Thursday, October 9, 2008

खिसके हुए लोग - वोटरों का दशहरा

आज विजया दशमी है.

असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीकात्मक दिवस!!

प्रतीकात्मक इसलिए की अब यह बात मात्र प्रतीक के रूप में ही रह गयी है.
आज वह समय आ गया है ,जहाँ सत्य और असत्य की परिभाषाएं एक दूसरे में गड्डमड्ड हो गईं है. जिसे चाहे वो अपने अपने अर्थ लगा कर नमरूद हुआ जा रहा है , सितमगर हुआ जा रहा है. बुद्धिजीवी तर्क या कुतर्क के बल पर चाँद को भी सूरज सिद्ध कराने में धन्य हो रहा है. जो बुद्धिजीवी नही है, वह बावला तो और ही मस्त है. उसे तो चरने के लिए पूरा मैदान खुला है.


आज जब विजया दशमी पर लिखने की सोची तो रावण के किसी अच्छे (?)चित्र को ढूंढने की कवायद शुरू हुई, तब जा कर रावण का उपरोक्त चित्र या कार्टून प्राप्त हुआ. चित्र H.T. से साभार

(जो जानकार नहीं है उन्हें बता दूँ कि चित्र में रावण दायीं तरफ़ है!)


इस चित्र से याद आया कि पिछले दिनों में हमारे प्रदेश में चुनाव का बिगुल बज उठा. ज़ाहिर है कि किसी भी ईंट को उखाडो , दो तीन नेता तो निकल ही आयेंगे. शहर का यह आलम है कि जगह जगह कुकुरमुत्ते की तरह पोस्टर उग आए हैं, जिसमें किसम किसम के नेताओं के फोटू लग रहें हैं. नेता - बड़े ,छोटे, कबर से निकल कर आए हुए, छुटभैये, युवा दिल की धड़कन, युवा सम्राट ( उम्र ६५ साल) सभी.

बिल्ली के भागों छींका टूटा और शहीद भगतसिंग की जयन्ती निकल आई.
फ़िर क्या था, हमारे शहर में जयन्ती मनाने की बाढ़ सी आ गयी. कोंग्रेस ने तो भगतसिंग को पुश्तैनी मिलकियत समझा हुआ है.शहर में गाडी़यों पर पोस्टरों के साथ कान फ़ाड़ू देशभक्ति के तरानों को गाते (?) इन वीरों को देख कर लगा कि हम भी भगतसिंग के साथ शहीद हो जाते तो अच्छा होता , आज का ये दिन तो नही देखना या सुनना पड़ता. भाजपाई भी कमज़ोर नहीं निकले . वे नए शहीदों को तलाश कराने में जुट गये, जिनका भगतसिंग से कोई संबंध कहीं ना कहीं आया हो. आनन फानन में पोस्टरों पर फोटूओं की बरसात होने लगी और पांच साल से लटके हुए सब्र के फल टपकने लगे.

अपने ब्लॉग जगत के पुराने उस्ताद अफलातून जी नें आगाज़ पर छपे भगतसिंग के एक फोटो को मैंने किसी ऐसे ही जलसे में पधारे विधायक जी को दिखा कर पूछा कि " पैचान कौन ? " , तो वो चौंक कर बोल पड़े थे - कोई आतंकवादी है क्या?

