"आल इज वेल !!!"हां. इतने दिनों के अंतराल के बाद फ़िर आपसे मुखतिब हूं आपका ये खा़दिम.
पिछली पोस्ट के आसपास ही पिताजी को हार्ट की तकलीफ़ हुई थी और वे आई सी यू में भर्ती हो गये थे. दो हफ़्ते के मशक्कत के बाद फ़िर घर पर स्वास्थ्य लाभ, और अब लगभग दो महिने के भीतर आल इज़ वेल.
धन्यवाद हे ईश्वर!! धन्यवाद आप सभी ब्लोगर परिवार के मित्रों !!!
आज पीछे मुड कर देखता हूं तो पाता हूं कि जो भी विरासत में मिला है वह भौतिक रूप में कम ज़्यादा हो सकता है, मगर मानस के आत्मीय और आध्यात्मिक तौर पर जो भी मिला है वह अनमोल है. संस्कार, संस्कृति, साहित्य, संगीत, चित्रकारी, और आध्यात्म, सभी कुछ आज मेरे पिताजी महामहोपाध्याय डॊ. प्रभाकर नारायण कवठेकर की वजह से है. जैसे माता ही सबसे पहली गुरु है, मगर पिता भी .उनके रूप में पिता और बाद में परमपिता परमेश्वर का वजूद हर क्षण हर पल साथ लिये चलता हूं.
उस दिन एक बात बडी़ खास जेहन में ठस के रह गयी थी. जब घर पहुंचा तो पता चला पिताजी को अटेक आया है और अस्पताल ले जाने के लिये एम्ब्युलंस आ रही है. बस , वही क्षण था , १० सेकंद में निर्णय लेना था, कि क्या एम्ब्युलंस के लिये रुका जाये या स्वयं ही चला कर ले चलें... शायद , इतना भी घातक हो सकता था.
अब समझ में आया. बडे बडे प्रोजेक्ट में ऊपर के स्तर पर डिसीशन लेने में और ये निर्णय लेने में ज़मीन आसमान का अंतर है. एम बी ए का पाठ याद किया, सभी ऒप्शन्स को तौला, और सबसे बेहतर पर अमल किया. याने , जो कुछ भी हो जाये , और रुकने से अच्छा है कि खुद ही ले जाऊं.
पिताजी को गाडी में बिठाया, और गाडी अस्पताल की ओर मोडी जो सौभाग्य से बेहद नज़दीक ही था.अपोलो होस्पिटल , जिसकी इमारत करीब २५ साल से भी पहले मैने ही बनाई थी, शहर के सबसे अच्छे अस्पताल में से था, और मेरा छोटा भाई डा. गिरीश वहीं हार्ट का स्पेशलिस्ट था!!वह कहीं बाहर था और सीधे अस्पताल पहुंचने वाला था .बस एक बार उसे सौंप दूं , तो फ़िर आल मस्ट बी वेल !!
जब गाडी चली तो संयोग से सी डी डेक पर एक गीत बज रहा था.चूंकि राजकपूर जी की जन्म तिथी पास ही थी, आदत के अनुसार मैं राज जी के गाने सुन रहा था. मैं चौंक पडा:
गाना था -
हम तो जाते अपने गांव, अपनी राम राम राम....
मैं थंड और गाने के बोल सुन कर ठिठुर सा गया. क्या ये विधाता का संकेत तो नहीं?
मगर पिताजी नें भी जब ये गाना सुना तो मुझ से निश्चयी स्वर में बोले: बंद कर दो ये गाना. मैं कहीं हमेशा के लिये थोडे ही जा रहा हूं. बस दो दिन में वापस आते हैं.
मैं झूटमूट हंस पडा. मगर बाद में रेस्ट्रोस्पेक्ट में देखता हूं तो पाता हूं कि अमूमन , अधिकतर ये उनकी सकारात्मक सोच
या Positive thinking ही तो थी, जो बाद में ३ ईडीयट्स में भी विस्तृत हुई, मेनीफ़ेस्ट हुई.
अब देखता हूं तो पाता हूं कि यही सकारात्मकता ही तो जीवन के ऊबड खाबड रास्ते पर, विषम परिस्थितियों में हमें इस दुख और पीडा के सागर में डूबने से बचाते हैं, और उस पार स्मूथ सेलिंग के साथ तैरने में मदत करते हैं.
वे दिन याद आये जब विक्रम युनिवर्सिटी के कुलपति के तौर पर छात्रों से मुठभेड , अर्जुन सिंग से वैचारिक मतभेद, माम की बीमारी ... यही धनात्मक उर्जा ही तो उन्हे ८७ वर्ष के पार ले आयी है.
फ़िल्म का एक वाक्य था जो बडा ही प्रसिद्ध हुआ -
आल इज़ वेल. यह मंत्र वाकई में हमारे सिस्टम में हमारी पीडा़, दुख और परेशानी को बाई पास कर देता है, और हम सामान्य हो जाते हैं.
पिताजी के भी दो वाक्य याद आते है, अब जब ये फ़िल्म देख ली है, और इस के रीफ़रेंस में उनकी महत्ता समझ आयी.
काही विशेष नाही ...(कुछ खास नहीं) और
गम्मत आहे !! ( मज़ा है या बढिया है)
जब भी कोई परेशानी या अडचन आती थी तो वे कह देते थे -
काही विशेष नाही याने कुछ खास नहीं. ताकि उसकी ग्रेविटी या सबब थोडा हलका हो जाता था.
फ़िर अंत में बात को खत्म करते हुए वे कहते हैं,
गम्मत आहे.. याने मजा है, बढिया है, या फ़िर आल इस वेल!!!
याने उन यादों को कंट्रोल, आल्ट और डिलीट कर दिया, और मन के रेडियो में नया स्टेशन लगा दिया.
क्या कहते हैं आप सभी? बुरी यादों को कट पेस्ट करते रहने से क्या बेहतर नहीं कि हर फ़िक्र को धुएं में उडाता चला जाये (विस्मरण की धुंधलके में-सिगरेट के धुएं में नहीं).
Don't think this is escapism.This is positivity indeed.It is ability to combat weakening forces , win over it, or at least FLOAT !
मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं?