अब एक महिना पूरा चला गया नई पोस्ट के लिये. पता नहीं , मन में कई छोटे बडे विचार आकर ऊंगलीयों के कोने तक टंग जाते हैं, और की बोर्ड पर फ़िसलने को आतुर रहते है.एक कहानी की शक्ल की रेत की मूर्ति हर दिन मन में बनती है, और दूसरे दिन समय के समंदर की लहरों में घुल जाती है.
घर में शादी थी, बडे कज़िन के छोटे बेटे की शादी . सभी रिश्तेदार , दोस्त ,अपने, नये , पुराने ....फिर से मिले लीज़ रिन्यु करने जैसे, और ऊपर से नये प्रोजेक्ट की तल्खी..
वैसे कज़िन बोलते या लिखते ऊंगलियां कांपती हैं, क्योंकि बचपन से संयुक्त परिवार के आनंद को जीया है .तीनों भाईयों के परिवार के हम सब 10 भाई बहन है, तो जब कोई पूछ बैठता था तो कह देते कि १० भाई बहन है हम सब, तो चकित रह जाता था.
इन्ही दिनों हमारे कालोनी में हमारी गली या लेन की सीमेंट की सडक बनना शुरु हुई. सोचा दो दो कारें है, दो स्कूटर है, रखेंगे कहां? तो बिटिया एक स्कूटर तो अगली गली में अपने मित्र की मां के पास चली गयी कि मौसी के यहां रख देंगे.मगर वहां तो पहले से ही चार स्कूटरें खडी दिखी. अच्छा हुआ कि मौसी नें निराश नहीं किया,बस कारों की आफ़त थी. टेप वगैरे निकाल कर पिछली लेन में रख देंगे ये सोच कर जब रख दी, और सुबह जब आफ़िस के प्युन के साथ लेने गये तो चौकिदार नें अडा दिया- बाबुजी, गाडी यहां नहीं रख सकते. वह उस लेनवालों के चंदे का जाया था इसलिये कुछ जिरह करने की बजाय, उससे प्रेम से ,मुस्कान का लिफ़ाफ़ा थमाते हुए कहा कि भाई हमारे यहां प्राब्लेम है इसलिये रखा है. मेरे प्युन को लगा मेनेज करना पडेगा, जिस के लिये कटकट कर रहा है, तो उसनें कहा, भै्य्या देख लेंगे..
तो सोच के विपरीत वह बोला, साहब, रात को जब आप रख कर चले गये तो लगा कहीं मिलने आये होंगे, चले जायेंगे. मगर जब नहीं आये तो मैं रात भर किसी आशंका से परेशान रहा, और गाडी के पास ही चक्कर काटता रहा. यहां इस गली में हर चीज़ मेरी जिम्मेदारी पर है.इसलिये आप इस गाडी को रख सकते हैं मगर मेरी गुमती की पास के खाली प्लॊट पर ताकि मैं नज़र रख सकूं.
हम सभी तभी परिक्षा के मंजर से गुजरते है, जब इस तरह के छोटे मगर महत्वपूर्ण अनुभवों से गुज़रते है. जिसे मेनेज करने चले थे उसने ही सरल और आत्मीय व्यवहार से हमें मेनेज कर दिया.
मुझे एक शेर याद आ गया जो कहीं पढा था -(कुछ इसी तरह)
मेरी मां न जाने कितनी ही रातें सो नहीं पायी,
मैने कभी ऐसे ही कह दिया था कि डर लग रहा है.
तब से दोनों गाडीयां हर रात को वहां लगती थी. सुबह का चौकिदार हमेशा घूर घूर कर देखता रहा, सोचा उसे तो कुछ देना ही पडेगा, मगर उसकी नज़र से यूं लगता था कि हम कोई गुनाह कर रहें है, इसलिये मैने पत्नी नेहा से कहा था कि रात वाले को ज़रूर दे देंगे, इन्सानियत का तकाज़ा है. हम हर महिने में एक बार तो मल्टीप्लेक्स में जब फ़िल्म देखनें जाते है, तो सहज ही ६-७०० रुपये लग जाते है.तो सोचा कितना ठीक रहेगा? १००-२००-५००? समझ नही आया,सोचा जब आयेगी तो देखेंगे.
आज अभी हम एक फ़िल्म देखनें गये थे, आखरी शो.देहली -६. किसी नें कहा बोर है, ६-७ सौ डूब जायेंगे. मगर कल टूर पर निकल रहा हूं तो सोचा परिवार के साथ देख ही लेते हैं.किसी कारणवश थोडा लेट हो गये थे तो मल्टीप्लेक्स एड्लेब की बजाय पास की श्रमिक बस्ती से लगी टाकीज़ में चले गये. १५० रु. की जगह ६० रु. का टिकट देख कर संतोष हुआ.नेहा वैसे भी नाराज़ थी , बेटा भी कि कहां ले आये हो. मैने कहा- देखो, एक तो आर्थिक मंदी है, दूसरा फ़िल्म की अच्छी रिपोर्ट नहीं है,तो रिस्क कम रहेगी. तीसरे, तुम तो रात को हर फ़िल्म में झपकी ज़रूर लेती हो, तो क्या फ़रक पडेगा तुम्हे.