अब आया त्योहारों का मौसम. नवदुर्गा , गरबा महोत्सव और दशहरा का घर चल कर आया हुआ चांस. युवक, युवतियों से कहीं ज़्यादा रोमांचित हो उठे ये चुनाववीर !! लगभग सभी गरबा मंडलों पर एक एक ,दो दो नें कब्ज़ा कर लिया. जो बच गए , वे चले गए रावण दहन समिती में. सब जगह फ्लेक्स की कृपा से पोस्टरों पर पोस्टर छपने लगे.पहले चित्र पेंट किए जाते थे तो धोका रहता था, की बनाया तो था सांपनाथ जी का चित्र, बन गया नागनाथ जी का !! जनता तो बेवकूफ थी. ( अब भी है! ) ज़रा चित्र में गलती हुई नही की वोट बैंक खिसक जाता था. ( आज भी खिसकता है) .इसलिए इन खिसके हुए वोटरों के लिए ना जाने क्या क्या पापड़ बेलने पड़ रहे है इन उद्यमशील बन्दों को.वैसे बीच में गांधीजी और शास्त्री जी भी आ कर चले गये, लेकिन इतने सारे कामों की व्यस्तता में वे उपेक्षित ही रह गये. वैसे भी आजकल उनकी प्रासंगिकता है कहां?

मगर ये क्या , सैंकडों रावणों में बेचारे असली रावण का वजूद तो कोने में खिसक गया. रावण की भी तो ज़रूरत है हमें . काला नही होगा तो सफ़ेद को कौन पूछेगा? हर इंसान में तो राम और रावण बसता है. बस ग्रे रंग की स्केल का फरक है. जरूरत है किसी अच्छे डिटर्जेंट की.



आज सरस्वती का दिवस भी है ...!!!


मेरे एक जानकार मित्र नें मुझसे पूछा कि आज के दिन तो हम विजयोत्सव के रूप में मनाते है, जहां शस्त्रों का पूजन होता है. हम सीमोलंघन कर सोना लूट कर लाते है, और बुजुर्गों का आशिर्वाद लेते है.इसमें बुद्धि की देवी सरस्वती का क्या प्रयोजन.

तो मैं कई साल पहले यादों के गलियारे में , अपने बचपन में चला गया.

हमारे पूर्वज करीब दो सौ सालों से इन्दौर के राजघराने होलकर राजवंश के राजगुरु हुआ करते थे.ये होलकर पुणें के पेशवा के सुबेदार थे, और शिन्दे , पवार , गायकवाड़ के समान, इन्दौर ( मालवा ) पर सुबेदारी करते थे.राजगुरु होने की वजह से राज्य में होने वाले सभी धार्मिक कार्य, पूजा अधिष्ठान इत्यादि उनके देखरेख में हुआ करते थे.राज पाट जाने के बाद भी यह चलता रहा, हमारे दादाजी और ताऊजी तक.

उन दिनों बडे़ बड़े त्योहारों पर विशेश उत्सव और आयोजन हुआ करते थे, जैसे दिवाली दशहरा, होली आदि. अनन्त चौदस एवं मोहर्रम आदि पर्वों पर सरकारी झांकी निकला करती थी और सभी धर्मों के लोग उसमें भाग लेते थे. मुझे याद है मोहर्रम के ताज़िये खा़स कर हमारे घर के सामने से गुजरते थे, क्योंकि महाराज की ओर से हमारा परिवार उसकी पूजा करता था.

तो दशहरे के दिन भी शाम को महाराज लाव लश्कर के साथ दशहरा मैदान में जाते थे. वहां शस्त्र पूजन और शमी पूजन करने के बाद रावण दहन का कार्यक्रम संपन्न हुआ करता था.

हम भी बड़े चाव से उस जलूस या शोभायात्रा में हाथी पर बैठ कर शामिल होते थे, और रास्ते में पड़ने वाले इमली के पेड़ों से इमली तोड़ कर खाते थे!!(आजकल इसे रैली कहते है!!)

जब हम वापिस आते थे तो हमारे घर कि स्त्रियां हमारी नज़र उतारती थी, और ’औक्षण" कर आरती उतारती थी. फ़िर हम एक पवित्र स्थान पर शिक्षा की देवी बुद्धि की देवी मां सरस्वती के चित्र के समीप अपने सभी पाठ्यपुस्तकें , कॊपी कलम, या पाटी पेम इत्यादि रख कर उनकी पूजा करते थे.

