पुणें में हुए एक महत्वहीन फ़िल्मी समारोह में फ़िल्म की हिरोईन अंग्रेज़ी की जगह हिंदी में बोलने का प्रयास करती है, यह कह कर की सभी लोग हिंदी में भाषण दे रहें है.
तब गुड्डी जया बच्चन यह हल्के फ़ुल्के अंदाज़ में बोल पडी- मराठी वाले हमें माफ़ करें. यह एक मजाहिया चुटकी थी और इसे खिलाडी भावना से देखा जाना चाहिये. मगर राज ठाकरे नें बात का बतंगड बना दिया.
आम तौर पर जब हम humour की बातें करते है या Sense of Humour, तो हिन्दुस्तान में मराठी हास्य या व्यंग या sattire को काफ़ी समृद्ध और अग्रणी माना जाता है. अमूमन , मराठी साहित्य में गडकरी, आचार्य अत्रे, पु ल देशपांडे, वि आ बुआ आदि अनेक व्यंग साहित्यकारों नें इसमें योगदान दिया है.गद्य, पद्य, नाटक आदि विधाओं में. वैसे हिंदी में व्यंग परसाई और शरद जोशी तक ही सीमित नही रहा , बल्कि दीगर लेखकों नें अपने अपने तईं इसको एक इज़्ज़त के मकाम पर लाने की भरपूर कोशिश की. पुराने समय में संस्कृत में कालिदास,भास आदि नें भी हास्य का उपयोग किया था. हर नाटक में एक विदूषक का चरित्र होता ही था.
फ़िल्मों में भी यह प्रचलन चलता रहा, मगर कभी श्रेष्ठ हास्य या कभी फ़ूहडता लिये.दैहिक भाव भंगिमा से उपजे हास्य या प्रसंगवश निर्मित हास्य, खालिस हास्य.चार्ली चॆपलीन, लॊरेल हार्डी, जॊनी वॊकर, महमूद, गोप, राजेन्द्रनाथ ,ओमप्रकाश और अभी अभी अनुपम खेर, परेश रावल , कादर खान या असरानी . पहले तो हिंदी फ़िल्मों में अलग से विदूषक का रोल रहता था, बाद में अनेकाधिक नायक अभिनेताओं ने हास्य विधा में जोर आजमाईश की, और अब तो वह फ़र्क खतम सा ही हो गया है.
तो बात चल रही थी मराठी माणूस की और मराठी हास्यव्यंग की. मुझे याद है मेरे बचपन में व्यंग को समर्पित एक पत्रिका प्रकाशित होती थी " मार्मिक ", जिसे राज ठाकरे के चाचा और Mentor श्री बाल ठाकरे चलाते थे, जिसमें वे स्वयं एक कार्टूनिस्ट की हैसियत से भी व्यंगचित्र बनाते थे. उसमें अधिकतर राजनैतिक विषयों पर सामयिक व्यंग होते थे.बंबई में उन दिनों हो रहे दक्षिण भारतीय लोगों के बाढ के विरुद्ध वे आवाज़ उठाते थे, जिन्हे वे ’उपरे’ कहा करते थे.
आचार्य अत्रे के साथ उनकी राजनैतिक प्रतिद्वंदिता मशहूर थी. बाल ठाकरे उन्हे सूअर के रूप में कार्टून में चित्रित करते थे.मगर आचार्य अत्रे ने उसका बुरा नही माना और स्वस्थ व्यंग का मान रखा. उलटवार करते हुए उन्होनें उसी शैली में उत्तर भी दिया- देखिये भाई लोग, सुअर तो हमेशा गंदगी में (Shit) में ही पाया जाता है. तो मार्मिक में मेरा चित्र आश्चर्य की बात नहीं है!!
आज राज ठाकरे और कमोबेश में बाल ठाकरे अपनी रोटीयां सेंकनें की गरज से उन मापदंडों को भूल गये हैं , क्योंकि तब से अब तक राजनीति का विकृतिकरण आज यहां तक हो गया है कि अखिल भारतीय चरित्र के निर्माण की बजाय ये लोग क्षेत्रीय आधार पर बंटवारे की संकिर्ण मानसिकता को पोषित कर रहें है.इस रियलिटी शो के एपिसोड का अंत हुआ महानायक अमिताभ बच्चन को और गुड्डी जया बच्चन को सार्वजनिक तौर से शर्मिंदगी भरी माफ़ी से, यह और दुख की बात.
आम मराठी माणूस को भी यह समझ रहा है. अपने ही घर मुंबई में अपने अस्तित्व की लढाई का हल निकालना ज़रूरी है मगर यूं नही.मै भी मराठी हूं और गर्व से यह कहने में शर्म नही की मैं मराठी हूं. मगर उससे पहले मैं एक भारतीय हूं.
जब बात हास्य व्यंग की निकली ही है इस गंभीर मसले के ज़िक्र के बाद एक हल्की फ़ुल्की बात कहना चाहता हूं.Not to dilute the otherwise Volatile & equally touchy subject, but to establish presence & importance of Sense of Humour.
यहां पोस्ट किया गया यह चित्र जया बच्चन के उन दिनों का है जब वे जया भादुरी हुआ करती थी , और भोपाल में प्रोफ़ेसर कॊलोनी में रहती थी. वहां एक नृत्य संस्था ’कला पद्म’ में भरत नाट्यम का प्रशिक्षण लेते हुए प्रस्तुत किये गये संस्कृत नाटक मालविकाग्निमित्र पर आधारित नृत्य नाटिका का यह एक दृश्य है.साथ में है मेरी बहन प्रतिभा.

प्रोफ़ेसर कॊलोनी ने तीन चार बडी हस्तीयां दी है इस देश को. जया भादुरी, और चरित्र अभिनेता राजीव वर्मा. और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा..
अरे, ये चौथा कौन है ?
कोई नही जनाब, चौथा मैं !!!!
(अगले पोस्ट में एक व्यंग लेख का वादा)