आप सब देशवासियों और मेरे ब्लॊग के अंतरंग मित्रों,
आप सभी को इस दिवाली पर सुख और समृद्धि के साथ हार्दिक शुभकामनायें...
सुख दिल के गहराई में , अंतर्मन में स्थाई रूप से वास करे...
समृद्धि मानस के विचारों की, बुद्धि और विवेक के वस्तुनिष्ठ एवं उपयुक्त उपयोग के समझ की....
सर्वेSत्र सुखिन: सन्तु ,
सर्वे सन्तु निरामय ,
सर्वे भद्राणे पश्यन्तु,
मा कश्चिद् दु:खमाप्नुयात् ...
और साथ ही भौतिक स्वरूप के सुख और समृद्धि की भी आप के और आपके परिवार में कभी कमी नहीं आये, ये जगत पिता ईश्वर से तहे दिल से प्रार्थना...
आप इसी तरह यहां इस ब्लोग पर आकर अपने विचारों से इसे और समृद्ध बनायें , और समाज में व्याप्त घृणा और असंतोष के इस संवेदनशील वातावरण में सच्चे और शांतिमय सुझावों और साझा मानसिकता की कड़ी बनाकर सभी सभ्य और असभ्य जनों को सुखी बनायें ,यही कामना..
सुखं हि दु:खान्यनुभूय शोभते,
घनांधकारेश्विव दीपदर्शनम्...
(मृच्छकटिकम् - शूद्रक)
घोर अंधकार में जिस प्रकार दीपक का प्रकाश सुशोभित होता है,
उसी प्रकार दुख का अनुभव कर लेने पर सुख का आगमन आनंदप्रद होता है.
आमीन..
Tuesday, October 28, 2008
Tuesday, October 21, 2008
Raj Thakare राज ठाकरे की गुंडागिर्दी-यूपी,बिहार की लठैत संस्कृति - आंखों देखी..
काफ़ी दिनों बाद आपसे मुखा़तिब हूं. इस बार ज़रा बाहर था, मुम्बई तक काम के सिलसिले में गया था. आपबीती आपके नज़र कर रहा हूँ .
सीन -१ ( मुम्बई )
सुबह मुम्बई सेंट्रल पहुंच कर मैने जब टॆक्सी वाले को कहा की दादर जाना है, तो उसने दादर का पता पूंछा.मैने कहा - शिवसेना भवन के पास,(मेरा होटल वहीं है), तो वह चौंका और जाने के लिये मना करने लगा. आपनें तो सुना, पढा़ ही होगा, कि श्रीमान राज ठाकरे को कल रात ही गिरफ़्तार किया गया था. मुझे पता नहीं था. वह ही नही, कोई भी टॆक्सी वाला वहां जाने के लिये तैय्यार नहीं हुआ.पता यह भी चला कि रात में राज ठाकरे के गुण्डों ने उत्तर भारतीय चालकों की टॆक्सीयां के कांच भी फ़ोडे थे.कहीं कोई मारपीट भी हुई थी .
मैं परेशान सा सोचने लगा कि क्या किया जाये, तो एक हिम्मतवाला ड्राईवर होटल से थोडा पहले छोडने को राज़ी हुआ. किस्मत से होटल के पास कोई गतिविधि नही देख कर टॆक्सी को घुमा कर होटल छोडने को जब मेरी गाडी मुडी ही थी, कि अचानक गली में से कुछ युवकों का हुजूम निकला, और वे नारेबाज़ी करते हुए मेरी टॆक्सी की ओर बढे. मैं समझ गया की ये वही उपद्रवी हैं जिनके बारे में अब तक कहा गया है.बहस करना व्यर्थ था, फ़िर भी साहस जुटा कर मैं टेक्सी से बाहर आकर उनसे मराठी में बातें कर उनका ध्यान बांटने का यत्न कराने लगा. लेकिन उससे पहले ही हमारी गाडी के विंडस्क्रीन को तोड़ वे आगे बढ़ने लगे. कुछ कांच के तुकडे मुझे भी लगे. टेक्सी वाले के प्रति अपराध बोध से मन ही मन लढते हुए मैं अनायास ही उन लड़कों से प्रतिक्रिया स्वरुप पूछ बैठा- तुम सब ये क्यों कर रहे हो? उसमें से एक लडके ने मुड़ कर बड़ी ही तल्खी से कहा- राज साहब को पकड लिया है. इस सरकार को कब अक्ल आयेगी ? मेरे मुंह पे शब्द आए थे - राज ठाकरे को कब अक्ल आयेगी ?
मगर तब तक मुझे अक्ल आ गयी थी की चुप रहने में ही भलाई है, मेरी. उनका क्या? उनमें राज ठाकरे के दो तीन ही आदमी होंगे, बाकी सब तो भीड़ थी. बिना शख्सि़यत के, बिना चहरे के. व्यवस्था के प्रति , समाज के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति के अवसर को भुनाते हुए भेड़ों की भीड़. मैं सकते में पड़े हुए टेक्सी वाले को पीटने से बचा नहीं पाया, और आत्मरक्षा के लिए, आत्मसन्मान की बली चढाते हुए,सामान छोड़ होटल भागने की तैय्यारी में लग गया. सामान कुछ ज़्यादा नहीं था. पिटते हुए उस टेक्सी वाले ने चिल्ला कर कहा - भैयाजी , आपका सामान?
एक आम भारतीय की तरह , मैं स्वार्थ के लबादे को ओढ़ भागने का मन बना रहा था, और वो टेक्सी चालक मेरे ही सामान के लिए फिक्रमंद हुआ जा रहा था. मैंने शर्मिन्दा हो उस भीड़ से उस गरीब को छोड़ने की मराठी में याचना की, जो भाग्य से सफल हुई, क्योंकि तब उस भीड़ को एक बस दिख गयी थी. वो हुजूम पुरुषार्थ की एक और आजमाईश करने आगे निकल गया. मैं शर्मसार हो टेक्सी वाले को ५०० का नोट दे ,सामान ले होटल की दिशा में अग्रसर हुआ.