मैंने एक बार अपने दादाजी से पूछा भी था- नाना, आज जब सभी शस्त्रों की पूजा कर रहे हैं तो हम क्यों अपने पुस्तकों आदि की पूजा कर रहें है?

दादाजी नें बडा़ ही सारगर्भित उत्तर दिया-

"बेटे, हम लोग धर्म और आध्यात्म के सिपाही हैं और सात्विकता के शस्त्रों का वरण करते है- याने शास्त्र! ये शास्त्र, या बुद्धि ही हमारी आराध्य देवता है. राजा एवं उनके सिपाहीयों को प्रजा की रक्षा हेतु राजसिक तत्वों का याने के शस्त्रों का वरण करना धर्म सम्मत है.इसीलिये हम बुद्धि के उपासक आज सरस्वती की आराधना करते है.
एक और बात. आज से २० दिनों बाद लक्ष्मी की पूजा आराधना कर हम अपने उन्नती और खुशहाली का वरदान जब मांगेंगे तब यही बुद्धि हमें सदाचरण का मार्ग पहचानने में हमारी मदत करेगी और उस संपत्ति का सही विनियोग करनें में हमें विवेकहीन बनने से बचायेगी."


मैंने आज भी शाम को अपने बच्चों के साथ पूजा कर अपने पिताजी का आशिर्वाद लिया-

विद्वान सर्वत्र पुज्यते..

7 comments:

Anonymous said...

what happened to the other one?

Anonymous said...

help me.

Anonymous said...

help me.

Unknown said...

bindas
kripya dekhe .neta or dashahara.
http://yamaraaj1.blogspot.com/2008/10/blog-post.html

P.N. Subramanian said...

सरस्वती पूजा के बारे में जो अपने लिखी है एकदम सही है. मुझे भी याद है कि हम लोग नवमी के दिन अपनी किताबें मा सरस्वती के चरणों में रख देते थे. पढ़ाई लिखाई फिर एकदम बंद. दूसरे दिन पूजा पाठ के बाद सभी बच्चों को उनकी किताबें दे दी जाती थीं और उनसे पढ़ने कहा जाता था. आभार.

Suresh Kumar Sharma said...

