Thursday, September 30, 2010

मंदिर या मस्ज़िद बनाम देश की तरक्की?....

आदाब अर्ज़ है.

आज छः महिने के बाद इस ब्लोग पर रू ब रू हो रहा हूं.

पिछले दिनों कैरो मे था और आज ही अपने वतन लौटा हूं. वतन लौटने की खुशी के साथ एक मसला और दरपेश आया तब से जब मुंबई में विमान उतरा.आज आज़ादी के बाद का सबसे अहम मुद्दे पर सारे देश में भय, संदेह और घबराहट का वातावरण था.बाबरी ढांचा और रामलल्ला की भूमी से संभंधित जितने भी मसाईलें थे, वे मिसाईल बन कर आम भारतीय के दिलो दिमाग में सुनामी बन के कहर बरपा रहा था.

एयरपोर्ट की सिक्युरिटी से लेकर, सडकों पर पुलिस की जगह जगह मौजूदगी का दृष्य़ मुंबई और इंदौर दोनो जगह था.साडे तीन बजे से सडकें सुनसान हो गयी.किसी अनजान घटना की आशंका नें पूरे मुल्क के सभी नागरिकों को अपने गिरफ़्त में ले लिया था.

जब कल कैरो से रात को निकला था तो मेरे साईट का मुख्य इंजिनीयर वायेल मुझ से पूछ बैठा कि ये क्या बेवकूफ़ी है? क्या आपके यहां हिंदू और मुसलमानों के सामने क्या अब यही इश्य़ु रह गया है?क्या धर्म बडा है या देश? उससे फ़िर एक बडी बेहस सी चल पडी और उसनें मुस्लिम आतंकवाद पर एक अच्छा खासा लेक्चर दे दिया जिसे मैं अलग से दो तीन दिन में आप से शेयर करूंगा.

चलो , अब जब Cat is Out of Bag, मैं सोचता हूं बीच का जो फ़ैसला हुआ है, वह किसी एकतरफ़ा फ़ैसले से तो बेहतर ही है. चलो कहीं बहस या सिलसिलेवार वार्ता की गुंजाईश तो रहेगी. अभी आप मेडिया के हर न्युज़ चेनल को देखने जायेंगे तो पायेंगे की हर जगह राजनीतिक और धार्मिक नेताओं में शाब्दिक फ़्री स्टाईल कुश्तीयां हो रहीं हैं, और एंकर उन्हे ऐसे लढा रहे हैं जैसे मुर्गों की लढाई हो.



मेरा १० वर्ष का बेटा अमोघ भी काफ़ी चिंतित था. फ़ैसले से पहले उसने कह दिया कि पापा, हमारे देश में पहले से ही इतने मंदिर हैं ,मस्ज़िद हैं, अगर एक नही बनेगा तो क्या हो जायेगा? मैं चौंक पडा,कि क्या यह सोच नयी पीढी के सभी बच्चों की होगी- क्या हिंदु क्या मुसलमान?

इसलिये मैं तो अब यही मानता हूं कि दोनॊं पक्ष सुप्रीम कोर्ट में जायें. वहां वकीलों की जूतमपैजार २० साल तक चलती रहे, ताकि हम अपने देश के निर्माण में अब और ज़्यादा समय इन बातों में व्यर्थ ना करें.और २० साल के बाद पूरी एक पीढी बदल चुकी होगी. शायद उसे इस मुद्दे में निसंदेह कोई दिलचस्पी नही होगी.धर्म नितांत निजी मामला रहेगा और इन्शा अल्लाह भारत इस पूरे जगत में एक बेहद ही ऊंचा स्थान प्राप्त कर चुका होगा....

आमीन....

मैं तो जनाब मेंहंदी हसन खां साहब की यह मौजूं गज़ल सुनने जा रहा हूं..(मेरे देश के लिये)

खुदा करे के मुहब्बत में ये मकाम आये,
किसी का नाम लूं लब पे तुम्हारा नाम आये.....

अभे चलते चलते एक और कार्टून (लहरी) आया है, मेरे अनुज मित्र संजय पटेल की ओर से>>>>

Monday, March 29, 2010

मौत लपेटी हुई कविता....हिस्सा हिलाल -एक साहसी कवियत्री.


महिलाओं की स्थिती पर हम सभी बातें कर रहे थे, और मेरी पिछली पोस्ट पर मैने कुछ लिखा भी था, कुछ एकेडेमिक ,कुछ व्यक्तिगत. साथ में ही एक और परिचित महिला की हम बातें करने जा रहे थे.

मगर अभी रविवार को मैने कहीं कुछ पढा और साथ ही नेट पर जाकर कुछ और जानकारी ली और एक साहसी महिला की कहानी सामने आई, जिसका नाम है हिस्सा हिलाल.

हिस्सा हिलाल अमीरात में रहने वाली एक कवियत्री है, जिसनें अभी अभी पिछले दिनों संयुक्त अरब अमीरात में अबु धाबी में चल रहे एक रियलिटी शो " Poets of Millions " में भाग लिया और अपने कविता की साहसी, बोल्ड एवम निर्भय अभिव्यक्ति से ना केवल सेमी फ़ाईनल में जगह बनाई, बल्कि दुनिया की लाखों महिलाओं और पुरुषों को पूरा झंझोडा़ , और नेट्दुनिया में एक तहलका ही मचा दिया.

अमेरिकन आईडल की तर्ज़ पर होने वाले इस रेयलिटी शो में संगीत या गानें की जगह अरबी, बदायुनी जीवनशैली, इतिहास,और संस्कृती पर आधारित काव्य पठन होता है.जिस तरह अमेरिका में रॊक स्टार को जैसी लोकप्रियता मिलती है, वैसी ही अरब दुनिया में कवि या शायरों को मिलती है.

इस स्पर्धा में ये नियम है कि हर शायर को अपनी लिखी हुई शायरी ही पेश करनी होगी.प्रतिभागी का आवाज़, शायरी पेश करने का मुख्तलिफ़ अंदाज़, और अश’आर की अदबी गहराई इस पर मार्क्स मिलते हैं.

