Thursday, July 2, 2009

नील मुकेश या नील नितीन...

पिछले दिनों काम के सिलसिले में छुट्टियां भी एंजोय करने का मूड हो गया था, इसलिये फ़िर गायब हो गया.

मौसम की पहली बारीश छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रसिद्ध दुर्गम किले रायगढ़ पर !!! क्या बात है. उसपर अलग से लिख रहा हूं.

कल न्युयोर्क फ़िल्म देखी. एक अलग विश्व, अलग समस्या और अलग तरीके से हेंडल किया गया वह महत्व पूर्ण विषय -

आतंकवाद!!!

शायद कबीरखान नें मुसलमानों के नज़रीये से भी पहली बार इस फ़िल्म में यह बात बताने की कोशिश की है, कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता. बात में दम है. दोनों ओर के दृष्टिकोण बडी बारीकी से और खुलासेवार पेश किये गये.अच्छा लगा.

फ़िल्म में रोशन का यह वाक्य बडा ही सारगर्भित है, जिसका सार यह है,कि एक मुसलमान होते हुए भी उसने काम के साथ कभी समझौता नही किया, और शायद अल्लाहताला नें ही उसे यह मौका दिया है, कि दुनिया में उस मुसस्सल ईमान की परख हो जाये, जिसके लिये हर मुसलमान इज़्ज़त की दृष्टि से देखा जाता है.

साथ ही में उसके जरिये यह बात भी बताई गयी कि चाहे कुछ भी हो जाये , आतंकवाद को किसी भी तर्क से जायज़ नही ठहराया जा सकता, जबकी बडी ही दुख की बात थी कि ९/११ के बाद ख्वामख्वाह मुसलमानों को तकलीफ़ों को झेलना पडा, और अमरीकी सरकार को अधिकतर इनोसेंट लोगों को छोडना पडा.




मुझे तो सबसे बढियां सीन वो लगा , जहां नील नितीन मुकेश नें अपने दादा स्वर्गीय मुकेश जी का वह गीत स्वयं गाया-

ज़िंदगी ख्वाब है, ख्वाब में झूट क्या, और भला सच है क्या!!

माशाल्लाह , बडा ही सुरीला गया है. खुदा उन्हे और ऐसे मौके दे, जहां वे गाना भी गाये.

आज मुझे पिछले साल की वह बात याद आ रही है, जो नील के पिता नितीन मुकेश जी नें एक व्यक्तिगत लंच में बताई थी, जब वे इंदौर आये थी लता मंगेशकर सन्मान समारोह में प्रस्तुति देनें.

उन्होने एक बडी ही रोचक बात बताई, कि जब फ़िल्मों के लिये नील को नाम चुनने को कहा गया तो उसे दो ओप्शन दिये गये थे--

नील मुकेश ...

या

नील नितीन...

यह बात बताते हुए नितीन मुकेश जी का सीना गर्व से फ़ूल गया था कि नील नें कहा:

मैं जो भी हूं आज अपने पिता की वजह से हूं , और साथ ही में मेरे दादाजी की भी विरासत का वारीस हू, और उनके आशिर्वाद हैं ही.

इसलिये मैं उन दोनों को मान देते हुए अपना नाम रखूंगा;

नील नितीन मुकेश..

6 comments:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

स्व. मुकेश जी जैन्टलमेन गायक थे - सच्चा और निर्मल मन
आवाज़ मेँ स्पष्ट हो जाता था
आपके पूज्य पिताजी की छवि देखकर सादर प्रणाम भेज रही हूँ -
ये फिल्म देखनी पडेगी -
काफी समेटा आजकी पोस्ट मेँ :)
स स्नेह,
- लावण्या

Abhishek Ojha said...

अभी तक नहीं देख पाया ये मूवी. 'नील नितिन मुकेश' है पूरा नाम तो?
... मुकेश तो करोडों दिलों में जिन्दा हैं ! रहेंगे !

राज भाटिय़ा said...

मुकेश जी के गीतो का मै भी दिवाना हुं, लेकिन आज कल की फ़िल्मे हम नही देखते, कभी कभार एक फ़िल्म देख ली जो भारत मै फ़ेल हुयी हो, क्योकि वो फ़िल्म ही अच्छी होती है जिसे आज के नोजवान फ़ेल कर देते है, जेसे "रेन कोट"
धन्यवाद इस सुंदर लेख ले लिये

Udan Tashtari said...

सुन्दर आलेख..मुकेश जी को कौन कब भूल पायेगा.

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत सुंदर लिखा आपने. शुभकामनाएं.

रामराम.

Alpana Verma said...

दिलीप जी ,सब से पहले तो अमोघ के चैम्पियन बनने पर ढेरों बधाई और अमोघ को ढेर सारा आशीष.इस प्रथम स्थान को पाने के बाद पिछली बार हुई निराशा को मात मिल गयी और बच्चे के मन में आत्मविश्वास बढ़ गया होगा.इश्वर आकरे आगे भी वह ऐसे ही अपने माता पिता और दादी -दादा का नाम रोशन करता रहे.
--नील नितिन मुकेश को गाते तो नहीं सुना लेकिन निश्चित रूप से अच्छी आवाज़ होगी.
यह फिल्म देखी नहीं अभी अरविन्द जी की लिखी समीक्षा पढ़ी ,आप ने भी इस के बारे में अच्छा लिखा है... अच्छी लग रही है.देखते हैं कब CD में आती है..हॉल से तो उतर चुकी है..
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