शर्म आती है कि आज हम एक ऐसे युग में रहते हैं जहां हमारी प्राथमिकतायें हम तय नहीं करते, मगर राजनैतिक अखाडे के गुण्डे तय करते है.’राज’ करने के उद्देश्य से ’नैतिकता ’ के सभी बंधन नकारते हुए , ये कोहनी तक उगे हुए लोग बरगद की उंचाई नापने का दम भरते है. जनता के दिलों पर नहीं मगर उनके मानस पर भय और Arm twisting की मानसिकता लादने वाले इन बिन लादेनों की, सफ़ेदपोश गुंडों की फ़ेहरिस्त में राज ठाकरे भी शामिल हो गये है.
पुणें में हुए एक महत्वहीन फ़िल्मी समारोह में फ़िल्म की हिरोईन अंग्रेज़ी की जगह हिंदी में बोलने का प्रयास करती है, यह कह कर की सभी लोग हिंदी में भाषण दे रहें है.
तब गुड्डी जया बच्चन यह हल्के फ़ुल्के अंदाज़ में बोल पडी- मराठी वाले हमें माफ़ करें. यह एक मजाहिया चुटकी थी और इसे खिलाडी भावना से देखा जाना चाहिये. मगर राज ठाकरे नें बात का बतंगड बना दिया.
आम तौर पर जब हम humour की बातें करते है या Sense of Humour, तो हिन्दुस्तान में मराठी हास्य या व्यंग या sattire को काफ़ी समृद्ध और अग्रणी माना जाता है. अमूमन , मराठी साहित्य में गडकरी, आचार्य अत्रे, पु ल देशपांडे, वि आ बुआ आदि अनेक व्यंग साहित्यकारों नें इसमें योगदान दिया है.गद्य, पद्य, नाटक आदि विधाओं में. वैसे हिंदी में व्यंग परसाई और शरद जोशी तक ही सीमित नही रहा , बल्कि दीगर लेखकों नें अपने अपने तईं इसको एक इज़्ज़त के मकाम पर लाने की भरपूर कोशिश की. पुराने समय में संस्कृत में कालिदास,भास आदि नें भी हास्य का उपयोग किया था. हर नाटक में एक विदूषक का चरित्र होता ही था.
फ़िल्मों में भी यह प्रचलन चलता रहा, मगर कभी श्रेष्ठ हास्य या कभी फ़ूहडता लिये.दैहिक भाव भंगिमा से उपजे हास्य या प्रसंगवश निर्मित हास्य, खालिस हास्य.चार्ली चॆपलीन, लॊरेल हार्डी, जॊनी वॊकर, महमूद, गोप, राजेन्द्रनाथ ,ओमप्रकाश और अभी अभी अनुपम खेर, परेश रावल , कादर खान या असरानी . पहले तो हिंदी फ़िल्मों में अलग से विदूषक का रोल रहता था, बाद में अनेकाधिक नायक अभिनेताओं ने हास्य विधा में जोर आजमाईश की, और अब तो वह फ़र्क खतम सा ही हो गया है.
तो बात चल रही थी मराठी माणूस की और मराठी हास्यव्यंग की. मुझे याद है मेरे बचपन में व्यंग को समर्पित एक पत्रिका प्रकाशित होती थी " मार्मिक ", जिसे राज ठाकरे के चाचा और Mentor श्री बाल ठाकरे चलाते थे, जिसमें वे स्वयं एक कार्टूनिस्ट की हैसियत से भी व्यंगचित्र बनाते थे. उसमें अधिकतर राजनैतिक विषयों पर सामयिक व्यंग होते थे.बंबई में उन दिनों हो रहे दक्षिण भारतीय लोगों के बाढ के विरुद्ध वे आवाज़ उठाते थे, जिन्हे वे ’उपरे’ कहा करते थे.
