Sunday, September 7, 2008

एकलव्य - सुर ना सजे, क्या गाऊं मैं

गुरु पर्व
(वो जब याद आये, बहोत याद आये)

कल शिक्षक दिवस था. कईयों नें तो अपने अपने माड साब को याद किया होगा.अपने अपने तईं, कुछ मन से, कुछ जतन से जो यादें संजोई रखी होगी उसकी जुगाली भी की होगी.

व्यवसाय के फ़ेर में भटकने पर मजबूर दिलीप का ये दिल अंदर से कसमसा रहा है, कि कल क्यों नही कुछ लिखा. खैर, आज ही सही. हाले दिल का बयां, दिन के गुज़रने के बाद ही हो सकता है ना?अपना ब्लॊग बाद में ही सही.

तो आज आप लोग थोडा समय मेरे मन के अंतरंग को भी दे, कुछ नितांत व्यक्तिगत , स्वगत..कल से फ़िर अपने मकाम पर वापिस.

आज यहां संगीत की बात करें तो याद आते है मेरे वो गुरुजन , जिनसे मै चाहते हुए भी सीख नही पाया-

भोपाल में उस्ताद सलामत अली खां साहब, जिन्होने मुझे शास्त्रीय संगीत सिखाने का जिम्मा लिया. करीब ६ महिने सिर्फ़ सुर ही लगवाते रहे, और फ़्री स्टाईल में गवाते रहे. कहते थे की बेटा पहले सुर तो लगाओ, बंदीशें, रागमाला, तराना तो अभी दूर है.६ महिने बाद जब हायर सेकंडरी के छः माही रिज़ल्ट आया तो डब्बा गोल!! अब्बा हुज़ूर शिक्षा क्षेत्र के अग्रणी, फ़ौरन गाने पर पाबंदी लगा दी.कहा पहले इंजिनीयर बन जाओ, फ़िर गाते रहना. जब खां सहाब को बताया तो जो उनके आंसू निकले थे वो शिक्षक दिवस पर याद कर ,खुद आंसू बहा के उनसे मुआफ़ी मांग लेता हूं. आज कहां है वे?

मां को भी यह डर सताया की कही अपना बेटा गवैय्या नही बन जाये, तो उन्होने ने भी कसम डलवा दी की की कभी गाने से या संगीत से पैसे नही कमाऊंगा. आज तक निभा रहा हूं. ब्लोग तो फ़्री है ना, आप भी प्यार ही देना बस!!!

इधर इंजिनीयर बनने के बाद जब एम.बी.ए. के लिये इंदौर आया तो एक राखी बहन मिली, कल्पना जो क्लासिकल संगीत की शिक्षा ले रही थी अपने गुरु और पिता श्री मामासहाब मुजुमदार जी से.(कुमार गंधर्व के मित्र).आज वह पूरे भारत में शास्त्रीय संगीत में एक उंचा स्थान रखती है.घर पर आना जाना, सुरों की खुशबू से महकती फ़िज़ा, बघार भी लगे तो पंचम और निशाद से.. मगर फ़िर वही कहानी. जिनके गंडाबद्ध शिष्य होने के लिये सुर साधक तरसते थे, उन मामासहाब नें भी कई बार कहा. मगर होनी तो होनी ही थी.अपनी ही धुन में रहे.

उन्हे भी कल याद किया.

फ़िर अनायास ही मुड गये सुगम संगीत की ओर. गाने तो बचपन से सुनते ही रहते थे, सभी के गाने, और इसीलिये ये सभी मेरे गुरु है उन्हे भी नमन..

मन्ना डे, मुहम्मद रफ़ी, मुकेश, तलत मेहमूद, हेमंत कुमार ..
इन फ़िल्मी संगीत के मूर्धन्य गायकों ने जो पंचामृत का खजाना रख छोडा है, इसे लूट रहा हूं. अनायास ही एकलव्य की भूमिका में अपने आप को पाता हूं.यहीं से तो कानसेन बने हैं, और तानसेन बनने की ख्वाईश नही..

गज़ल की दुनिया में भी सुनने को मिला मेहंदी हसन और गु़लाम अली को..उनके लिये उनकी लंबी आयु के लिये भी दुआ की.

फ़िर अपने आध्यात्मिक गुरु भी याद आये- नानासाहेब तराणेकर महाराज, और इस्लाम की रूहानी तालीम देने वाले बाबा सत्तार जी.. और मेरी मां भी .. नमन...

नाट्य शास्त्र की अल्प तालीम के लिये विजया मेहता, और चित्रकारी के लिये सच्चिदानंद नागदेवे याद आये..

उच्च संस्कार, सादे रहन सहन और वस्तुनिष्ठ विचारों के लिये और अपने अंदर समाहित इस लेखक के प्रणेता जन्मदाता महामहोपाध्याय डॊ. प्र.ना.कवठेकर को भी व्यक्तिगत रूप से साष्टांग प्रणाम किया, देर रात तक उनकी सेवा में रहा.

अंत में whole thing is that कि मन में जो भाव उमड रहे है,उसकी अभिव्यक्ति के लिये मन्ना दा का एक मात्र गीत यहां सुनवा रहा हुं, उसे स्वीकार किजीये.. यह मूल गीत नही है.

सुर ना सजे, क्या गाऊं मैं ..

सुर की सुराही तो रीती ही रह गई.



परसों आशाजी पर कुछ.

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