इसी प्रतियोगिता के सेमी फ़ाईनल्स में एक महिला को स्टेज पर बुलाया गया, जिसनें सर से पैर तक काला नकाब पेहन रखा था.उसके ढके हुए चेहरे पर नकाब की झिरी से दो शक्तिशाली आंखे ही दिख रही थी, और उसका स्पष्ट , निडर और गरजता आवाज़ जब कविता पाठ करने लगा तो वहां उपस्थित दर्शकों की सैकडों आंखें आश्चर्य और विस्मयता से फ़टी की फ़टी रह गयी.सिर से पैर तक काले कपडे में ढकी हुई इस महिला नें बुर्के की ओट से कठोर प्रतिबंध और फ़तवे लगाने वाली मुल्ला मौलवीयों के कपडे उतारना जो शुरु किये,उससे सारे यू ए ई और संसार में ये संदेश गया कि अरब देश की एक महिला मुस्लिम कवियत्री मौत से बिना डरे अपने शब्दों का हथियार लिये एक जेहाद का प्रण ले लिया है, या यूं कहें , विद्रोह का बिगुल बजा दिया है.

जैसे जैसे उसके पैने शब्द धर्म सत्ता के मद में अंधे ठेकेदारों ,तुगलकी फ़तवे ज़ारी करने वालों,आम आदमी का धर्म के नाम पर अत्याचार करने वालों के लिये कविता की नर्म नाज़ूक और मखमली पैरहन लिये माध्यम से दुनिया में पहुंचे तो अधिकतर महिलाओं का उसे साथ मिला,जैसे उनके मन की भावनाओं की ही वह अभिव्यक्ति थी.

ज़रा देखें -


फ़तवों की आंखों में दिखता है मुझे सैतान,

जो अनुमति को बदल देता है प्रतिबंध में,

एक हैवान, जो सत्य के चेहरे से बुर्का फ़ाडकर अंधेरे में छुप जाता है,

ज़हरीली ,धहकती आवाज़ लिये, क्रूर और अंधा,

कमरबंद से कपडे को पकडने जैसा उसने मृत्यु का परिधान पहन रहा था.....

ये मौत के पैरहन लिये आवाज़ याने आत्मघाती आतंकवादी.


मगर साथ ही कट्टर, धर्मांध व्यक्तियों को ये बात रास नहीं आयी. कई वेबसाईट्स पर हिस्सा को मार डालने की भी धमकीयां दी गयी.मगर हिस्सा नहीं डगमगाई. उसने कहा- मेरी कविता हमेशा ही रही है. धर्म और संस्कृति के नाम पर अनगिनत अरब महिलाओं की आवाज़ दबाने वाली मानसिकता के विरोध में ये मेरी छोटी सी कोशिश है.

कहने की ज़रूरत नहीं कि कि उस शो में निर्णायकों नें हिस्सा के जलते हुए शब्दों और मिले हुए उत्साहपूर्ण प्रतिसाद को देखते हुए उसे फ़ाईनल में पहुंचा दिया है.

फ़ाईनल ३१ मार्च को याने कल होगा. देखते हैं कल क्या होगा? शायद अल्पना जी यू ए ई से हमें इस शो का आंखो देखा हाल सुनवायेंगी, १ अप्रिल को!!

ये विडियो देखें,


Monday, March 8, 2010

Women Access To Education- अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष पर ....


आज अंतराष्ट्रिय महिला दिवस है - ८ मार्च २०१०.

मेरे लिये ये एक खास दिन यूं है, कि दुनिया की आधी आबादी को समर्पित है यह दिन, और मेरा जो भी कुछ वजूद है आज , वह मेरी मां की वजह से है, और मैं इस बात को आज गर्व के साथ महसूस करता हूं, कि पिछले हज़ारों वर्ष से हम अपनी संस्कृति, हमारे मूल्यों और सभ्यता को इतना विकसित पा रहे हैं, वह केवल महिलाओं की वजह से है.

दुनिया की हर मां एक शिक्षिका है, भले ही वह शिक्षित हो या अनपढ़.

लेकिन यह बडा ही दुख का विषय है की आज पूरे विश्व भर में शिक्षा के अनुपात में महिलायें, पुरुषों से पिछडी हुई है. भारत में मात्र ६५% महिलायें शिक्षित हैं,(पुरुष ८०%).

अभी पिछले हफ़्ते, कॊलेज से मेरी पत्नी नेहा का फोन आया कि उसे Indian Institute of Management (IIM, Indore) से आज के दिन महिलाओं की शिक्षा पर बोलने हेतु आमंत्रण दिया गया है,एक शिक्षाविद के तौर पर, तो मैंने तुरंत उसे स्वीकार करने को कहा, हालांकि हमारे बेटे अमोघ की वार्षिक परिक्षा आज ही से शुरु होनी थी,और वह थोडा़ चिंतित थी.

तो उसके लिये जब उसने विषय की तह में जाकर जानकारीयां एकत्रित करना शुरु की और मेरे साथ शेयर करना शुरु किया तो मैं हैरान रह गया!

हालांकि नेहा का पेपर अंग्रेज़ी में पढा गया, मैं उसमें से कुछ जानकारीयां आपके साथ शेयर करना चाहूंगा:

Friends, It is proven fact that presently half of this global population is living in a state of disparity in all Socio-Economic Areas, and is lagging far behind men in terms of economic & political power.

As a civilized society, it is certainly our concern today that without their engagement, empowerment and contribution, we can not hope to effectively meet challenges nor achieve rapid economic Progress in this country. Hence, it should be a commitment from all socio- political & Educational fraternity to plan a suitable strategy to bridge this gap of disparity.

The greatest single factor , which can incredibly improve the status of Women in any Society is EDUCATION.

Low level of Literacy at all levels not only has a negative impact on Women’s lives , but also on their families’ lives. This surely affects the Economical Development of Country.