आचार्य अत्रे के साथ उनकी राजनैतिक प्रतिद्वंदिता मशहूर थी. बाल ठाकरे उन्हे सूअर के रूप में कार्टून में चित्रित करते थे.मगर आचार्य अत्रे ने उसका बुरा नही माना और स्वस्थ व्यंग का मान रखा. उलटवार करते हुए उन्होनें उसी शैली में उत्तर भी दिया- देखिये भाई लोग, सुअर तो हमेशा गंदगी में (Shit) में ही पाया जाता है. तो मार्मिक में मेरा चित्र आश्चर्य की बात नहीं है!!
आज राज ठाकरे और कमोबेश में बाल ठाकरे अपनी रोटीयां सेंकनें की गरज से उन मापदंडों को भूल गये हैं , क्योंकि तब से अब तक राजनीति का विकृतिकरण आज यहां तक हो गया है कि अखिल भारतीय चरित्र के निर्माण की बजाय ये लोग क्षेत्रीय आधार पर बंटवारे की संकिर्ण मानसिकता को पोषित कर रहें है.इस रियलिटी शो के एपिसोड का अंत हुआ महानायक अमिताभ बच्चन को और गुड्डी जया बच्चन को सार्वजनिक तौर से शर्मिंदगी भरी माफ़ी से, यह और दुख की बात.
आम मराठी माणूस को भी यह समझ रहा है. अपने ही घर मुंबई में अपने अस्तित्व की लढाई का हल निकालना ज़रूरी है मगर यूं नही.मै भी मराठी हूं और गर्व से यह कहने में शर्म नही की मैं मराठी हूं. मगर उससे पहले मैं एक भारतीय हूं.
जब बात हास्य व्यंग की निकली ही है इस गंभीर मसले के ज़िक्र के बाद एक हल्की फ़ुल्की बात कहना चाहता हूं.Not to dilute the otherwise Volatile & equally touchy subject, but to establish presence & importance of Sense of Humour.
यहां पोस्ट किया गया यह चित्र जया बच्चन के उन दिनों का है जब वे जया भादुरी हुआ करती थी , और भोपाल में प्रोफ़ेसर कॊलोनी में रहती थी. वहां एक नृत्य संस्था ’कला पद्म’ में भरत नाट्यम का प्रशिक्षण लेते हुए प्रस्तुत किये गये संस्कृत नाटक मालविकाग्निमित्र पर आधारित नृत्य नाटिका का यह एक दृश्य है.साथ में है मेरी बहन प्रतिभा.
प्रोफ़ेसर कॊलोनी ने तीन चार बडी हस्तीयां दी है इस देश को. जया भादुरी, और चरित्र अभिनेता राजीव वर्मा. और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा..
अरे, ये चौथा कौन है ?
कोई नही जनाब, चौथा मैं !!!!
(अगले पोस्ट में एक व्यंग लेख का वादा)
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12 comments:
वाह ! इस मराठी माणूस को प्रणाम ।
बहुत खूब दिलीप जी. अपनी बात भी कह दी और अपने बड़प्पन का सबूत भी दे दिया. अब दो बड़ों से तो मैं मिल चुका हूँ राजीव वर्मा का नाम नहीं सुना - बस आपके दर्शन बाकी है.
Very good!
अरे वाह !
आपकी बहन जी के साथ
जया भाभी का चित्र
वाकई सँग्रहणीय है !
" सेन्स ओफ ह्युमर " का
आजकल अकाल पड गया है.