चित्र - १
जहाँ मेरा प्रोजेक्ट चल रहा है वहाँ भी कंपनी की बसों की तोड़फोड़ का चित्र !!
चित्र - २
शाम को होटल के पास ही लगे शिवसेना भवन के सामने का दृश्य - शिवाजी पार्क के समीप इस सड़क पर इस समय आम दिनों में भीड़ ही भीड़ रहती है. कार, बसें ऑफिस से लौटते हुए लोगों की भीड़. मगर आज , यहाँ अघोषित कर्फ्यू जैसा हे कुछ माहौल है.आम आदमी के मन में डर का यह सजीव चित्रण है.
सीन -२ ( पुणें )
चूंकि उस दिन कुछ भी काम नहीं हो पाया , तो मैं अपने पुणें के प्रोजेक्ट के लिये निकल पडा़. पुणें में मेरे बहन के देवर रहते हैं, और उनके आग्रह पर मैं रात उनके यहाँ ही ठहर गया. वे जन्म से ही पुणें के रहवासी है, और वहाँ के साँस्कृतिक परिवेश के एक जागरुक प्रहरी भी.
देर रात जब राज ठाकरे की बात चल पडी , तो मैनें अपने साथ हुए हादसे की बात निकालकर मेरे मेज़बान से कहा कि इन जैसी घटनाओं से मराठी संस्कृति की एक अलग चाबी जन मानस में बन रही है, जो वस्तुस्थिति से बहुत ही भिन्न है. इससे, एक और आशंका के अंदेशे से इनकार नही किया जा सकेगा कि कुछ इन तरह का बैकलैश गैर मराठी प्रान्तों में भी पनप सकता है. मायावती का बयान इन भय को और मज़बूत करता है, और भारत के अनेकता में एकता के सांकृतिक ताने बाने को छिन्न भिन्न करता है.
तो मेरे मेज़बान नें गंभीर हो कर मुझसे प्रतिप्रश्न किया- किस संस्कृति कि हम बातें कर रहे हैं जनाब? ज़रा ठहरिये , कह कर उन्होंने अपने सामने वाले फ़्लॅट से एक षोडसी युवती को बुलाया. मैं चौंक गया. पिछली बार जब मैं उससे मिला था तो वह एक चुलबुली सी, उन्मुक्त नदी सी लड़की थी, मगर आज उसके चेहरे पर भय की छाया के साथ साथ निराशाजनक उदासी का वास था. एकदम बुझी बुझी सी, ठहरी हुई आँखें एक अलग ही वेदना लिए हुए थी. आगे जो कड़वी सच्चाई सामने आयी तो मेरे तो होंश ही उड़ गए.
उनके बिल्डिंग में कुछ ही महीने पहले तीन फ़्लॅट में बिहार के कुछ विद्यार्थी आकर रहने लगे थे. वे वहाँ कोई अच्छा सा कोर्स कर रहे थे. आम तौर पर पुणें में , या महाराष्ट्र में अमूमन लड़कीयों के साथ युवकों का व्यवहार अच्छा ही रहता है. छेड़छाड़ आदि हरकतें कोलेज या स्कूल के स्तर पर भी कहीं कहीं दिख जाता है, मगर आम सड़क पर या गली मोहल्ले में एक परिवार सा मेलजोल होने से शाम या देर रात तक लड़कियां बिना रोक टोक या परेशानी से घिमाती हुई नज़र आ जायेंगी.
मगर जब से ये बिहार युवक वहाँ आए, उन्होंने अपने ही परिसर में उद्दंड और ऊशृन्खल व्यवहार से लड़कीयों और महिलाओं का गुज़रना ही दूभर कर दिया. इन निरीह सी लड़की के तो जैसे पीछे ही पड़ गये थे वे लोग. करीब ६ महीने से वे उसे जो परेशान कर रहे थे, फब्तियां कस कर अश्लील से हावभाव कर उसे लज्जित कर रहे थे कि उस लड़की का तो मानसिक संतुलन ही बिगड़ गया. और तो और , उनको समझाने या डाटनें वालों को भी गाली गलौज से सामना कर प्रताडित होना पडा. अब आलम यह है कि वहाँ खौफ के से माहौल में वहाँ के मूल रहवासी रह रहे हैं और अन्दर ही अन्दर यूपी या बिहार के लठैत संस्कृति के प्रति विद्रोह के स्वर उठ रहे हैं.ये एक Isolated Case नहीं है, ऐसी घटनाएँ अब मुम्बई पुणें , और अन्यत्र कहीं भी मिल जायेंगी.
मैं तो ठगा सा ही रह गया......
ये किस भारत वर्ष की हम बात कर रहें है. पहले किसे दोष दिया जाए? यूपी,बिहार के लठैत संस्कृति के भारतीयकरण को, या इस असंतोष के वातावरण का राजनैतिक फायदा उठाने वाली राज ठाकरे की मानसिकता को? पहले अंडा या मुर्गी?
राज ठाकरे से ये कहने का एक मन करता है, कि भाई, तू तो यहाँ नया खिलाड़ी है. तेरी बराबरी कहीं लालू यादव, मुलायम सिंग यादव या मायावती की गुन्डागिर्दी से भला हो सकती है? अराजकता का इतने सालों का अनुभव इन सब का तगडा है, राज (ठाकरे) की अराजकता अभी शैशव काल में ही है.
दूसरा अंतरमन पूछता है कि अहिंसा के थ्योरी का प्रादुर्भाव बिहार से ही शुरू हुआ है ये कितनी विरोधाभासी बात है ? हमने खुद को कितने हिस्सों में बांट दिया है.धर्म, प्रांत ,जाति, अमीर गरीब, भाषा ... अखंड भारत कहां है?