Incidentally, Education would certainly become a powerful instrument of Social, Economical & Cultural Transformation of our people Men & Women. This will also help accelerating process of Modernization, to cultivate high standards of Living, with Moral & Spiritual Values.

So, when Women gain access to education, they increase their chances of participation in Labour Market, improving health & wellbeing of their families. This will ensure increasing financial independence & participating even in Political System.

This can only happen when women have improved access to Education.


(IIM Director स्वागत करते हुए,सबसे दायें पद्मश्री शालिनी ताई मोघे - उम्र ९७ वर्ष और नेहा सबसे बायें)

इस बात को प्रतिपादित करते हुए कुछ जानकारीयों कों (Facts & Figures) रखा गया और फ़िर इस चुनौती को स्वीकार कर अलग अलग स्तर पर सरकार, शैक्षणिक संस्थाओं, NGOs, एवम अन्य माध्यमों की मदत से ये कैसे सम्भव हो सकेगा उसपर सिलसिलेवार प्रकाश डाला. समापन में...


To conclude, I do not wish to paint a total dark picture here. Women have certainly proved their excellence , intelligence, & leadership in all spheres of Life. Today’s women is a SUPERWOMEN in real senses, and currently occupying TOP POSITIONS in all fields.Today women are more aware of their role and contribution in nation Building, and wish to work hard to raise level of Living Standard of herself and family.

However, it is still not enough and hence through this single point agenda for Women empowerment thru Education, we can achieve our goal for better economic health of family & Nation. This will ensure creation of opportunities in High end jobs significantly , sufficiently backed by educated Work Force of women for overall development of India’s Future.


In other words, educating girls is a Most Important Investment in the world, is how much they give back to their families, society and Nation.


नेहा नें इस विचार गोष्ठी का समापन किया गया संस्कृत के इस श्लोक से:

यत्र नार्यस्तु पुज्यते
रमंते तत्र देवता ...


मुझे याद है, कि आज से कई सालों पहले जब नेहा शादी हो कर हमारे घर आयी थी तो वह B.Pharm. में Gold Medalist थी , और Post Graduation और Ph.D. करना चाहती थी. मगर एक पुरुष की टिपीकल मानसिकता लेकर मैने उससे परिवार की ओर समर्पण चाहा था. उसनें चुपचाप मान भी लिया.

आज इतने सालों बाद देखता हूं,कि कैसे मुझे अकल आयी, (देर आयद दुरुस्त आयद), और मेरे बच्चों और मां पिताजी की सेवा करते हुए कैसे उसनें यह सब किया , और आज मुझे एक साथ शर्म और गौरव का अनुभव करा गयी वह.

मगर अब मैं अगली पोस्ट में ज़िक्र करूंगा, एक बहुत ही बडे विरोधाभास की.

मेरे यहां नेहा के कॊलेज जाने की वजह से अमोघ के लिये एक आया रखी हुई है. अंतरराष्ट्रिय महिला दिवस पर आज सुबह उसके पति की उसे प्रताडित करने के कारण महिला थाने में पेशी हुई थी. कुछ रोशनी उसकी ज़िंदगी पर, और उससे जुडी हुई मेरी एक दीदी की जीवनी पर जिसनें सन १९७५ में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर काठमांडु भेजे गये सबसे पहले भारतीय महिला दल का नेतृत्व किया था.

कल ही पढियेगा दिलीप के दिल से - पर शायर साहिर पर कुछ यादें...

(चित्र रवि वर्मा- साभार)

Monday, March 1, 2010

भारतीय रेल में सुहाना सफ़र -- मेरे सपनों की रानी -डबल डेकर -कब आयेगी तू?

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दो चार दिनों पहले, दो ख़बरें प्रमुखता से छा गयी थी टी व्ही पर,

एक तो सचिन का एक दिवसीय क्रिकेट में विश्व एक दिवसीय क्रिकेट का पहला दोहरा शतक, और दूसरी ममता दीदी का रेल बजेट.

पहले तो सचिन को लाख लाख बधाईयां. वाकई बहुत ही बढियां काम किया है और देश का नाम रोशन किया है. मगर शाम को अधिकांश न्युज़ चेनलें बस सचिन सचिन चिंघाडती रही और रेल बजेट पर बहस कबाडखाना पहुंचा दी गयी.अब तो उन्हे भारत रत्न की भी शिफ़ारिस हो गयी है.

रेल्वे बजट पर कोई खास गहमा गहमी नहीं रही.

वैसे भी उस बजेट में कोई खास बात तो थी नहीं. बंगाल और सिर्फ़ बंगाल छाया रहा. मन मसोस कर रह गया कि , कभी मेरे इंदौर शहर से चुने हुए प्रकाशचंद्र सेठी रेल्वे मंत्री हो गये थे, और मेरे शहर को बच्चों की झुक झुक गाडी भी नसीब नहीं हुई थी. चलो किस्मत अपनी अपनी.

मगर एक बात मेरे दिमाग में कौंध गयी. ममता नें कई बिज़नेस मोडेल्स सामने रखे,मगर कोर बिज़नेस पर खास प्रभावित नहीं किया.

मैं एक फ़्रीक्वेंट ट्रेवेलर हूं,रेल और हवाई जहाज़ का. ये मानता हूं कि रेल विभाग में कुछ अच्छे परिवर्तन हुए ज़रूर है, और काया परिवर्तन भी हुआ है, मगर ये काफ़ी है?

एक बात कहना चाहूंगा कि रेल को सर्व प्रथम ये तो करना ही चाहिये कि हर रेलगाडी के डब्बे ज़रूर बढायें. अभी परसों मैं हैदराबाद से पूना आ रहा था तो गाडी में एक रिटायर्ड रेल्वे अफ़सर था, जिसनें खुलासा किया कि रेल्वे के पास कुल ११०० रेक्स ही हैं, और वे भी काफ़ी नहीं है.जितने बन रहें है,उससे से ज़्यादह की दरकार है, और अब कुछ बाहर से लाने की बात चल रही थी.

