जब आज के परिप्येक्ष में भारत देश के और गंगा जमुनी संस्कृती के स्वस्थ समाज के चरित्र निर्माण के महत्वपूर्ण कार्य के लिये हमें स्वामी विवेकानंदजी की ज़रूरत है,जो युवा पीढी़ को सही मूल्य आधारित दर्शन और मार्ग दर्शन दे सके. हमारे युवाओं को भी चाहिये कि श्री विवेकानंद जी की जीवनी से, और उनके अध्यात्म दर्शन से प्रेरणा लें, और आत्म चरित्र निर्माण और राष्ट्र चरित्र निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाये.

आज जब मैं ये मान रहा हूं तो वह मेरा मित्र ही आज सक्रिय नहीं है, मेरी जीवन की मुख्य धारा में.

वैसे, इससे भी आगे जा कर मैं ये कहना चाहूंगा कि हमें आज स्वामी जी की बेहद ज़रूरत तो है ही, मगर उससे भी अधिक ज़रूरत है स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी की , जो एक नहीं हज़ारों युवा विवेकानंद निर्माण कर सकें.

स्वामी विवेकानंद के शिकागो व्याख्यान के बारे में यहां देखे...




भारत के भविष्य के बारे में स्वामीजी के विचार..

Tuesday, January 6, 2009

देखी ज़माने की यारी, बिछडे़ सभी बारी बारी...

नये साल की शुरुआत मैं एक ऐसे पोस्ट से करना चाहता था, जिसे सिंहावलोकन या Restrospect कहा जा सकता है. पिछले ६ महिनों से जब से यहां आप से मुखातिब हो रहा हूं , कई उतार चढाव देखे, महसूस किये,अंतरंग के भावनात्मक पहलूओं को स्पर्श किया, कुछ कड़वे अनुभव लिये, कुछ कडवा बोल लिख भी दिया होगा शायद..

पर इस साल के resolution में मानस के अमोघ बोल पर नियमित लिखने का प्रण ज़रूर लिया है, और छोटे छोटे मगर गंभीर विषयों पर कभी मन कभी उद्वेलित हो लिखने को करे तो लिखा करूंगा, क्योंकि पोस्ट छोटी या बडी़ ना होकर उथली या गहरी होती है, ये समझ आ गयी है.

वैसे, जब पीछे मुड कर देखा तो पाया,कि इस साल कुछ दोस्त गंवाये , कुछ नये बनाये ( ब्लोग जगत में भी ). जो मिले वे स्वागत योग्य है ही, मगर जो खो दिये वो हानि बहुत बडी है, ये मन स्वीकार करता है.

friends Pictures, Images and Photos

मित्रता में एक बात मैं मानता हूं , कि मेरे लिये मैत्री कोई बेलेंस शीट नहीं है, कि जिसमें डबल एंट्री हो.मैंने अपने बुक्स में एंट्री कर ली तो वो अकाउंट कायम हो गया. ये अलग बात है कि मित्र अगर मैत्री के भावबंधन से छूटना चाहता हो तो वो भले ही अपने बुक्स से एंट्री डिलीट कर दे, मेरे यहां तो वह डिलीट हो ही नही सकती.

अब ये बात ज़रूर तर्क से परे नहीं कि उस मित्र नें अगर यूं सोचा तो शायद उसका कोई कारण होगा, और उस कारण के पीछे अधिकतर उसका आपकी किसी बात पर या किसी कहे पर या किसी बर्ताव से हर्ट हो जाना होगा.उचित भी हो सकता है, उसके नज़रिये से, क्योंकि जो उसे दुखी करे उससे नाता रखना ही क्यों.अब जब यह तय पाया ही है , तो बहानों की मकड़जाल बुनना भी आसान है.

मगर मेरा नज़रिया वैसा कभी नही बन पाया ,और मैं हमेशा सकारात्मकता से उसकी इस हरकत में मजबूरी ढूंढता था और इसीलिये मेहदी हसन साहब की एक गज़ल हमेशा याद आती रहती है-

हमको आये नही जीने के करीने यारों,
वर्ना उस शोख़ पे क्यूं जान कर मरते यारों..