आप क्या कहते है? कौन तगडा है? कौन सही और कौन ग़लत ? ये ही सिर्फ़ दो विकल्प बच गये हैं?
आम आदमी और राष्ट्रीयवाद के अमन के कबूतर के लिए कोई ठिकाना और है?
जायें तो जायें कहां, समझेगा कौन यहां, दर्द भरे दिल की जुबां...
एक और खबर छपते छपते...
सीन -१ ( मुम्बई )
सुबह मुम्बई सेंट्रल पहुंच कर मैने जब टॆक्सी वाले को कहा की दादर जाना है, तो उसने दादर का पता पूंछा.मैने कहा - शिवसेना भवन के पास,(मेरा होटल वहीं है), तो वह चौंका और जाने के लिये मना करने लगा. आपनें तो सुना, पढा़ ही होगा, कि श्रीमान राज ठाकरे को कल रात ही गिरफ़्तार किया गया था. मुझे पता नहीं था. वह ही नही, कोई भी टॆक्सी वाला वहां जाने के लिये तैय्यार नहीं हुआ.पता यह भी चला कि रात में राज ठाकरे के गुण्डों ने उत्तर भारतीय चालकों की टॆक्सीयां के कांच भी फ़ोडे थे.कहीं कोई मारपीट भी हुई थी .
मैं परेशान सा सोचने लगा कि क्या किया जाये, तो एक हिम्मतवाला ड्राईवर होटल से थोडा पहले छोडने को राज़ी हुआ. किस्मत से होटल के पास कोई गतिविधि नही देख कर टॆक्सी को घुमा कर होटल छोडने को जब मेरी गाडी मुडी ही थी, कि अचानक गली में से कुछ युवकों का हुजूम निकला, और वे नारेबाज़ी करते हुए मेरी टॆक्सी की ओर बढे. मैं समझ गया की ये वही उपद्रवी हैं जिनके बारे में अब तक कहा गया है.बहस करना व्यर्थ था, फ़िर भी साहस जुटा कर मैं टेक्सी से बाहर आकर उनसे मराठी में बातें कर उनका ध्यान बांटने का यत्न कराने लगा. लेकिन उससे पहले ही हमारी गाडी के विंडस्क्रीन को तोड़ वे आगे बढ़ने लगे. कुछ कांच के तुकडे मुझे भी लगे. टेक्सी वाले के प्रति अपराध बोध से मन ही मन लढते हुए मैं अनायास ही उन लड़कों से प्रतिक्रिया स्वरुप पूछ बैठा- तुम सब ये क्यों कर रहे हो? उसमें से एक लडके ने मुड़ कर बड़ी ही तल्खी से कहा- राज साहब को पकड लिया है. इस सरकार को कब अक्ल आयेगी ? मेरे मुंह पे शब्द आए थे - राज ठाकरे को कब अक्ल आयेगी ?
मगर तब तक मुझे अक्ल आ गयी थी की चुप रहने में ही भलाई है, मेरी. उनका क्या? उनमें राज ठाकरे के दो तीन ही आदमी होंगे, बाकी सब तो भीड़ थी. बिना शख्सि़यत के, बिना चहरे के. व्यवस्था के प्रति , समाज के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति के अवसर को भुनाते हुए भेड़ों की भीड़. मैं सकते में पड़े हुए टेक्सी वाले को पीटने से बचा नहीं पाया, और आत्मरक्षा के लिए, आत्मसन्मान की बली चढाते हुए,सामान छोड़ होटल भागने की तैय्यारी में लग गया. सामान कुछ ज़्यादा नहीं था. पिटते हुए उस टेक्सी वाले ने चिल्ला कर कहा - भैयाजी , आपका सामान?
एक आम भारतीय की तरह , मैं स्वार्थ के लबादे को ओढ़ भागने का मन बना रहा था, और वो टेक्सी चालक मेरे ही सामान के लिए फिक्रमंद हुआ जा रहा था. मैंने शर्मिन्दा हो उस भीड़ से उस गरीब को छोड़ने की मराठी में याचना की, जो भाग्य से सफल हुई, क्योंकि तब उस भीड़ को एक बस दिख गयी थी. वो हुजूम पुरुषार्थ की एक और आजमाईश करने आगे निकल गया. मैं शर्मसार हो टेक्सी वाले को ५०० का नोट दे ,सामान ले होटल की दिशा में अग्रसर हुआ.
चित्र - १
जहाँ मेरा प्रोजेक्ट चल रहा है वहाँ भी कंपनी की बसों की तोड़फोड़ का चित्र !!
चित्र - २
शाम को होटल के पास ही लगे शिवसेना भवन के सामने का दृश्य - शिवाजी पार्क के समीप इस सड़क पर इस समय आम दिनों में भीड़ ही भीड़ रहती है. कार, बसें ऑफिस से लौटते हुए लोगों की भीड़. मगर आज , यहाँ अघोषित कर्फ्यू जैसा हे कुछ माहौल है.आम आदमी के मन में डर का यह सजीव चित्रण है.
सीन -२ ( पुणें )
चूंकि उस दिन कुछ भी काम नहीं हो पाया , तो मैं अपने पुणें के प्रोजेक्ट के लिये निकल पडा़. पुणें में मेरे बहन के देवर रहते हैं, और उनके आग्रह पर मैं रात उनके यहाँ ही ठहर गया. वे जन्म से ही पुणें के रहवासी है, और वहाँ के साँस्कृतिक परिवेश के एक जागरुक प्रहरी भी.
