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Monday, March 1, 2010

भारतीय रेल में सुहाना सफ़र -- मेरे सपनों की रानी -डबल डेकर -कब आयेगी तू?

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दो चार दिनों पहले, दो ख़बरें प्रमुखता से छा गयी थी टी व्ही पर,

एक तो सचिन का एक दिवसीय क्रिकेट में विश्व एक दिवसीय क्रिकेट का पहला दोहरा शतक, और दूसरी ममता दीदी का रेल बजेट.

पहले तो सचिन को लाख लाख बधाईयां. वाकई बहुत ही बढियां काम किया है और देश का नाम रोशन किया है. मगर शाम को अधिकांश न्युज़ चेनलें बस सचिन सचिन चिंघाडती रही और रेल बजेट पर बहस कबाडखाना पहुंचा दी गयी.अब तो उन्हे भारत रत्न की भी शिफ़ारिस हो गयी है.

रेल्वे बजट पर कोई खास गहमा गहमी नहीं रही.

वैसे भी उस बजेट में कोई खास बात तो थी नहीं. बंगाल और सिर्फ़ बंगाल छाया रहा. मन मसोस कर रह गया कि , कभी मेरे इंदौर शहर से चुने हुए प्रकाशचंद्र सेठी रेल्वे मंत्री हो गये थे, और मेरे शहर को बच्चों की झुक झुक गाडी भी नसीब नहीं हुई थी. चलो किस्मत अपनी अपनी.

मगर एक बात मेरे दिमाग में कौंध गयी. ममता नें कई बिज़नेस मोडेल्स सामने रखे,मगर कोर बिज़नेस पर खास प्रभावित नहीं किया.

मैं एक फ़्रीक्वेंट ट्रेवेलर हूं,रेल और हवाई जहाज़ का. ये मानता हूं कि रेल विभाग में कुछ अच्छे परिवर्तन हुए ज़रूर है, और काया परिवर्तन भी हुआ है, मगर ये काफ़ी है?

एक बात कहना चाहूंगा कि रेल को सर्व प्रथम ये तो करना ही चाहिये कि हर रेलगाडी के डब्बे ज़रूर बढायें. अभी परसों मैं हैदराबाद से पूना आ रहा था तो गाडी में एक रिटायर्ड रेल्वे अफ़सर था, जिसनें खुलासा किया कि रेल्वे के पास कुल ११०० रेक्स ही हैं, और वे भी काफ़ी नहीं है.जितने बन रहें है,उससे से ज़्यादह की दरकार है, और अब कुछ बाहर से लाने की बात चल रही थी.

डब्बे बढाने में कोई तकनीकी समस्या नहीं है, बस हमारे अधिकतर स्टेशनों के प्लेटफ़ार्म ही छोटे हैं.

एक बात नें और ध्यान खींचा. कलकता से दिल्ली तक डबल डेकर ट्रेन का भी आश्वासन दिया गया है. ये बात तो बढियां ही है. मगर मुंबई से पूना या सोलापुर/कोल्हापुर चलने वाली सीटिंग वाली डबल डेकर जो दस पंद्रह साल से चल रही थी उसके डिज़ाईन को बेहतर काने की काफ़ी गुंजाईश थी.



मगर मैं जब पिछले साल यूरोप गया था तो २० दिन के प्रवास में १५ दिन सिर्फ़ यू रेल में ही घूमा, ८ देश और ३५ शहर. तो मैंने डबल डेकर का भी सफ़र किया और खूब आनंद भी लिया.मिलान में होटल में जगह नहीं मिली, मगर ट्रेन में कभी रिज़र्वेशन की ज़रूरत नहीं पडी.(ये अलग बात है कि रात को ११ बज़े हम मिलान से रोम की ट्रेन में सवार हो गये, सुबह ७ बज़े रोम के प्लेटफ़ार्म नं ७ पर पहुंचे और ७.३० की गाडी में वापिस प्लेटफ़ार्म नं १४ से बैठ कर १ बजे दोपहर को मिलान पहुंचे-ज़रूरी मीटिंग जो थी)





उसके कुछ चित्र लगा रहा हूं. आप देखेंगे, कि रात की गाडी में दो और चार के केबिन थे, जो हालांकि बडे छोटे थे, मगर
हर केबिन में एक छोटा सा कबर्ड और नल के साथ बेसिन होता था.