अब जब इतनें ज़ख्म़ खा लिये कि आदत सी हो गई. ज़ख्मों को वक्त के लेप से, भावनाओं की फ़ूंक से भरने का जतन करते करते खपली आ गयी तो मान लिया कि ज़ख्म़ भर गया है.मगर टीस तो गहराई में मौजूद है,और खुदा ना खास्ता अगर कभी ये खपली उखड जाये तो?

आज का दिन ज़रा खास यूं है,कि आज भी एक पुराना ज़ख्म खुल गया है.

बरसों पहले मेरे एक मित्र नें अचानक मुझ से नाता तोडा़ था .एक तरफा . बीच में उसकी कोई अच्छी बुरी खबर नहीं आयी, और ना ही कभी ये भी बताया कि क्यों छोडा.

और आज कई बरसों बाद उसका SMS आया, नव वर्ष की बधाई का.साथ में ये स्वीकारोक्ति भी कि दोस्ती तोड़ कर पछताया है वो. और छोडने का कारण भी आध्यात्म था, या छद्म आध्यात्म का आवरण था.

आज मेरी बेलेंस शीट में उसका अकाउंट अभी भी खुला है, यह उसे भी खूब पता है. मगर उसे समझने में इतने साल लग गये.अहं के टकराव की व्यर्थता , या तुष्टिकरण के अभाव से उपजे वितुष्ट की वह बेवजह भावनाएं, मित्रता के अदृश्य बंधनों को क्यूं खोल देती है, अभी तक समझ नहीं पाया.

आज याद आ गई वह कविता जो जोग लिखी संजय पटेल की पर संजय भाई मित्रता दिवस पर लिख गये हैं -

दोस्त ऐसा
जिसे कहो कुछ नहीं
समझ जाए

लिखो कुछ नहीं
पढ़ ले

आवाज़ दो
उसके पहले सुन ले

मुझे गुण-दोष सहित
स्वीकार करे

ग़र चोट लगे उसे
दर्द हो मुझे

कमाल मैं करूँ
गर्व हो उसे

अवसाद से उबार दे
स्नेह दे , सत्कार दे
आलोचना का अधिकार दे
रिश्तों को विस्तार दे

दु:ख में पीछे खड़ा नज़र आए
सुख का सारथी बन जाए

सिर्फ़ एक दिन फ़्रेंड न रहे
दिन-रात प्रति पल
धड़कता रहे सीने में

हैसियत और प्रतिष्ठा से सोचे हटकर
वही मित्र मुझे लगे प्रियकर.


मैं ऐसा मित्र बनना चाहता था, जतन भी कर यही पा भी लिया था और तसदीक भी कर ली थी अपने अंतर्मन से.मगर क्या खूब होता कि वह मित्र भी यही सोचता. छद्म आध्यात्म में उसने भी यही कहा कि यूं करना चाहिये , वो करना चाहिये .बाबाओं , और बापूओं की तरह उपदेशों में व्यस्त रहा, Holier than thou का मुखौटा पहनें .

मैं आतुर हूं उस मित्र से मिलनें जो अब इतने सावन गुज़रे फ़िर मिलेगा , या शायद नहीं भी मिले क्योंकि ये SMS भी उसनें मेरी बहन के फोन पर से रूट किया , उसे ये फोन नं. ना देने की गुज़ारीश कर. शायद मुझ से मिलने का साहस नहीं जुटा पा रहा होगा, या फिर कोई अहंकार की गांठ अभी भी कस के बांध रखी होगी .और अब मिलेगा तो क्या होगा? क्या मुझमें भी वही स्वच्छ सा , निर्मल सा, मित्र अभी बचा है? या वक्त के थपेडे ने, या इंद्रियों के अनियंत्रित घोडों पर सवारी करते करते, मैला हो गया है? अब कौन सा वाशिंग पावडर लाया जाये?