देर रात जब राज ठाकरे की बात चल पडी , तो मैनें अपने साथ हुए हादसे की बात निकालकर मेरे मेज़बान से कहा कि इन जैसी घटनाओं से मराठी संस्कृति की एक अलग चाबी जन मानस में बन रही है, जो वस्तुस्थिति से बहुत ही भिन्न है. इससे, एक और आशंका के अंदेशे से इनकार नही किया जा सकेगा कि कुछ इन तरह का बैकलैश गैर मराठी प्रान्तों में भी पनप सकता है. मायावती का बयान इन भय को और मज़बूत करता है, और भारत के अनेकता में एकता के सांकृतिक ताने बाने को छिन्न भिन्न करता है.
तो मेरे मेज़बान नें गंभीर हो कर मुझसे प्रतिप्रश्न किया- किस संस्कृति कि हम बातें कर रहे हैं जनाब? ज़रा ठहरिये , कह कर उन्होंने अपने सामने वाले फ़्लॅट से एक षोडसी युवती को बुलाया. मैं चौंक गया. पिछली बार जब मैं उससे मिला था तो वह एक चुलबुली सी, उन्मुक्त नदी सी लड़की थी, मगर आज उसके चेहरे पर भय की छाया के साथ साथ निराशाजनक उदासी का वास था. एकदम बुझी बुझी सी, ठहरी हुई आँखें एक अलग ही वेदना लिए हुए थी. आगे जो कड़वी सच्चाई सामने आयी तो मेरे तो होंश ही उड़ गए.
उनके बिल्डिंग में कुछ ही महीने पहले तीन फ़्लॅट में बिहार के कुछ विद्यार्थी आकर रहने लगे थे. वे वहाँ कोई अच्छा सा कोर्स कर रहे थे. आम तौर पर पुणें में , या महाराष्ट्र में अमूमन लड़कीयों के साथ युवकों का व्यवहार अच्छा ही रहता है. छेड़छाड़ आदि हरकतें कोलेज या स्कूल के स्तर पर भी कहीं कहीं दिख जाता है, मगर आम सड़क पर या गली मोहल्ले में एक परिवार सा मेलजोल होने से शाम या देर रात तक लड़कियां बिना रोक टोक या परेशानी से घिमाती हुई नज़र आ जायेंगी.
मगर जब से ये बिहार युवक वहाँ आए, उन्होंने अपने ही परिसर में उद्दंड और ऊशृन्खल व्यवहार से लड़कीयों और महिलाओं का गुज़रना ही दूभर कर दिया. इन निरीह सी लड़की के तो जैसे पीछे ही पड़ गये थे वे लोग. करीब ६ महीने से वे उसे जो परेशान कर रहे थे, फब्तियां कस कर अश्लील से हावभाव कर उसे लज्जित कर रहे थे कि उस लड़की का तो मानसिक संतुलन ही बिगड़ गया. और तो और , उनको समझाने या डाटनें वालों को भी गाली गलौज से सामना कर प्रताडित होना पडा. अब आलम यह है कि वहाँ खौफ के से माहौल में वहाँ के मूल रहवासी रह रहे हैं और अन्दर ही अन्दर यूपी या बिहार के लठैत संस्कृति के प्रति विद्रोह के स्वर उठ रहे हैं.ये एक Isolated Case नहीं है, ऐसी घटनाएँ अब मुम्बई पुणें , और अन्यत्र कहीं भी मिल जायेंगी.
मैं तो ठगा सा ही रह गया......
ये किस भारत वर्ष की हम बात कर रहें है. पहले किसे दोष दिया जाए? यूपी,बिहार के लठैत संस्कृति के भारतीयकरण को, या इस असंतोष के वातावरण का राजनैतिक फायदा उठाने वाली राज ठाकरे की मानसिकता को? पहले अंडा या मुर्गी?
राज ठाकरे से ये कहने का एक मन करता है, कि भाई, तू तो यहाँ नया खिलाड़ी है. तेरी बराबरी कहीं लालू यादव, मुलायम सिंग यादव या मायावती की गुन्डागिर्दी से भला हो सकती है? अराजकता का इतने सालों का अनुभव इन सब का तगडा है, राज (ठाकरे) की अराजकता अभी शैशव काल में ही है.
दूसरा अंतरमन पूछता है कि अहिंसा के थ्योरी का प्रादुर्भाव बिहार से ही शुरू हुआ है ये कितनी विरोधाभासी बात है ? हमने खुद को कितने हिस्सों में बांट दिया है.धर्म, प्रांत ,जाति, अमीर गरीब, भाषा ... अखंड भारत कहां है?
आप क्या कहते है? कौन तगडा है? कौन सही और कौन ग़लत ? ये ही सिर्फ़ दो विकल्प बच गये हैं?
आम आदमी और राष्ट्रीयवाद के अमन के कबूतर के लिए कोई ठिकाना और है?
जायें तो जायें कहां, समझेगा कौन यहां, दर्द भरे दिल की जुबां...
एक और खबर छपते छपते...
Thursday, October 9, 2008
खिसके हुए लोग - वोटरों का दशहरा
आज विजया दशमी है.
असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीकात्मक दिवस!!
प्रतीकात्मक इसलिए की अब यह बात मात्र प्रतीक के रूप में ही रह गयी है.
आज वह समय आ गया है ,जहाँ सत्य और असत्य की परिभाषाएं एक दूसरे में गड्डमड्ड हो गईं है. जिसे चाहे वो अपने अपने अर्थ लगा कर नमरूद हुआ जा रहा है , सितमगर हुआ जा रहा है. बुद्धिजीवी तर्क या कुतर्क के बल पर चाँद को भी सूरज सिद्ध कराने में धन्य हो रहा है. जो बुद्धिजीवी नही है, वह बावला तो और ही मस्त है. उसे तो चरने के लिए पूरा मैदान खुला है.
आज जब विजया दशमी पर लिखने की सोची तो रावण के किसी अच्छे (?)चित्र को ढूंढने की कवायद शुरू हुई, तब जा कर रावण का उपरोक्त चित्र या कार्टून प्राप्त हुआ. चित्र H.T. से साभार
(जो जानकार नहीं है उन्हें बता दूँ कि चित्र में रावण दायीं तरफ़ है!)