डब्बे बढाने में कोई तकनीकी समस्या नहीं है, बस हमारे अधिकतर स्टेशनों के प्लेटफ़ार्म ही छोटे हैं.

एक बात नें और ध्यान खींचा. कलकता से दिल्ली तक डबल डेकर ट्रेन का भी आश्वासन दिया गया है. ये बात तो बढियां ही है. मगर मुंबई से पूना या सोलापुर/कोल्हापुर चलने वाली सीटिंग वाली डबल डेकर जो दस पंद्रह साल से चल रही थी उसके डिज़ाईन को बेहतर काने की काफ़ी गुंजाईश थी.



मगर मैं जब पिछले साल यूरोप गया था तो २० दिन के प्रवास में १५ दिन सिर्फ़ यू रेल में ही घूमा, ८ देश और ३५ शहर. तो मैंने डबल डेकर का भी सफ़र किया और खूब आनंद भी लिया.मिलान में होटल में जगह नहीं मिली, मगर ट्रेन में कभी रिज़र्वेशन की ज़रूरत नहीं पडी.(ये अलग बात है कि रात को ११ बज़े हम मिलान से रोम की ट्रेन में सवार हो गये, सुबह ७ बज़े रोम के प्लेटफ़ार्म नं ७ पर पहुंचे और ७.३० की गाडी में वापिस प्लेटफ़ार्म नं १४ से बैठ कर १ बजे दोपहर को मिलान पहुंचे-ज़रूरी मीटिंग जो थी)





उसके कुछ चित्र लगा रहा हूं. आप देखेंगे, कि रात की गाडी में दो और चार के केबिन थे, जो हालांकि बडे छोटे थे, मगर
हर केबिन में एक छोटा सा कबर्ड और नल के साथ बेसिन होता था.



कोर्रिडोर से मैं घूमते घूमते जब टॊईलेट पहुंचा तो मेरी आंखे फ़टी की फ़टी रह गयी. विकलांगों के लिये बने उस टाइलेट का साईज़ एक चार बर्थ के केबिन से भी बडा था, और उसमें सभी लक्ज़्युरी की सेवायें उपलब्ध थी.




दिन की डबल डेकर जो वेनिस से निकलते हुए पकडी थी उसमें आरामदायक सीटें मिलीं, और Ist Class और IInd Class की सीटों में कोई खास अंतर नहीं था.(मेरे यु रेल पास में प्रथम श्रेणी का टिकट था, तोभी हम कहीं भी बैठ जाते थे!!!)

आश्चर्य तो तब हुआ जब मैंने लोगों को टाइलेट के नल से पानी पीते हुई देखा!!!







वहां के स्टेशनों का क्या कहना. साफ़ सफ़ाई, और दुकानों की सजावट सभी देखते ही बनती थी. अब ये चित्र देखें- ये स्वीडन के एक छोटे स्टेशन पर एक दुकान का है.




तो चलो , हम भी सर पर रज़ाई या चादर ओढकर सो जायें , और ये खुश नज़ारा देखें, मीठा सपना देखें कि भारत में भी कभी वह दिन आये कि हम भी इन जैसी ट्रेनों मे सफ़र करें, कभी भी स्टेशन पहुंच जायें, बर्थ अवेलेबल!! , टी टी को बर्थ के लिये आगे पीछे नहीं करना पडे़,,सभी ट्रेनें ए सी रहें...

आल इज़ वेल यारों!!

होली की सभी को शुभकामनायें.

एक विडियो देखें.यूरोप की तराईयों में दिली सुकून के लिये भटक रहा था, डबल डेकर के लिये. मिली और बाखुदा, खूब मिली!!! घबराईयेगा नहीं. इस बार मैंने गाना नहीं गाया है!!

मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू?

Saturday, February 13, 2010

आल इज़ स्टिल वेल- इजिप्ट में एक्सिडेंट


मुसाफ़िर हूं यारों.. ना घर है ना ठिकाना,
मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना....

जीवन की इस सच्चाई से रूबरू हुआं हूं अभी अभी... जी हां.

पिछले रविवार को अचानक इजिप्ट की राजधानी काइरो या अल-काहिरा जाना पडा, प्रोजेक्ट के सिलसिले में. अब तो आना जाना लगा ही रहेगा, और एक मुसाफ़िर की तरह मैं बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत गाते हुए बंजारे की तरह निकल पडा़.

मगर क्या मालूम था कि किस्मत में कुछ यूं भी लिखा है, कि आप पीछे मुड कर देखें कि जीवन कितना प्रेशियस या कीमती है.सुएज़ शहर से काईरो आते हुए गाडी का ज़बरदस्त एक्सिडेंट हो गया और आपका ये मित्र बच गया. याने बॊटम लाईन यही है कि आल इस स्टिल वेल!!!

हुआ यूं कि इजिप्ट के एक बडे शहर सुएज़ के पास हमारी साईट है, जहां एक फ़ेक्टरी बन रही है, जिसमें मैं वेयरहाऊस इंजीनीरिंग के एक भाग के निर्माण प्रक्रिया के लिये गया हुआ था.सुएज़ शहर सुएज़ केनाल या नहर के लिये विश्व विख्यात है.यहीं से एक मानव निर्मित नहर से बडे बडे जहाज़ रेड समुद्र से मेडिटेरियन समुद्र जाते हैं, और भारत से एक सीधा रास्ता युरोप के लिये खुल जाता है, बजाय साऊथ अफ़्रिका से होकर गुज़रने के.

बात अभी पिछले बुधवार की है.साईट से लौट कर सुएज़ केनाल देखने हम सुएज़ शहर में घुसे, और लौटने लगे काहिरा की ओर, ताकि शाम तक हम काहिरा पहुंच जायें , जहां हम होटल में रुके थे. मेरे साथ कंपनी गेलेक्सी के एक प्रोजेक्ट इंजिनीयर इंचार्ज अविनाश भी थे.

सुएज़ से काहिरा का हाई वे 130 KM का ६ लेन है और इतना बढियां है, कि हर कोई १४०-१६० की स्पीड से गाडी चलाता है.