हर चीज़ के दो पहलू थे. टाकीज़ में पुराने दिनोंकी यादें अस्त व्यस्त हर कोनें में छिटकी पडी थी मेरे लिये. स्टाल की जाली वाली लाईन में फ़िल्म के पहले शो के लिये सुबह से लाईन लगाना याद आया. बाद में मच्छरदानी के किसी खुले कोने में से घुसने वाले मच्छरों की भांति हाल मे घुसने के बाद बिना नम्बर की सीटॊं पर पंखे के नीचे बैठने की वो कवायद भी याद आयी. ( १० पैसे में कोकाकोला पिया था जाली में से हाथ बाहर निकाल कर).मगर ,नेहा और बेटे अमोघ के लिये कुछ असहज सा अनुभव.
यहां तो बालकनी खाली पडी थी, फ़िर भी किसी पंखे के नीचे बैठ गया. पहले गेट कीपर जहां बिठा रहा था जिस पंखे के नीचे, तो मना कर दिया, क्योंकि पता था वह पंखा चलते हुए शोर करता था. आज भी इतने सालों में मैं वही, पंखा वही, और शोर वही.(या कुछ बढ गया)अब तो सभी पंखे शोर कर रहे थे.
फ़िल्म शुरु हुई, सामने की सीटों के पिछवाडे में पडी पान की पींक की महक लेते हुए,मसक्कली गाने पर नीचे से आती हुई सीटीयां और फ़ब्तियां कसने का पुराना नोस्टालजिया वाला माहौल , खटमलों का अंदेशा लिये फ़िल्म देखी.इंटरवल में समोसे खुले है, इसलिये नहीं खाये, क्रीमरोल मिल गया पन्नी में लिपटा तो बेटे अमोघ को दिलाया,खारे दाने लिये और खुद मौसम का पहला कोल्ड ड्रिंक पिया. ३५ रु में वह सब लिया जो २०० रु. में लाईन मे लग कर एडलेब में लेते थे(दाने और क्रीमरोल कहां मिलेंगे वहां?). ५०० रुपये बच गये जनाब.
फ़िल्म तो अच्छी लगी. पुरानी दिल्ली का एम्बियेंस , वातावरण निर्मिती अच्छी की है. ज़रा हेंडलिंग अलग है, केमेरे मूव्हमेंट और गंगा जमुनी तेहज़ीब, एक सहज सा अहसास. मैं भी एयर कंडीशन मल्टीप्लेक्स की जगह ज़मीन से जुडा, अपने ओहदे, सामाजिक प्रतिष्ठा और ऊंची नाक को पार्किंग किये गये कार में छोड आया था.पत्नी नें भी बडे दिनों बाद पूरी फ़िल्म देखी.(क्या करे)
बाद में काले बंदर के हमले में पुरानी हिंदी फ़िल्मों की रेसेपी घोल कर ओम प्रकाश मेहरा नें हमें पिलाया.फ़िल्म की रामलीला में सीता हरण पहले होता है, बाद में शबरी के बेर, इस पर बेटे की आपत्ती को खारीज कर अपने अपने मन के अंदर छिपे काले बंदर के अस्तित्व को नकारते हुए हम सभी मानसिक जन गण मन करते घर लौटे.
चूंकि रोड बन चुका था हमने सीधे घर में गाडी पार्क की. रात के एक बजे थे, पत्नी नें कहा चौकिदार का क्या किया? मैने सोचा कल शाम को तो बाहर चला जाऊंगा, और सुबह वाले चौकिदार को तो एक पैसा नहीं देना है, क्योंकि उसका घूरना मन को खंरोच मार गया था.वह रात वाला भी सोचेगा कि साहब की गाडी अब नही लगेगी, और साहब गच्चा दे गये,इनाम नही दिया.काला बंदर मन के कोने में दुबके बैठा होगा यूं एक पल लगा. लेकिन नहीं, रावण के साथ फ़िल्म में ही हम सभी उसे जला कर आये थे.लेकिन शायद उसका बाल रह गया होगा.मन दुविधा में था.
तो मन नें निश्चय किया कि अभी जायेंगे और और चौकिदार को पैसे (इनाम) दे आयेंगे. नेहा नें कहा, ज़रा ठीक ही देना. अब ठीक से क्या मतलब, मैने पूछा- कम या ज़्यादा? तो उसनें कहा कि थोडा अधिक ही देना. रात को जब भी वो अपनी गाडी लगाती थी तो उसको भी बडे आदर से वह चौकिदार अदब से खडा रहता था, बजाय सुबह के चौकिदार के, जो उसे भी यूं घूरता था जैसे, गाडी चोरी कर के ले जा रहे है.व्यवहार की खरोंच उसे भी नागवार गुज़री थी.