इस चित्र से याद आया कि पिछले दिनों में हमारे प्रदेश में चुनाव का बिगुल बज उठा. ज़ाहिर है कि किसी भी ईंट को उखाडो , दो तीन नेता तो निकल ही आयेंगे. शहर का यह आलम है कि जगह जगह कुकुरमुत्ते की तरह पोस्टर उग आए हैं, जिसमें किसम किसम के नेताओं के फोटू लग रहें हैं. नेता - बड़े ,छोटे, कबर से निकल कर आए हुए, छुटभैये, युवा दिल की धड़कन, युवा सम्राट ( उम्र ६५ साल) सभी.
बिल्ली के भागों छींका टूटा और शहीद भगतसिंग की जयन्ती निकल आई.
फ़िर क्या था, हमारे शहर में जयन्ती मनाने की बाढ़ सी आ गयी. कोंग्रेस ने तो भगतसिंग को पुश्तैनी मिलकियत समझा हुआ है.शहर में गाडी़यों पर पोस्टरों के साथ कान फ़ाड़ू देशभक्ति के तरानों को गाते (?) इन वीरों को देख कर लगा कि हम भी भगतसिंग के साथ शहीद हो जाते तो अच्छा होता , आज का ये दिन तो नही देखना या सुनना पड़ता. भाजपाई भी कमज़ोर नहीं निकले . वे नए शहीदों को तलाश कराने में जुट गये, जिनका भगतसिंग से कोई संबंध कहीं ना कहीं आया हो. आनन फानन में पोस्टरों पर फोटूओं की बरसात होने लगी और पांच साल से लटके हुए सब्र के फल टपकने लगे.
अपने ब्लॉग जगत के पुराने उस्ताद अफलातून जी नें आगाज़ पर छपे भगतसिंग के एक फोटो को मैंने किसी ऐसे ही जलसे में पधारे विधायक जी को दिखा कर पूछा कि " पैचान कौन ? " , तो वो चौंक कर बोल पड़े थे - कोई आतंकवादी है क्या?
अब आया त्योहारों का मौसम. नवदुर्गा , गरबा महोत्सव और दशहरा का घर चल कर आया हुआ चांस. युवक, युवतियों से कहीं ज़्यादा रोमांचित हो उठे ये चुनाववीर !! लगभग सभी गरबा मंडलों पर एक एक ,दो दो नें कब्ज़ा कर लिया. जो बच गए , वे चले गए रावण दहन समिती में. सब जगह फ्लेक्स की कृपा से पोस्टरों पर पोस्टर छपने लगे.पहले चित्र पेंट किए जाते थे तो धोका रहता था, की बनाया तो था सांपनाथ जी का चित्र, बन गया नागनाथ जी का !! जनता तो बेवकूफ थी. ( अब भी है! ) ज़रा चित्र में गलती हुई नही की वोट बैंक खिसक जाता था. ( आज भी खिसकता है) .इसलिए इन खिसके हुए वोटरों के लिए ना जाने क्या क्या पापड़ बेलने पड़ रहे है इन उद्यमशील बन्दों को.वैसे बीच में गांधीजी और शास्त्री जी भी आ कर चले गये, लेकिन इतने सारे कामों की व्यस्तता में वे उपेक्षित ही रह गये. वैसे भी आजकल उनकी प्रासंगिकता है कहां?
मगर ये क्या , सैंकडों रावणों में बेचारे असली रावण का वजूद तो कोने में खिसक गया. रावण की भी तो ज़रूरत है हमें . काला नही होगा तो सफ़ेद को कौन पूछेगा? हर इंसान में तो राम और रावण बसता है. बस ग्रे रंग की स्केल का फरक है. जरूरत है किसी अच्छे डिटर्जेंट की.
आज सरस्वती का दिवस भी है ...!!!
मेरे एक जानकार मित्र नें मुझसे पूछा कि आज के दिन तो हम विजयोत्सव के रूप में मनाते है, जहां शस्त्रों का पूजन होता है. हम सीमोलंघन कर सोना लूट कर लाते है, और बुजुर्गों का आशिर्वाद लेते है.इसमें बुद्धि की देवी सरस्वती का क्या प्रयोजन.
तो मैं कई साल पहले यादों के गलियारे में , अपने बचपन में चला गया.
हमारे पूर्वज करीब दो सौ सालों से इन्दौर के राजघराने होलकर राजवंश के राजगुरु हुआ करते थे.ये होलकर पुणें के पेशवा के सुबेदार थे, और शिन्दे , पवार , गायकवाड़ के समान, इन्दौर ( मालवा ) पर सुबेदारी करते थे.राजगुरु होने की वजह से राज्य में होने वाले सभी धार्मिक कार्य, पूजा अधिष्ठान इत्यादि उनके देखरेख में हुआ करते थे.राज पाट जाने के बाद भी यह चलता रहा, हमारे दादाजी और ताऊजी तक.
उन दिनों बडे़ बड़े त्योहारों पर विशेश उत्सव और आयोजन हुआ करते थे, जैसे दिवाली दशहरा, होली आदि. अनन्त चौदस एवं मोहर्रम आदि पर्वों पर सरकारी झांकी निकला करती थी और सभी धर्मों के लोग उसमें भाग लेते थे. मुझे याद है मोहर्रम के ताज़िये खा़स कर हमारे घर के सामने से गुजरते थे, क्योंकि महाराज की ओर से हमारा परिवार उसकी पूजा करता था.
तो दशहरे के दिन भी शाम को महाराज लाव लश्कर के साथ दशहरा मैदान में जाते थे. वहां शस्त्र पूजन और शमी पूजन करने के बाद रावण दहन का कार्यक्रम संपन्न हुआ करता था.