ज़ाहिर है, शहर छोडते ही ड्राईवह एहमद नें 160 KM/Hr की गति पकड ली, और अगली सीट पर बैठे बैठे मुझे ठंड में भी पसीने छूटने लगे.इसके पहिले पहली बार जब अबु धाबी से दुबई गया था तो 140 की स्पीड अनुभव की थी. मगर सच कहूं, मैंने घबरा कर एहमद से स्पीड कम करने को कहा. उसने थोडी कम ज़रूर की, मगर अचानक सामने एक आर्मी का ट्रक जो जा रहा था उसे कट मारने में चूक हो गयी.पैर ब्रेक की जगह एक्सीलरेटर पर पड गया और हम धडाम से उस ट्रक में घुस गये.

एक ज़ोरदार टक्कर हुई जिससे हमारी गाडी उछल कर ट्रक के पिछवाडे में अटक कर आधा कीलोमीटर घसीटता चला गया. भगवान की कृपा ही समझो, आगे की सीट पर बैठे होने के बावजूद, सीट बेल्ट पहनने की वजह से मुझे उस इम्पॆक्ट का असर कम लगा. मैं उस क्षण से कुछ ही सेकंद पहिले विडियो शूटिंग कर रहा था अपने छोटे केमेरे से, तो थोडा मानसिक रूप से रिफ़्लेक्स की वजह से मैने अपने शरीर को उस आघात के लिये तैयार कर लिया, मगर पीछे बैठे मेरे मित्र अविनाश चूंकि सीट बेल्ट नहीं पहने थे, और थोडा सुस्ता रहे थे, एकदम से अपने आप को सम्हाल नहीं पाये और उन्हे थॊदी ज़्यादह चोट आये. ड्राईवर एहमद के तो पंजे में फ़्रेक्चर हो गया, और सर में चोट आयी.

चूंकि गाडी को ज़्याद क्षति पहुंची और गेट भी जाम हो गये, आर्मी के जवानों ने आनन फ़ानन में हमें गाडी से उठाया. दर्द या शॊक का एहसास भी कुछ मिनीट नही रहा, और जैसे कि हम फ़िल्म देखते हैं , या सपना, मैं अपने आपको और दूसरों को गाडी में से निकालने की मशक्कत को एक त्रयस्थ याने तीसरे शख्स़ की नज़रिये से देख रहा था.

बस , किसी तरह से काहिरा से दूसरी कार मंगवाई, सूरज डूबने चला था.फ़िज़ा में ठंडक और घुलने लगी थी. हम इंदौर से लाये स्वादिष्ट नमकीन खाते हुए, अंदरूनी दर्द के बढते हुए एहसासात लिये हुए काहिरा के एक अस्पताल के लिये रवाना हुए..

संक्षेप में, जिसको राखे सांई, मार सके ना कोई. थोडा़ एक फ़ुट ज़्यादा हो जाता तो कुछ भी हो सकता था. चलो , जान बची ,लाखों पाये. अब आप से फ़िर रू ब रू होते रहेंगे.इंशा अल्लाह!!

इंशा अल्लाह. ताऊ की पहेलीयां बूझेंगे, अल्पना जी के गाने और कवितायें सुनेंगे, लावण्या दीदी के संस्मरण, समीर जी की सिगरेट की पन्नी में लिखी हुई जीवन की सच्चाईयां, अनुराग जी के होस्टल के किस्से, अनुराग शर्माजी के पोडकास्ट, मनीष कुमार के और आवाज़ के सजीव सारथी और सुजॊय के संगीतमय पोस्टें, राज भाटिया जी के जोक्स, यूनुस भाई के मधुर और अनोखे गीत लोकगीत,और जिसका इंतज़ार रहता है.. संजय भाई के संस्मरण और OLD MONK के सारगर्भित कमेंट्स का.. तो फ़िर से अविरत चलते रहेंगे.

आखिर सच ही तो कहा है कि - मुसाफ़िर हूं यारों, ना घर है ना ठिकाना, मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना...

तो देखिये , उस मंज़र की कुछ झलकियां , जो आपके लिये, अगर समय निकाल सकें तो..




ये पंक्तियां लिखते लिखते समाचार मिला कि पुणे में ओशो अश्रम के पार जर्मन बेकरी में एक आतंकवादी विस्फ़ोट हुआ. मैंने ताबड़तोब पुने फ़ोन लगाया , क्यों कि मेरी पत्नी, बेटी नुपूर और बेटा अमोघ इन दिनों वहीं हैं. पता चला वे कुशल हैं, लेकिन उस समय वे वहां से केवल आधा किलोमीटर दूरी पर थे.

ALL IS STILL WELL!!

Tuesday, February 2, 2010

आल इज वेल !!! - परेशानीयों को कंट्रोल, आल्ट और डिलीट !!!


"आल इज वेल !!!"

हां. इतने दिनों के अंतराल के बाद फ़िर आपसे मुखतिब हूं आपका ये खा़दिम.

पिछली पोस्ट के आसपास ही पिताजी को हार्ट की तकलीफ़ हुई थी और वे आई सी यू में भर्ती हो गये थे. दो हफ़्ते के मशक्कत के बाद फ़िर घर पर स्वास्थ्य लाभ, और अब लगभग दो महिने के भीतर आल इज़ वेल.

धन्यवाद हे ईश्वर!! धन्यवाद आप सभी ब्लोगर परिवार के मित्रों !!!

आज पीछे मुड कर देखता हूं तो पाता हूं कि जो भी विरासत में मिला है वह भौतिक रूप में कम ज़्यादा हो सकता है, मगर मानस के आत्मीय और आध्यात्मिक तौर पर जो भी मिला है वह अनमोल है. संस्कार, संस्कृति, साहित्य, संगीत, चित्रकारी, और आध्यात्म, सभी कुछ आज मेरे पिताजी महामहोपाध्याय डॊ. प्रभाकर नारायण कवठेकर की वजह से है. जैसे माता ही सबसे पहली गुरु है, मगर पिता भी .उनके रूप में पिता और बाद में परमपिता परमेश्वर का वजूद हर क्षण हर पल साथ लिये चलता हूं.