" मराठी माणूस" की बातेँ
अच्छी लगीँ -
यूँ ही लिखते रहीये ~~
- लावण्या
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर। इस विषय पर आप का लिखना महत्व रखता है।
ये पूरे देश के लिए शर्म की बात है....भाषा के नाम पर अलगाववाद भी दरअसल एक तरह का राष्ट्द्रोह है......पर हमारे देश के बुद्धिजीवी ..खास तौर से मराठी बुद्धिजीवी चुप है इसका दुःख है.....आपके साहस को प्रणाम
भाषा, धर्म , राजनीति .... कहाँ जा कर रुकेगें हम ... धिक्कार है हमारी मानसिकता पर ।
Dilipbhai
Nice blog.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
राज ठाकरे ने एक सभा में कहा कि गुड्डी बुड्डी हो गई लेकिन अकल नहीं आई। ऐसी शब्दावली राज के ओछेपन को उजागर करती है। जया जब गुड्डी थी तब भी राज से अधिक संजीदा थी। आपने सच कहा है कि राज निर्माण की नहीं विध्वंस की राजनीति कर रहे हैं। सफेदपोश गुंडो की जमात में शामिल हो गए हैं वह।
अभी मुझे एक मेल प्राप्त हुआ है जिसमें मुंबई के मराठी माणूस का भी दर्द बडे ही मार्मिक शब्दों में बयां किया गया है. संक्षेप में यह पीडा उजागर की गयी है, कि अपने ही मोहल्ले में , गली में या परिसर में आप यदि पराये हो जायें , अल्प संख्य़क हो जायें तो कैसा अनुभव होगा. उत्तर भारतीय लोगों के आगमन का नकारात्मक पहलु यह है, कि मराठी संस्कार, परिवेश और संस्कृति को ग्रहण लग रहा है.अपने संस्कारों की रक्षा करना क्या गलत है?
खैर यह उनके विचार है. यहां परेशानी यह है कि हर क्षेत्र में ’ करेगा कोई और भरेगा कोई ’ का आलम है, और जिसके हाथ में दंडा, वही भैंस चरा रहा है.अब आगे यह हो गया है, कि लठैत लठ्ठ्म लठ्ठा हो रहे है, और भैंस दूर खडी पगुरा रही है.
dilip bhau,
man to kiya ki apnee tippanee marathee me likhoon.par shayad auron ko kathinayee na ho atah aapkee(?) juban hindi me likh raha hoon.aasha hai isme hasya vyang vinod ka marathee tatva gayab na ho.
aapka likha ek ek shabd mere man me ghumad raha hai.main bhee yahee kahana chahata tha.
apne bare me thoda sanchipt.mumbai me badha pala padha likha.mujhe yad naheen ki marathee sikhee ho.jab hosh sambhala to svayam ko marathee bolte paya,sath ke bachchon ke sathh goliyan khelate.bad me hindi english gujratee bangla padhna likhna bolna seekha.mere pitamah 1911 me up se mumbai aye the.meree teesaree peedhee 'marathi hai.main dava naheen karata par raj to chodiye bal thakare bhee agar chahen to vivad naheen sanvad kar dekh len.
unake sampoorna parivar ne jitna marathee padha hoga shayad maine usase jyada hee.natak chitrapat,sangeet(natya va lok).marathi itihas sanskriti(jisakee vo duhayee de rahe hain)bhee.main bhee usee galee ka hoon.marathi mere mukhyatah mitra hain.gullee ke hee naheen,vangmaya,film,natak ke kayee sheersha bhee.yahan new york me bhee.marathi natya ham toronto tak kar aye.main sanyukta BOMBAY me paida hua.thakre's bhee mp se vahan pahunche.
mumbai ke failav aur girati nagrik suvidhavon kee baat jayaj hai lekin inke munha vah bhee naheen.inkee municipality kasi ahe,sab janate.
is parivar ne marathi man aur 'manus' ka bhavnatmak shoshan ke alava kuch bhee na kiya hai na inhe janane vale ummeed hee rakhate hain.hamare apke jaison ko age badh jabab dena hoga aur denge bhee.
main to aapke geeton me doob kar aapke manas tak pahuncha.yahan to bharat man kee ganga hee mil gayee.
kabhee mauka mile to apne 'manas' ko mere RAJSINHasan par leke aayen.vada karo "DIL SE".
aapka kathan shi hai lekin kuchh logon ki soch itni kharab ho jati hai ki use baad me badla hi nahi ja sakta
भाषावाद और क्षेत्रवाद को जबरन लादकर राजनीति करना राजनीति का मजाक बनाना है. ऐसे लोग क्षेत्र विशेष में में ही अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास करते हैं.
अनुराग जी की बात से मैं सहमत हूँ.
सराहनीय .. जारी रखें.
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