हम भी बड़े चाव से उस जलूस या शोभायात्रा में हाथी पर बैठ कर शामिल होते थे, और रास्ते में पड़ने वाले इमली के पेड़ों से इमली तोड़ कर खाते थे!!(आजकल इसे रैली कहते है!!)
जब हम वापिस आते थे तो हमारे घर कि स्त्रियां हमारी नज़र उतारती थी, और ’औक्षण" कर आरती उतारती थी. फ़िर हम एक पवित्र स्थान पर शिक्षा की देवी बुद्धि की देवी मां सरस्वती के चित्र के समीप अपने सभी पाठ्यपुस्तकें , कॊपी कलम, या पाटी पेम इत्यादि रख कर उनकी पूजा करते थे.
मैंने एक बार अपने दादाजी से पूछा भी था- नाना, आज जब सभी शस्त्रों की पूजा कर रहे हैं तो हम क्यों अपने पुस्तकों आदि की पूजा कर रहें है?
दादाजी नें बडा़ ही सारगर्भित उत्तर दिया-
"बेटे, हम लोग धर्म और आध्यात्म के सिपाही हैं और सात्विकता के शस्त्रों का वरण करते है- याने शास्त्र! ये शास्त्र, या बुद्धि ही हमारी आराध्य देवता है. राजा एवं उनके सिपाहीयों को प्रजा की रक्षा हेतु राजसिक तत्वों का याने के शस्त्रों का वरण करना धर्म सम्मत है.इसीलिये हम बुद्धि के उपासक आज सरस्वती की आराधना करते है.
एक और बात. आज से २० दिनों बाद लक्ष्मी की पूजा आराधना कर हम अपने उन्नती और खुशहाली का वरदान जब मांगेंगे तब यही बुद्धि हमें सदाचरण का मार्ग पहचानने में हमारी मदत करेगी और उस संपत्ति का सही विनियोग करनें में हमें विवेकहीन बनने से बचायेगी."
मैंने आज भी शाम को अपने बच्चों के साथ पूजा कर अपने पिताजी का आशिर्वाद लिया-
विद्वान सर्वत्र पुज्यते..
असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीकात्मक दिवस!!
प्रतीकात्मक इसलिए की अब यह बात मात्र प्रतीक के रूप में ही रह गयी है.
आज वह समय आ गया है ,जहाँ सत्य और असत्य की परिभाषाएं एक दूसरे में गड्डमड्ड हो गईं है. जिसे चाहे वो अपने अपने अर्थ लगा कर नमरूद हुआ जा रहा है , सितमगर हुआ जा रहा है. बुद्धिजीवी तर्क या कुतर्क के बल पर चाँद को भी सूरज सिद्ध कराने में धन्य हो रहा है. जो बुद्धिजीवी नही है, वह बावला तो और ही मस्त है. उसे तो चरने के लिए पूरा मैदान खुला है.
आज जब विजया दशमी पर लिखने की सोची तो रावण के किसी अच्छे (?)चित्र को ढूंढने की कवायद शुरू हुई, तब जा कर रावण का उपरोक्त चित्र या कार्टून प्राप्त हुआ. चित्र H.T. से साभार
(जो जानकार नहीं है उन्हें बता दूँ कि चित्र में रावण दायीं तरफ़ है!)
इस चित्र से याद आया कि पिछले दिनों में हमारे प्रदेश में चुनाव का बिगुल बज उठा. ज़ाहिर है कि किसी भी ईंट को उखाडो , दो तीन नेता तो निकल ही आयेंगे. शहर का यह आलम है कि जगह जगह कुकुरमुत्ते की तरह पोस्टर उग आए हैं, जिसमें किसम किसम के नेताओं के फोटू लग रहें हैं. नेता - बड़े ,छोटे, कबर से निकल कर आए हुए, छुटभैये, युवा दिल की धड़कन, युवा सम्राट ( उम्र ६५ साल) सभी.
बिल्ली के भागों छींका टूटा और शहीद भगतसिंग की जयन्ती निकल आई.
फ़िर क्या था, हमारे शहर में जयन्ती मनाने की बाढ़ सी आ गयी. कोंग्रेस ने तो भगतसिंग को पुश्तैनी मिलकियत समझा हुआ है.शहर में गाडी़यों पर पोस्टरों के साथ कान फ़ाड़ू देशभक्ति के तरानों को गाते (?) इन वीरों को देख कर लगा कि हम भी भगतसिंग के साथ शहीद हो जाते तो अच्छा होता , आज का ये दिन तो नही देखना या सुनना पड़ता. भाजपाई भी कमज़ोर नहीं निकले . वे नए शहीदों को तलाश कराने में जुट गये, जिनका भगतसिंग से कोई संबंध कहीं ना कहीं आया हो. आनन फानन में पोस्टरों पर फोटूओं की बरसात होने लगी और पांच साल से लटके हुए सब्र के फल टपकने लगे.
अपने ब्लॉग जगत के पुराने उस्ताद अफलातून जी नें आगाज़ पर छपे भगतसिंग के एक फोटो को मैंने किसी ऐसे ही जलसे में पधारे विधायक जी को दिखा कर पूछा कि " पैचान कौन ? " , तो वो चौंक कर बोल पड़े थे - कोई आतंकवादी है क्या?