कोर्रिडोर से मैं घूमते घूमते जब टॊईलेट पहुंचा तो मेरी आंखे फ़टी की फ़टी रह गयी. विकलांगों के लिये बने उस टाइलेट का साईज़ एक चार बर्थ के केबिन से भी बडा था, और उसमें सभी लक्ज़्युरी की सेवायें उपलब्ध थी.




दिन की डबल डेकर जो वेनिस से निकलते हुए पकडी थी उसमें आरामदायक सीटें मिलीं, और Ist Class और IInd Class की सीटों में कोई खास अंतर नहीं था.(मेरे यु रेल पास में प्रथम श्रेणी का टिकट था, तोभी हम कहीं भी बैठ जाते थे!!!)

आश्चर्य तो तब हुआ जब मैंने लोगों को टाइलेट के नल से पानी पीते हुई देखा!!!







वहां के स्टेशनों का क्या कहना. साफ़ सफ़ाई, और दुकानों की सजावट सभी देखते ही बनती थी. अब ये चित्र देखें- ये स्वीडन के एक छोटे स्टेशन पर एक दुकान का है.




तो चलो , हम भी सर पर रज़ाई या चादर ओढकर सो जायें , और ये खुश नज़ारा देखें, मीठा सपना देखें कि भारत में भी कभी वह दिन आये कि हम भी इन जैसी ट्रेनों मे सफ़र करें, कभी भी स्टेशन पहुंच जायें, बर्थ अवेलेबल!! , टी टी को बर्थ के लिये आगे पीछे नहीं करना पडे़,,सभी ट्रेनें ए सी रहें...

आल इज़ वेल यारों!!

होली की सभी को शुभकामनायें.

एक विडियो देखें.यूरोप की तराईयों में दिली सुकून के लिये भटक रहा था, डबल डेकर के लिये. मिली और बाखुदा, खूब मिली!!! घबराईयेगा नहीं. इस बार मैंने गाना नहीं गाया है!!

मेरे सपनों की रानी कब आयेगी तू?

Saturday, February 13, 2010

आल इज़ स्टिल वेल- इजिप्ट में एक्सिडेंट


मुसाफ़िर हूं यारों.. ना घर है ना ठिकाना,
मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना....

जीवन की इस सच्चाई से रूबरू हुआं हूं अभी अभी... जी हां.

पिछले रविवार को अचानक इजिप्ट की राजधानी काइरो या अल-काहिरा जाना पडा, प्रोजेक्ट के सिलसिले में. अब तो आना जाना लगा ही रहेगा, और एक मुसाफ़िर की तरह मैं बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत गाते हुए बंजारे की तरह निकल पडा़.

मगर क्या मालूम था कि किस्मत में कुछ यूं भी लिखा है, कि आप पीछे मुड कर देखें कि जीवन कितना प्रेशियस या कीमती है.सुएज़ शहर से काईरो आते हुए गाडी का ज़बरदस्त एक्सिडेंट हो गया और आपका ये मित्र बच गया. याने बॊटम लाईन यही है कि आल इस स्टिल वेल!!!

हुआ यूं कि इजिप्ट के एक बडे शहर सुएज़ के पास हमारी साईट है, जहां एक फ़ेक्टरी बन रही है, जिसमें मैं वेयरहाऊस इंजीनीरिंग के एक भाग के निर्माण प्रक्रिया के लिये गया हुआ था.सुएज़ शहर सुएज़ केनाल या नहर के लिये विश्व विख्यात है.यहीं से एक मानव निर्मित नहर से बडे बडे जहाज़ रेड समुद्र से मेडिटेरियन समुद्र जाते हैं, और भारत से एक सीधा रास्ता युरोप के लिये खुल जाता है, बजाय साऊथ अफ़्रिका से होकर गुज़रने के.

बात अभी पिछले बुधवार की है.साईट से लौट कर सुएज़ केनाल देखने हम सुएज़ शहर में घुसे, और लौटने लगे काहिरा की ओर, ताकि शाम तक हम काहिरा पहुंच जायें , जहां हम होटल में रुके थे. मेरे साथ कंपनी गेलेक्सी के एक प्रोजेक्ट इंजिनीयर इंचार्ज अविनाश भी थे.

सुएज़ से काहिरा का हाई वे 130 KM का ६ लेन है और इतना बढियां है, कि हर कोई १४०-१६० की स्पीड से गाडी चलाता है.