दुनिया की क्रांतियों का इतिहास कहता है कि परिवर्तन के लिए दो चीजों की आवश्यकता है । एक अकाट्य तर्क और दूसरा उस तर्क के पीछे खड़ी भीड़ । अकेले अकाट्य तर्क किसी काम का नही और अकेले भीड़ भी कुम्भ के मेले की शोभा हो सकती है परिवर्तन की सहयोगी नही ।
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इस युग के कुछ अकाट्य तर्क इस प्रकार है -
* मशीनों ने मानवीय श्रम का स्थान ले लिया है ।
* कम्प्यूटर ने मनवीय मस्तिष्क का काम सम्भाल लिया है ।
* जीवन यापन के लिए रोजगार अनिवार्य होने की जिद अमानवीय है ।
* 100% रोजगार सम्भव नही है ।
* अकेले भारत की 46 करोड़ जनसंख्या रोजगार के लिए तरस रही है ।
* संगठित क्षेत्र में भारत में रोजगार की संख्या मात्र 2 करोड़ है ।
* दुनिया के 85% से अधिक संसाधनों पर मात्र 15 % से कम जनसंख्या का अधिपत्य है ।
* 85 % आबादी मात्र 15 % संसाधनों के सहारे गुजर बसर कर रही है ।
धरती के प्रत्येक संसाधन पर पैसे की छाप लग चुकी है, प्राचीन काल में आदमी जंगल में किसी तरह जी सकता था पर अब फॉरेस्ट ऑफिसर बैठे हैं ।
* रोजगार की मांग करना राष्ट्र द्रोह है, जो मांगते हैं अथवा देने का वादा करते हैं उन्हें अफवाह फैलाने के आरोप में सजा दी जानी चाहिए ।
* रोजगार देने का अर्थ है मशीनें और कम्प्यूटर हटा कर मानवीय क्षमता से काम लेना, गुणवता और मात्रा के मोर्चे पर हम घरेलू बाजार में ही पिछड़ जाएंगे ।
* पैसा आज गुलामी का हथियार बन गया है । वेतन भोगी को उतना ही मिलता है जिससे वह अगले दिन फिर से काम पर लोट आए ।
* पुराने समय में गुलामों को बेड़ियाँ बान्ध कर अथवा बाड़ों में कैद रखा जाता था ।
अब गुलामों को आजाद कर दिया गया है संसाधनों को पैसे की दीवार के पीछे छिपा दिया गया है ।
* सरकारों और उद्योगपतियों की चिंता केवल अपने गुलामों के वेतन भत्तों तक सीमित है ।
* जो वेतन भत्तों के दायरों में नही है उनको सरकारें नारे सुनाती है, उद्योग पति जिम्मेदारी से पल्ला झाड़े बैठा है ।
* जो श्रम करके उत्पादन कर रही हैं उनकी खुराक तेल और बिजली है ।
* रोटी और कपड़ा जिनकी आवश्यकता है वे उत्पादन में भागीदारी नही कर सकते, जब पैदा ही नही किया तो भोगने का अधिकार कैसे ?
ऐसा कोई जाँच आयोग बैठाने का साहस कर नही सकता कि मशीनों के मालिकों की और मशीनों और कम्प्यूटर के संचालकों की गिनती हो जाये और शेषा जनसंख्या को ठंडा कर दिया जाये ।
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दैनिक भास्कर अखबार के तीन राज्यों का सर्वे कहता है कि रोजगार अगले चुनाव का प्रमुख मुद्दा है , इस दायरे में 40 वर्ष तक की आयु लोग मांग कर रहे हैं।
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देश की संसद में 137 से अधिक सांसदों के द्वारा प्रति हस्ताक्षरित एक याचिका विचाराधीन है जिसके अंतर्गत मांग की गई है कि
* भारत सरकार अब अपने मंत्रालयों के जरिये प्रति व्यक्ति प्रति माह जितनी राशि खर्च करने का दावा करती है वह राशि खर्च करने के बजाय मतदाताओं के खाते में सीधे ए टी एम कार्डों के जरिये जमा करा दे।
* यह राशि यू एन डी पी के अनुसार 10000 रूपये प्रति वोटर प्रति माह बनती है ।
* अगर इस आँकड़े को एक तिहाई भी कर दिया जाये तो 3500 रूपया प्रतिमाह प्रति वोटर बनता है ।
* इस का आधा भी सरकार टैक्स काट कर वोटरों में बाँटती है तो यह राशि 1750 रूपये प्रति माह प्रति वोटर बनती है ।
* इलेक्ट्रोनिक युग में यह कार्य अत्यंत आसान है ।