उस दिन एक बात बडी़ खास जेहन में ठस के रह गयी थी. जब घर पहुंचा तो पता चला पिताजी को अटेक आया है और अस्पताल ले जाने के लिये एम्ब्युलंस आ रही है. बस , वही क्षण था , १० सेकंद में निर्णय लेना था, कि क्या एम्ब्युलंस के लिये रुका जाये या स्वयं ही चला कर ले चलें... शायद , इतना भी घातक हो सकता था.

अब समझ में आया. बडे बडे प्रोजेक्ट में ऊपर के स्तर पर डिसीशन लेने में और ये निर्णय लेने में ज़मीन आसमान का अंतर है. एम बी ए का पाठ याद किया, सभी ऒप्शन्स को तौला, और सबसे बेहतर पर अमल किया. याने , जो कुछ भी हो जाये , और रुकने से अच्छा है कि खुद ही ले जाऊं.

पिताजी को गाडी में बिठाया, और गाडी अस्पताल की ओर मोडी जो सौभाग्य से बेहद नज़दीक ही था.अपोलो होस्पिटल , जिसकी इमारत करीब २५ साल से भी पहले मैने ही बनाई थी, शहर के सबसे अच्छे अस्पताल में से था, और मेरा छोटा भाई डा. गिरीश वहीं हार्ट का स्पेशलिस्ट था!!वह कहीं बाहर था और सीधे अस्पताल पहुंचने वाला था .बस एक बार उसे सौंप दूं , तो फ़िर आल मस्ट बी वेल !!

जब गाडी चली तो संयोग से सी डी डेक पर एक गीत बज रहा था.चूंकि राजकपूर जी की जन्म तिथी पास ही थी, आदत के अनुसार मैं राज जी के गाने सुन रहा था. मैं चौंक पडा:

गाना था - हम तो जाते अपने गांव, अपनी राम राम राम....

मैं थंड और गाने के बोल सुन कर ठिठुर सा गया. क्या ये विधाता का संकेत तो नहीं?

मगर पिताजी नें भी जब ये गाना सुना तो मुझ से निश्चयी स्वर में बोले: बंद कर दो ये गाना. मैं कहीं हमेशा के लिये थोडे ही जा रहा हूं. बस दो दिन में वापस आते हैं.

मैं झूटमूट हंस पडा. मगर बाद में रेस्ट्रोस्पेक्ट में देखता हूं तो पाता हूं कि अमूमन , अधिकतर ये उनकी सकारात्मक सोच
या Positive thinking ही तो थी, जो बाद में ३ ईडीयट्स में भी विस्तृत हुई, मेनीफ़ेस्ट हुई.

अब देखता हूं तो पाता हूं कि यही सकारात्मकता ही तो जीवन के ऊबड खाबड रास्ते पर, विषम परिस्थितियों में हमें इस दुख और पीडा के सागर में डूबने से बचाते हैं, और उस पार स्मूथ सेलिंग के साथ तैरने में मदत करते हैं.

वे दिन याद आये जब विक्रम युनिवर्सिटी के कुलपति के तौर पर छात्रों से मुठभेड , अर्जुन सिंग से वैचारिक मतभेद, माम की बीमारी ... यही धनात्मक उर्जा ही तो उन्हे ८७ वर्ष के पार ले आयी है.




फ़िल्म का एक वाक्य था जो बडा ही प्रसिद्ध हुआ - आल इज़ वेल. यह मंत्र वाकई में हमारे सिस्टम में हमारी पीडा़, दुख और परेशानी को बाई पास कर देता है, और हम सामान्य हो जाते हैं.

पिताजी के भी दो वाक्य याद आते है, अब जब ये फ़िल्म देख ली है, और इस के रीफ़रेंस में उनकी महत्ता समझ आयी.

काही विशेष नाही ...(कुछ खास नहीं) और
गम्मत आहे !! ( मज़ा है या बढिया है)

जब भी कोई परेशानी या अडचन आती थी तो वे कह देते थे - काही विशेष नाही याने कुछ खास नहीं. ताकि उसकी ग्रेविटी या सबब थोडा हलका हो जाता था.

फ़िर अंत में बात को खत्म करते हुए वे कहते हैं, गम्मत आहे.. याने मजा है, बढिया है, या फ़िर आल इस वेल!!!

याने उन यादों को कंट्रोल, आल्ट और डिलीट कर दिया, और मन के रेडियो में नया स्टेशन लगा दिया.




क्या कहते हैं आप सभी? बुरी यादों को कट पेस्ट करते रहने से क्या बेहतर नहीं कि हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला जाये (विस्मरण की धुंधलके में-सिगरेट के धुएं में नहीं).

Don't think this is escapism.This is positivity indeed.It is ability to combat weakening forces , win over it, or at least FLOAT !

मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं?

Monday, December 14, 2009

अफ़ज़ल गुरु की फ़ांसी का मज़ाक और २००१ के हमले का आंखो देखा हाल..




ये तो वाकई हद ही हो गयी कि मैंने अपने इस ब्लोग पर पिछले दो पूरे महिनों में कुछ भी पोस्ट नहीं किया.मुआफ़ी चाहूंगा.

अभी परसों सुरेशजी चिपलूणकर की एक पोस्ट पढ़ रहा था जिसमें उन्होनें अपने चिर परिचित अंदाज़ में व्यंग करते हुए २००१ में हुए संसद पर हमले का सरगना मास्टरमाइंड अफ़ज़ल गुरु को बर्थ डे पर विश किया था.

ये वाकई शर्म की बात है कि आज उस दिन को आठ साल हो गये हैं, और हमारी शिखंडी जमात उसे अभी तक फ़ांसी तक नहीं चढा पायी.