अब आया त्योहारों का मौसम. नवदुर्गा , गरबा महोत्सव और दशहरा का घर चल कर आया हुआ चांस. युवक, युवतियों से कहीं ज़्यादा रोमांचित हो उठे ये चुनाववीर !! लगभग सभी गरबा मंडलों पर एक एक ,दो दो नें कब्ज़ा कर लिया. जो बच गए , वे चले गए रावण दहन समिती में. सब जगह फ्लेक्स की कृपा से पोस्टरों पर पोस्टर छपने लगे.पहले चित्र पेंट किए जाते थे तो धोका रहता था, की बनाया तो था सांपनाथ जी का चित्र, बन गया नागनाथ जी का !! जनता तो बेवकूफ थी. ( अब भी है! ) ज़रा चित्र में गलती हुई नही की वोट बैंक खिसक जाता था. ( आज भी खिसकता है) .इसलिए इन खिसके हुए वोटरों के लिए ना जाने क्या क्या पापड़ बेलने पड़ रहे है इन उद्यमशील बन्दों को.वैसे बीच में गांधीजी और शास्त्री जी भी आ कर चले गये, लेकिन इतने सारे कामों की व्यस्तता में वे उपेक्षित ही रह गये. वैसे भी आजकल उनकी प्रासंगिकता है कहां?
मगर ये क्या , सैंकडों रावणों में बेचारे असली रावण का वजूद तो कोने में खिसक गया. रावण की भी तो ज़रूरत है हमें . काला नही होगा तो सफ़ेद को कौन पूछेगा? हर इंसान में तो राम और रावण बसता है. बस ग्रे रंग की स्केल का फरक है. जरूरत है किसी अच्छे डिटर्जेंट की.
आज सरस्वती का दिवस भी है ...!!!
मेरे एक जानकार मित्र नें मुझसे पूछा कि आज के दिन तो हम विजयोत्सव के रूप में मनाते है, जहां शस्त्रों का पूजन होता है. हम सीमोलंघन कर सोना लूट कर लाते है, और बुजुर्गों का आशिर्वाद लेते है.इसमें बुद्धि की देवी सरस्वती का क्या प्रयोजन.
तो मैं कई साल पहले यादों के गलियारे में , अपने बचपन में चला गया.
हमारे पूर्वज करीब दो सौ सालों से इन्दौर के राजघराने होलकर राजवंश के राजगुरु हुआ करते थे.ये होलकर पुणें के पेशवा के सुबेदार थे, और शिन्दे , पवार , गायकवाड़ के समान, इन्दौर ( मालवा ) पर सुबेदारी करते थे.राजगुरु होने की वजह से राज्य में होने वाले सभी धार्मिक कार्य, पूजा अधिष्ठान इत्यादि उनके देखरेख में हुआ करते थे.राज पाट जाने के बाद भी यह चलता रहा, हमारे दादाजी और ताऊजी तक.
उन दिनों बडे़ बड़े त्योहारों पर विशेश उत्सव और आयोजन हुआ करते थे, जैसे दिवाली दशहरा, होली आदि. अनन्त चौदस एवं मोहर्रम आदि पर्वों पर सरकारी झांकी निकला करती थी और सभी धर्मों के लोग उसमें भाग लेते थे. मुझे याद है मोहर्रम के ताज़िये खा़स कर हमारे घर के सामने से गुजरते थे, क्योंकि महाराज की ओर से हमारा परिवार उसकी पूजा करता था.
तो दशहरे के दिन भी शाम को महाराज लाव लश्कर के साथ दशहरा मैदान में जाते थे. वहां शस्त्र पूजन और शमी पूजन करने के बाद रावण दहन का कार्यक्रम संपन्न हुआ करता था.
हम भी बड़े चाव से उस जलूस या शोभायात्रा में हाथी पर बैठ कर शामिल होते थे, और रास्ते में पड़ने वाले इमली के पेड़ों से इमली तोड़ कर खाते थे!!(आजकल इसे रैली कहते है!!)
जब हम वापिस आते थे तो हमारे घर कि स्त्रियां हमारी नज़र उतारती थी, और ’औक्षण" कर आरती उतारती थी. फ़िर हम एक पवित्र स्थान पर शिक्षा की देवी बुद्धि की देवी मां सरस्वती के चित्र के समीप अपने सभी पाठ्यपुस्तकें , कॊपी कलम, या पाटी पेम इत्यादि रख कर उनकी पूजा करते थे.
मैंने एक बार अपने दादाजी से पूछा भी था- नाना, आज जब सभी शस्त्रों की पूजा कर रहे हैं तो हम क्यों अपने पुस्तकों आदि की पूजा कर रहें है?
दादाजी नें बडा़ ही सारगर्भित उत्तर दिया-
"बेटे, हम लोग धर्म और आध्यात्म के सिपाही हैं और सात्विकता के शस्त्रों का वरण करते है- याने शास्त्र! ये शास्त्र, या बुद्धि ही हमारी आराध्य देवता है. राजा एवं उनके सिपाहीयों को प्रजा की रक्षा हेतु राजसिक तत्वों का याने के शस्त्रों का वरण करना धर्म सम्मत है.इसीलिये हम बुद्धि के उपासक आज सरस्वती की आराधना करते है.
एक और बात. आज से २० दिनों बाद लक्ष्मी की पूजा आराधना कर हम अपने उन्नती और खुशहाली का वरदान जब मांगेंगे तब यही बुद्धि हमें सदाचरण का मार्ग पहचानने में हमारी मदत करेगी और उस संपत्ति का सही विनियोग करनें में हमें विवेकहीन बनने से बचायेगी."
मैंने आज भी शाम को अपने बच्चों के साथ पूजा कर अपने पिताजी का आशिर्वाद लिया-
विद्वान सर्वत्र पुज्यते..
Thursday, October 2, 2008
OPEN STANCE बनाम अहिंसा के पुजारी
आज से कई साल पहले जब कुछ चित्र बनाने का शौक था, तो यह Ink Illustration बनाया था. तब से अनाम पड़ा था. आज ही इसका नामकरण किया है :
OPEN STANCE
आज गांधी जी का जन्म दिन है. अहिंसा के पुजारी का जन्म दिन!! और मैं यह क्या लिख रहा हूं?