ज़ाहिर है, शहर छोडते ही ड्राईवह एहमद नें 160 KM/Hr की गति पकड ली, और अगली सीट पर बैठे बैठे मुझे ठंड में भी पसीने छूटने लगे.इसके पहिले पहली बार जब अबु धाबी से दुबई गया था तो 140 की स्पीड अनुभव की थी. मगर सच कहूं, मैंने घबरा कर एहमद से स्पीड कम करने को कहा. उसने थोडी कम ज़रूर की, मगर अचानक सामने एक आर्मी का ट्रक जो जा रहा था उसे कट मारने में चूक हो गयी.पैर ब्रेक की जगह एक्सीलरेटर पर पड गया और हम धडाम से उस ट्रक में घुस गये.

एक ज़ोरदार टक्कर हुई जिससे हमारी गाडी उछल कर ट्रक के पिछवाडे में अटक कर आधा कीलोमीटर घसीटता चला गया. भगवान की कृपा ही समझो, आगे की सीट पर बैठे होने के बावजूद, सीट बेल्ट पहनने की वजह से मुझे उस इम्पॆक्ट का असर कम लगा. मैं उस क्षण से कुछ ही सेकंद पहिले विडियो शूटिंग कर रहा था अपने छोटे केमेरे से, तो थोडा मानसिक रूप से रिफ़्लेक्स की वजह से मैने अपने शरीर को उस आघात के लिये तैयार कर लिया, मगर पीछे बैठे मेरे मित्र अविनाश चूंकि सीट बेल्ट नहीं पहने थे, और थोडा सुस्ता रहे थे, एकदम से अपने आप को सम्हाल नहीं पाये और उन्हे थॊदी ज़्यादह चोट आये. ड्राईवर एहमद के तो पंजे में फ़्रेक्चर हो गया, और सर में चोट आयी.

चूंकि गाडी को ज़्याद क्षति पहुंची और गेट भी जाम हो गये, आर्मी के जवानों ने आनन फ़ानन में हमें गाडी से उठाया. दर्द या शॊक का एहसास भी कुछ मिनीट नही रहा, और जैसे कि हम फ़िल्म देखते हैं , या सपना, मैं अपने आपको और दूसरों को गाडी में से निकालने की मशक्कत को एक त्रयस्थ याने तीसरे शख्स़ की नज़रिये से देख रहा था.

बस , किसी तरह से काहिरा से दूसरी कार मंगवाई, सूरज डूबने चला था.फ़िज़ा में ठंडक और घुलने लगी थी. हम इंदौर से लाये स्वादिष्ट नमकीन खाते हुए, अंदरूनी दर्द के बढते हुए एहसासात लिये हुए काहिरा के एक अस्पताल के लिये रवाना हुए..

संक्षेप में, जिसको राखे सांई, मार सके ना कोई. थोडा़ एक फ़ुट ज़्यादा हो जाता तो कुछ भी हो सकता था. चलो , जान बची ,लाखों पाये. अब आप से फ़िर रू ब रू होते रहेंगे.इंशा अल्लाह!!

इंशा अल्लाह. ताऊ की पहेलीयां बूझेंगे, अल्पना जी के गाने और कवितायें सुनेंगे, लावण्या दीदी के संस्मरण, समीर जी की सिगरेट की पन्नी में लिखी हुई जीवन की सच्चाईयां, अनुराग जी के होस्टल के किस्से, अनुराग शर्माजी के पोडकास्ट, मनीष कुमार के और आवाज़ के सजीव सारथी और सुजॊय के संगीतमय पोस्टें, राज भाटिया जी के जोक्स, यूनुस भाई के मधुर और अनोखे गीत लोकगीत,और जिसका इंतज़ार रहता है.. संजय भाई के संस्मरण और OLD MONK के सारगर्भित कमेंट्स का.. तो फ़िर से अविरत चलते रहेंगे.

आखिर सच ही तो कहा है कि - मुसाफ़िर हूं यारों, ना घर है ना ठिकाना, मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना...

तो देखिये , उस मंज़र की कुछ झलकियां , जो आपके लिये, अगर समय निकाल सकें तो..




ये पंक्तियां लिखते लिखते समाचार मिला कि पुणे में ओशो अश्रम के पार जर्मन बेकरी में एक आतंकवादी विस्फ़ोट हुआ. मैंने ताबड़तोब पुने फ़ोन लगाया , क्यों कि मेरी पत्नी, बेटी नुपूर और बेटा अमोघ इन दिनों वहीं हैं. पता चला वे कुशल हैं, लेकिन उस समय वे वहां से केवल आधा किलोमीटर दूरी पर थे.

ALL IS STILL WELL!!
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