शिखण्डी हम इसलिये हैं कि जिसनें हमारे देश के संप्रभुता को चुनौती देते हुए प्रजातंत्र के सर्वोच्च मंदिर पर हमला करने का षडयंत्र रचने का दुस्साहस किया, उसको फ़ांसी देने के लिये में आप , मैं और करोडो भारतीय बृहन्नलाओं की तरह ताली पीट पीट कर अपने अपने बिल में घुसे हुए ही गुहार मचा रहे हैं, और अफ़ज़ल गुरु जैसा ही और कोई विनाशकारी दिमाग कहीं दूर बैठ कर मुस्कुराते हुए एक नयी योजना बना रहा होगा, बेखौफ़ हो कर, क्योंकि हम जैसों को राष्ट्र भक्ति या राष्ट्राभिमान का जज़बा सिर्फ़ फ़िल्मी गीतों की रिकोर्ड बजा देने से पूरा हो जाता है.

वैसे अफ़ज़ल गुरु से मेरा व्यक्तिगत दुश्मनी का नाता भी है.

एक तो उसने मेरे भारत (Repeat MY INDIA)्की सहिष्णुता का मज़ाक उडाते हुए ये दुस्साहस किया.

दूसरे, आज भाग्य की वजह से मैं आपके सामने ये पोस्ट लिखने को ज़िंदा बचा हुआ हूं, वरना उसके अनुयायी की एक गोली उस दिन दिल्ली के संसद प्रांगण में मेरी समाधी बना चुकी होती.

बात ज़्यादह विस्तार से नहीं लिखूंगा. बस यही कि ऐसी यादें भूलनें के लिये नहीं होती, क्योंकि इससे आपके देश का सन्मान जुडा होता है.

उन दिनों मेरा काम संसद भवन के आहाते में ही बन रहे Parliament Library Project में चल रहा था. मेरी टीम के ५० से भी ज़्यादा आदमी पिहले देड महिनें से रात दिन एक करके लायब्ररी के फ़र्नीचर को असेंबल करने में लगे हुए थे जिसे मैने डिज़ाईन और सप्लाय किया था.

मैं उसी दिन अल सुबह वहां पहुंचा था, क्योंकि प्रधान मंत्री के लिये बनाई हुई टेबल में कुछ बुनियादी बदल करना थे, क्योंकि श्री अटल बिहारी बाजपेयी की घुटनों की तकलीफ़ की वजह से , उस खास डिज़ाईन में उन्हे तकलीफ़ आ रही थे.

मैं जैसे ही लायब्ररी के ६ मंज़िल की भव्य वास्तु (३ मंज़िल गाऊंड लेवल से ऊपर , और तीन बेसमेन्ट ) में जाकर काम का जायज़ा ले ही रहा थे कि अचानक गोलीयों की और मशीनगनों की आवाज़ से हम सभी काम करने वाले चौंक गये. वहां हमारे साथ करीब अलग अलग कंपनीयों के १५०० मज़दूर और २०० अफ़सरान काम कर रहे थे क्योंकि २६ जनवरी को उदघाटन तय था.

पहले तो समज़ ही नहीं पाये कि क्या हो रहा है, क्यों कि अकसर फ़िल्मों में सुनाई देने वाली आवाज़ से ये आवाज़ें अलग ही थी.

मैं भागकर उस हॊल में पहुंचा जहां से संसद का वह VIP GATE दिखाई दे रहा था जहांसे अक्सर प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति और अन्य विशिष्ट व्यक्ति आया जाया करते थे.

वहां एक बडा़ सा कांच का खिडकीनुमा पार्टिशन था, जहां से सभी गतिविधियां साफ़ दिखाई पडती थी.

मैं जैसे ही वहां से झांकने का प्रयास कर ही रहा था, दूसरी तरफ़ से याने VIP GATE की तरफ़ से दो गोलीयां कांच से टकराई.कांच अच्छी क्वालिटी का था एक ईंच मोटा, और संयोग ही हुआ कि एक गोली उसे छेदते हुए इस पार निकली और दूसरी छिटक कर रिफ़्लेक्ट हो गई(चूंकि तीखे कोण से आई थी).

बस , जो गोली अंदर आयी उसपे मेरा नाम नहीं लिखा था, और वह सामने दिवार में धंस गयी, और जो पलटी थी वह लगभग बिल्कुल मेरी ओर ही आ सकती थी!!

मैं ताबड़तोब पीछे मुड़कर वापिस हो लिया. मैं और मेरे साथ के सभी मौजूद लोग अब तक ये पूरी तरह से समझ चुके थे कि संसद पर आतंकवादीयों का हमला हो व्हुका है, और अब हमारी भी खैर नहीं.

भय की और मौत की एक थंडी़ लहर मन के किसी कोने से गुज़र गयी. दिमाग काम नहीं कर रहा था कि अब हम अपने आप को कैसे बचायें. हम सभी बाहर की ओर भागने की सोचने लगए, मगर मालूम पडा़ कि बाहर सभी ओर सेना नें परिसर को घेर लिया है, और अब सबसे मेहफ़ूज़ जगह थी यही लायब्ररी की भव्य इमारत.

मैंने और मेरे मातहत इंजीनीयरों/सहायकों नें तुरंत ही अपन आदमीयों को समेटा और बेसमेन्ट नं. १ में स्थित हमें एलॊट किये गये कमरे में जाकर बैठ गये.(यहां अभी तक दरवाज़े नहीं लगाये गये थे). आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हमारी मनस्थिति का, कि एक सामूहिक भय का और अफ़वाहों का वातावरण बन गया था, और लगातार ये आशंका व्यक्त की जा रही थी,कि आतंकवादी बडी संख्या में थे और अब वे हमारी बिल्डींग में घुसने वाले ही थे.

तभी हमने अपने बेसमेंट के कमरे की छोटे से रोशनदान से देखा कि कैसे हमारे ज़ांबाज़ सिपाही आतंकवादीयों से लोहा ले रहे थे. एक बार तो हमारे सामने एक सिपाही कवर में से एकदम बाहर निकला.शायद उसनें किसी आतंकवादी को देख लिया था,जो उस द्वार के ऊपर की छत पर छिपा हुआ था.