मैने सोचा आज ५०० रुपये बच गये है, अपने लिये कोई खास कीमत नहीं होगी, मगर उस चौकिदार के एक हफ़्ते की तनख्वाह का इन्तेज़ाम होगा. तो नोट निकाला, थोडा चल कर चौकिदार की गुमटी में पहुंचकर उसे आवाज़ दी. वह सडक पर ही दूर से आता नज़र आया. देर हो रही थी, मैने, उसे वहीं ५०० रुपये का नोट देते हुए कहा कि लो इनाम लो , गाडी देखने के लिये. वह पास आया, अंधेरे में से उजाले में और बोला धन्यवाद,. मैं चौंक पडा. ये रातवाला चौकिदार नहीं था, बल्कि सुबह वाला था. तम्बाखू से सने दांत दिखाते हुए १५ दिनों में पहली बार सलाम किया.
मैं सकपका गया. उससे कडक कर पूछा रातवाला चौकिदार कहां गया?
उसने बडे संवेदनारहित भाव से कहा- साहब वो तो कल रात ही मर गया. इसीलिये आज से मै रात को............
मुझे बाद में कुछ सुनाई नही दिया. घर लौटते हुए रात की खामोशी में मन के अंदर के काले बंदर के बाल के चुभने की वेदना
से कसमसाया मै,(सुबह वाले चौकिदार को ५०० रुपये व्यर्थ देने की पीडा लिये), लेपटोप के कीबोर्ड के माध्यम से उस रात के अनाम गरीब संस्कारित चौकिदार को मन की मुखाग्नि देने के प्रक्रिया में लगा हुआ हूं.
Sunday, March 1, 2009
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8 comments:
अरे :-( देर हो गई ना ?सौ. डा. नेहा जी को भी बहुत दुख हुआ होगा ...आगे देहली ६ के बारे मेँ पढना जितना अच्छा लगा अँत आते आते मन उदास हो गया जी ...थियेटर का वर्णन जुहु पे लिडो सिनेमा की याद दिला गया ...
और ये "दाने" क्या होते हैँ ?
कई बार हम चूक जाते हैं फिर अफ़सोस होता है ..
sahi kaha rajana ji ne chukane ke baad hi afsos hota hai.... kya kare,, kuchh kar bhi nahi sakte ...
arsh
लावण्या जी,
दाने याने मूंगफ़ली के दाने जो खारे किये हुए मिलते है. मक्डोवेल में नही सकते.
बडे दिनों से आपको एक बात बताना चहता था, भूल गया. आपकी एक पोस्ट पर आपने मुक्ति के बारे में लिखा था, उसपर आगे लिखना चाह रहा था. आशा है इज़ाज़त होगी. उसी तरह से अनुराग शर्मा जी की पोस्ट गायों पर बडी अच्छी थी, जिसपर लिखना है.
सीमाजी के मेनेजमेंट के फ़ंडे सटीक और अनुसरणीय है, उसपर भी लिखना चाहता हूं. आप सबसे अनुमती भी तो ज़रूरी है.
यही तो विचारों पर जुगाली है, जो हमारे विचारों को शुद्ध करता है.
वाह अब पश्च्तवे होत क्य जब सुबह वाला चोकी दार ले गया नोट, लेकिन अब तो वो ही रात को भी आयेगा.... बहुत ही सुंदर लिखा आप ने
धन्यवाद
'जिसे मेनेज करने चले थे उसने ही सरल और आत्मीय व्यवहार से हमें मेनेज कर दिया. '
एक tarf rochak sansmaran रहा मगर ant में chaukidaar wali बात पढ़ कर मन dukhi भी हुआ..
ज़िन्दगी hamen हर बार dusra mauka नहीं deti.
शायद इस को kismat भी kahtey हैं.
एक chalchitr की तरह sara vivran था..yakinan आप बहुत achcha likhtey हैं.
आप जानते है इस फिल्म को देखने के बाद मेरे मन भी कई तरह के विचार उमडे थे ...चौकीदार के बारे में जानकार दुःख हुआ .कई बार बहुत कुछ अनकहा सा रह जाता है ओर ऐसा लगता है जाने अनजाने हमने कोई अपराध किया है ...इस फिल्म में आइना लेकर घूमने वाला फ़कीर मुझे सबसे बेहतरीन चरित्र लगा ...एक बात ओर आप जैसे सवेदनशील इंसान जब तक हमारे समाज में रहेगे .मुझे इस समाज की मजबूती पर विशवास रहेगा
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