बहुत साल हुए,मैं , ये मित्र, और बहन तीनों किशोरावस्था में आध्यात्म की प्रेममयी दुनिया में एक साथ विचरते थे, स्त्री या पुरुष की संकल्पना से परे. आज मैं और मेरी बहन इस संसाररूपी भवसागर में अपनी गृहस्थी की नांव डाले सुख की अपनी अपनी अवधारणा पर कर्मयोग के रास्ते पर संतुष्ट चल रहे है.और मेरा वह मित्र, अपनी मर्ज़ी से अविवाहित रह कर भी नकारात्मकता के भंवर में पता नहीं अभी भी गोते खा रहा है.

सौ बातें उसनें कही थी आध्यात्म में आत्मा की शुद्धी के लिये, मगर एक सौ बातों की एक बात मैंने कही - Don't keep expectation. आइंस्टाईन का ऊर्जा या एनर्जी का यह सिद्धान्त तो पढा ही होगा आपने.

E = m C Square

E = Energy
m = Mass
c = Velocity of Light


तो जनाब, मास को याने जडत्व को शून्य कर दो , तो प्रकाश की गति के वर्ग को शून्य से गुणा करने पर आयेगा Infinity, याने अनंत...



अहम , Ego, भौतिक जड़त्व की चाह को शून्यत्व की ओर ले जाना ही लक्ष्य है, कर्म करते हुए, भक्ति करते हुए. अनंत की ओर , चमत्कार की ओर यही सत्य ले जायेगा .

चांद और सितारों की तमन्ना नहीं,
रातों की स्याही या उजालों के इण्द्रधनुष की परवाह नही,
जीवन और मृत्यु का अंतर का बोध नहीं,
क्या यही मुक्ति है?,
शायद..
मुझे तो मुक्ति की भी दरकार नहीं...

लिखना या आपको बताना कितना भला लगता है, नही?

चलिये छोडिये , संवेदनाओं के परे भी तो दुनिया होगी.ज़ख्मों की फ़िर से मरहम पट्टी भी तो करनी है.भरम बनाये रखना है.

मीरा नें तो कहा ही है,

जो मैं ऐसा जानती, प्रेम किये दुख होय,
नगर ढिंढोरा पीटती, प्रेम ना करिये कोय..

Thursday, January 1, 2009

नव वर्ष की शुभ कामनायें


आप सभी मित्रों...,
दर्दे दिल के मालिकों,
मुझ से भावनाओं की डोर से बंधे मेरे देशवासियों,

आपको और आपके पूरे परिवार को, आपके आस पडोस के आपके हमवतन, हमखयाल दोस्तों को, आपके बिन बुलाये, बिन चाहे दुश्मनों को यह साल खुशनुमा, प्रसन्नता से और उमंग से भरा हुआ और समृद्धी का साल हो ये उस महामहिम ईश्वर, खुदा , गॊड़ और वाहे गुरु से विनय से और बडी़ ही विनम्रता से प्रार्थना....

आपके दिलों में खुशी और शांति कायम रहे..
भगवान द्वारा निर्मित इस प्रकृति के विविध रंगों से भरी सुन्दरता का आनंद लेने का मौका मिले..
बुद्धिमानी और विवेक से हम प्रेम को बाटें, उदारता से मन की सांकलों को , बंधनों को तोड कर विश्वशांति की मंगलकामना करें..

तो फिर कोई दुश्मन भी क्यों रहे?

अलविदा २००८ और स्वागत २००९.

Work like you don't need the money.

Love like you've never been hurt.

Dance like nobody's watching.

Sing like nobody's listening.

Live like it's Heaven on Earth



मेरा यह वादा कि यथा शक्ति आपसे लगी इस लौ को बुझनें नहीं दूंगा, और मानस के अमोघ शब्दों के संकलन को, दिलीप के दिल से सुरीले संगीत स्वरों को आप तक निरंतर पहुंचता रहूंगा.

अगली कडी़- सिंहांवलोकन
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