मगर उससे पहले आतंकवादी नें खडे हो कर उस सिपाही को शूट कर दिया. हम असहाय से , उसे चिल्ला चिल्ला कर आगाह करने लगे, जैसे कि हमारी आवाज़ उस तक पहुंच रही होगी. हम तो सिनेमाहॊल में मूव्ही देख रहे उस दर्शकों की तरह से ये सब देख रहे थे,एक मायाजाल के वर्च्युअल जगत में स्लो मोशन में फ़टी फ़टी आंखों से देख रहे थे ये नज़ारा.वक्त जैसे ठहर ही गया था.

मगर बाद में पता चला कि उस सिपाही नें गोली लगने के बावजूद अपनी राईफ़ल से उस आतंकवादी को निशाना लगाकर मार गिराया और खुद शहीद हो गया. शायद ये सिपाही शहीद नानकचंद था, जिसने देशभक्ति के और कर्तव्यपूर्ति के उस जज़बे की वजह से अपनी जान दे दी.

फ़िर एक लंबी खामोशी छा गयी. भय और बढ गया, क्योंकि यूं लगने लगा कि शायद अब आतंकवादी भाग रहे थे, और शायद यह नई निर्माणाधीन भवन छिपने या भागने के लिये बेहतर होगा. बीच में ये भी सुना कि उन्होनें किसी VIP को भी बंधक बना लिया है.

मौत की आहट की उस खामोशी को तोडते हुए कुछ लोगों की भागते हुए बेसमेंट में आने की आहट होने लगी.यह भवन इतना बडा था कि अब तक हमें उसके सभी रास्तों और सीढीयों का पता हो गया था. तब मुझे याद आया कि बेसमेंट नं. २ में नीचे कुछ कमरे ऐसे भी थे जहां दरवाज़े लग चुके थे और कहीं अस्थाई ताले भी लगा दिये थे.

मैं अपने साथ कुछ लोगों को लेकर नीचे की ओर भागा.मगर रास्ते में ही हमें कुछ दस बारह लोगों की भीड दिखाई दी ,जो और नीचे की ओर जा रही थी.

पहले तो हम ठिटक कर खडे हो गये , कि शायद आतंकवादी तो नहीं. मगर बाद में पता चला कि बिहार के कुछ बाहुबली सांसद उस तरफ़ से भाग कर यहां छिपने के लिये आ गये थे. बडा ही अजीब नज़ारा था कि ऐसे रौबिले और स्वयं आतंकवादी की शक्ल वाले ये माफ़िया के गुंडे लठैत संस्कृति के नुमाईंदे, जिन्होने अपने अपराधी इतिहास के बावजूद, गुंडा राजनिती के बल पर चुनाव जीत कर संसद में आ गये थे, मेरे सामने थर थर कांप रहे थे मौत के भय से. एक पहलवान नुमा सांसद का तो पजामा तक गीला हो गया था. उसनें मुझे देख कर हाथ पैर जोड़ कर मुझसे दया याचना की भीख मांगने लगा जैसे कि मैं ही कोई आतंकवादी हूं. फ़िर दूसरे नें स्थिति भापकर मुझसे बिनती की कि उन्हे तहखाने में कहीं किसी अंधेरे कमरे में बंद कर दें और बाहर से ताला लगा दें. दूसरे नें साथ में और ये जोड दिया कि ताले की चाबी कहीं अंधेरे में फ़ेंक दे!!

मैं ठगा सा विधि का विधान देख रहा था. एक वह सिपाही था , जो अपनी जान तक कुर्बान कर गया, और दूसरे जान से डरके थर थर कांपने वाले ये सांसद हैं, जिनके लिये उसनें अपनी जान दी.

खैर, मौत का खौफ़ शहादत से ऊपर चढ़ कर बोलता है. हम सभी दूसरे नीचे के तल के बेसमेंट में चले गये और करीब चार बजे तक छोटे कमरों में छुपे रहे. बाद में जब हमारे एक साथी नें ऊपर जाकर वस्तुस्थिति का पता किया (BRAVE) तब जाकर हम सभी बाह्र निकले. मगर हमारे बहादुर साथीयों नें(सांसद) फ़िर भी ऊपर जाने से मना किया, और स्वयं नज़मा हेपतुल्ला जी आयीं और उन्हे बाहर निकाला.

क्या विरोधाभास और मज़ाक नही है, कि आज आठ साल के बाद भी अफ़ज़ल गुरु , जिसे हमारे न्यायालय ने बाकायदा न्याय प्रक्रिया के तेहत दोषी करा देते हुए फ़ांसी की सज़ा मुकर्रर की , उसे अभी तक किसी ना किसी खोखले तर्क के बिना पर ज़िंदगी मुहैय्या कराई जा रही है. ये उन्शहीदों और सच्चे देशभक्त लोगों की शहादत का मज़ाक है, और हम सभी उसे समझ कर भी कर्महीनता के कारण चुप बैठे है.

पता चला है कि कोई श्री राधा रंजन नें Hang Afazal Guru के नाम से ओनलाईन हस्ताक्षर अभियान चला रखा है,और अब तक १४०० लोगों ने उसपर समर्थन दिया है. मगर दुख की या शर्म की बात ये भी है कि किसी तथाकथित मानव अधिकार संगठन नें Justice for Afazal Guru नाम से समानांतर अभियान चला रखा है नेट पर, और उसपर १६६६ लोग अपना नाम दर्ज़ करा चुके हैं.

याने यहां भी हमारी हार?

क्या आप मुझसे सेहमत हैं?

क्या आप नहीं चाहेंगे कि हम सभी ब्लोगर दुनिया के भाई और बेहनों को नही चाइये कि हम अपना विरोध दर्ज़ करायें और एक सामाजिक चेतना में अपना भी सहभाग दें?
http://www.petitiononline.com/hmag1234/petition.html
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