* श्री राजीव गान्धी ने अपने कार्यकाल में एक बार कहा था कि केन्द्र सरकार जब आपके लिए एक रूपया भेजती है तो आपकी जेब तक मात्र 15 पैसा पहूँचता है ।
* अभी हाल ही में राहुल गान्धी ने इस तथ्य पर पुष्टीकरण करते हुए कहा कि तब और अब के हालात में बहुत अंतर आया है आप तक यह राशि मात्र 3 से 5 पैसे आ रही है ।
राजनैतिक आजादी के कारण आज प्रत्येक नागरिक राष्ट्रपति बनने की समान हैसियत रखता है ।
जो व्यक्ति अपना वोट तो खुद को देता ही हो लाखों अन्य लोगों का वोट भी हासिल कर लेता है वह चुन लिया जाता है ।
* राजनैतिक समानता का केवल ऐसे वर्ग को लाभ हुआ है जिनकी राजनीति में रूचि हो ।
* जिन लोगों की राजनीति में कोई रूचि नही उन लोगों के लिए राज तंत्र और लोक तंत्र में कोई खास अंतर नही है ।
* काम के बदले अनाज देने की प्रथा उस जमाने में भी थी आज भी है ।
* अनाज देने का आश्वासन दे कर बेगार कराना उस समय भी प्रचलित था आज भी कूपन डकार जाना आम बात है ।
* उस समय भी गरीब और कमजोर की राज में कोई सुनवाई नही होती थी आज भी नही होती ।
* जो बदलाव की हवा दिखाई दे रही है थोड़ी बहुत उसका श्रेय राजनीति को नही समाज की अन्य व्यवस्थाओं को दिया जाना युक्ति संगत है ।
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राष्ट्रीय आय में वोटरों की नकद भागीदारी अगले चुनाव का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए ।
* अब तक इस विचार का विस्तार लगभग 10 लाख लोगों तक हो चुका है ।
* ये अकाट्य मांग अब अपने पीछे समर्थकों की भीड़ आन्धी की तरह इक्क्ट्ठा कर रही है ।
* संसद में अब राजनीतिज्ञों का नया ध्रूविकरण हो चुका है ।
* अधिकांश साधारण सांसद अब इस विचार के साथ हैं । चाहे वे किसी भी पार्टी के क्यों न हो ।
* समस्त पार्टियों के पदाधिकारिगण इस मुद्दे पर मौन हैं ।
* मीडिया इस मुद्दे पर कितनी भी आँख मूँद ले, इस बार न सही अगले चुनाव का एक मात्र आधार 'राष्ट्रीय आय मं. वोटरों की नकद भागीदारी' होगा, और कुछ नही ।
* जो मिडिया खड्डे में पड़े प्रिंस को रातों रात अमिताभ के बराबर पब्लिसिटी दे सकता है उस मीडिया का इस मुद्दे पर आँख बन्द रखना अक्षम्य है भविष्य इसे कभी माफ नही करेगा|
knol में जिन संवेदनशील लोगों की इस विषय में रूचि हो वे इस विषय पर विस्तृत जान कारी के लिए fefm.org के डाउनलोड लिंक से और इसी के होम पेज से सम्पर्क कर सकते हैं ।
मैं नही जानता कि इस कम्युनिटी के मालिक और मोडरेटर इस विचार से कितना सहमत या असहमत हैं परंतु वे लोग इस पोस्टिंग को यहाँ बना रहने देते हों तो मेरे लिए व लाखों उन लोगों के लिए उपकार करेंगे जो इस आन्दोलन में दिन रात लगे हैं ।
सांसदों का पार्टीवार एवं क्षेत्र वार विवरण जिनने इस याचिका को हस्ताक्षरित किया, वेबसाइट पर उपलब्ध है ।

Smart Indian said...

दिलीप भाई, बहुत सुंदर लिखा है आपने. सच में आज के समाज में सत्य-असत्य की परिभाषाएं गडबडा गयी हैं - क्योंकि उनके गडबडाने में ही स्वार्थ-सिद्धि सरल होती है. सीधा-सरल सत्य लिखें तो व्यंग्य लगता है और व्यंग्य करें तो सर के ऊपर से गुज़रता है. चित्र में रावण की पहचान बताने का शुक्रिया. आज की सच्चाई आपके निम्न कथन से हे ज़ाहिर हो गयी:-
भगतसिंग के एक फोटो को मैंने किसी ऐसे ही जलसे में पधारे विधायक जी को दिखा कर पूछा कि " पैचान कौन ? " , तो वो चौंक कर बोल पड़े थे - कोई आतंकवादी है क्या?

शोभायात्रा शोभायात्रा और सरस्वती-पूजन की जानकारी अच्छी लगी. पिछले लेख भी पढ़े और बहुत सारगर्भित लगे.

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