अभी कुछ ही दिन हुए. अभी अभी बीजींग ऒलंपिक्स में हमारे जांबाज़ों नें अपने देश के लिये व्यक्तिगत पदक हासिल कर भारत वर्ष का नाम रोशन किया.अभिनव बिन्द्रा और सुशील कुमार.
मुक्केबाज़ी में कांस्य पदक लेने वाले सुशील कुमार से ज़्यादा उम्मीदें थी अखिल कुमार से, जो क्वार्टर फ़ाईनल तक का सफ़र तय कर नही पाया.
एक औसत मुक्केबाज़ से ऒलम्पिक में क्वालिफ़ाय करने वाले अखिल कुमार नें बीजिंग जाने से पहले दिये एक साक्षात्कार में कहा था कि उसके कोच नें उसे एक नया मंत्र दिया " OPEN STANCE " .याने जब आपका प्रतिद्वंदी आपको पंच मारने आये तो सामान्यतः आप अपने डिफ़ेन्स को मज़बूत करते हैं और मौका मिलते ही स्ट्राईक बॆक करते है. मगर इस नयी तकनीक से आप अपने डिफ़ेन्स को खुला कर देते हैं , और प्रतिद्वंदी को खुला आमंत्रण देते है कि आ, मार मुझे. उन गाफ़िल लमहों में आप उसके इस कमज़ोर डिफ़ेंस को ढ़हा कर पलटवार करते है, और अंक बटोरते है.
मेरा मानना है कि आज आतंकवाद से निपटने के लिये यही सोच ज़रूरी और लाज़मी हो जाती है. अमेरिका नें 9/11 के बाद कोई भी आतंकवादी हमला नही झेला. पक्का इरादा. दृढ निश्चय और एक मंत्र - Nip in the Bud.
लाल बहादुर शास्त्री अगर आज होते तो क्या यह समस्या होती? (आज उनका भी जम्न दिन है)
हमारे यहां करेगा कोई, भरेगा कोई. आतंकवादी हर समाज में , धर्म में और व्यवस्था (System) में हैं, हम उन्हे छोड़ देते है, और आम इंसान को पकड़ लेतें हैं.
मैंने भी यही करने की सोची. सामान्यतः अहिंसावादी होने की पराकाष्ठा तक अपने चरित्र में अहिंसा को जिया है, कि रावण तक से प्यार करता हूं .मगर यह बात रावणों को कहां पता ? आध्यात्मिक बल कम पड़ गया.ज़ाहिर है इस तामसिकता की फ़िज़ा में सत की क्या बिसात? हमेशा रुसवाई ही रही.
मगर ये तो बड़ी कारगर तकनीक निकली. मेरे सामने हर कोई डिफ़ेंस खुला कर आया, (अल्लाह की गाय )और चौंक कर मुंह के बल गिर पडा़.मगर इसमें खुदी गायब हो गयी, बेखुदी में अपनों को पीड़ा पहुंचायी, और जिनके लिये ज़िंदगी भर के सिद्धांतों पर समझौता किया, वे तो ज़्यादा शातिर निकले. कुछ लोमड़ीयों, और गिरग़िटों नें खिंसे निपोर ली, सौजन्यता की मूर्ति बन गये सामनें, पीठ पीछे छूरी रख बाद में वार किया. और कुछ गेंड़ों नें तो एक ही बात पर अमल किया - Offense is Best Defense.Survival of fittest के जंगली न्याय का Menifestation!
ढाक़ के फ़िर तीन पात..
मगर फ़िर एक अख़बार में महात्मा गांधी पर छपे एक वक्तव्य को पढ़ा ,अपने युरोप यात्रा में उत्तरी धृव से करीब १००० मील पर आख़िरी कस्बे नॊर्वे के ’होनिंगस्वाग ’ से प्रकाशित एक अंग्रेज़ी दैनिक में- जो इस ब्लोग के मुख़पृष्ठ पर डाल दिया गया है:
Quote:
Peace is the most powerful weapon of Mankind. It takes more courage to take a blow than give One. It takes more courage to try and talk things through than to start a war.
(गांधीजी का चित्र नेट से साभार-A collage of humans)
हज़ारों मील दूर एक विदेशी संस्कृति के साये में विदेशी धरती पर कोई विदेशी यह मानता है,तभी तो छापता है. गांधी वैश्विक धरोहर हो गये है, अधिक प्रासंगिक हो गयें है उनके लिय्रे. और हम यहां भारत में , हमारे आध्यात्मिक संस्कारों के अगुआई में भी यह भूल चुके हैं. हमें कोई और चला रहा है, और हम चल रहें हैं.भेड़ों की बहुतायत हो गयी है, सियारों की बन आयी है, और हमारे जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी परजीवी हो कॊफ़ी हाउस में लेक्चर झाड़ रहे हैं.
मैं खूब शर्मिंदा हुआ और अब भी हूं.आप का क्या हाल है? आप किस पार्टी में है दादा?
अखिल कुमार को स्वर्ण नही मिल पाया. पता चला कि Open Stance के चक्कर में खुद का Defense ही कमजोर कर बैठे!!
मैं फ़िर अपनी पुरानी राह पर चल पड़ता हूं, जिसका काम उसीको साझे.
उन्हे ज़िंदगी के उजाले मुबारक, उनके परिभाषित अंधेरे हमें रास आ गये हैं.
और हमारे परिभाषित उजाले और भी प्रकाशवान और दैदिप्यवान हो गये है.आत्मा की शुद्धता लिये निकल पड़े है खुल्ली सड़क पर अपना सीन ताने.कोई तो अगली पीढी़ को बताये गांधी क्या हैं और उनकी प्रासंगिकता आज के ज़माने में क्या है.
मगर मैं अकेला नहीं हूं शायद, आप तसदीक करेंगे इस बात की?
एक चित्र और ...
क्या बात है? अहिंसा के पुजारी की सुरक्षा व्यवस्था ?
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