Thursday, July 9, 2009

वही होता है जो मंज़ूरे खुदा होता है.

आज मैं भावाभिभूत हूं....


नतमस्तक हूं उस   परमेश्वर के पावन चरणों में....


मित्रों , अभी पिछली पोस्ट में मैने ज़िक्र किया था मेरे बेटे अमोघके जन्म दिन पर उसके साथ हुई नाइंसाफ़ी का-

कृपया यहां पढें

दुख इस बात का नही था दोस्तों कि उसे तब चेम्पियनशिप नही मिली थी. वह तो उसके कर्म, भाग्य और भगवान के आशिर्वादों का फ़ल था.


मगर सही होने का भी अगर खामियाज़ा भुगतना पडे तो मन को कष्ट होता है,हुआ भी.गोया ,अच्छे की बुराई पर हमेशा जीत होती है ये जुमला मात्र किस्से कहानियों में या फ़िर फ़िल्मों में ही शेष रह गया था .


मगर आप सभी साथियों नें जिस तरह से हौसला अफ़ज़ाई की थी, और इस बात से मन में अच्छे कार्य के प्रति विश्वास का जो भाव जगाये रखा उसकी परिणीति अभी हुई.


अभी पिछले रविवार को चेन्नई में अखिल भारतीय एबेकस मेण्टल अरिथ्मेटिक कोंपीटिशन २००९ सम्पन्न हुई. पूरे भारतवर्ष से करीब २२००० बच्चों ने भाग लिया- पहले से लेकर १० वें लेवल की परीक्षा में ८ मिनीट में ३०० सवाल करने थे जोड/घटा/गुणा/भाग आदि.


मुझे यह बताते हुए प्रसन्नता होती है, जो मैं अपने ब्लोग परिवार में बांटना पसंद करूंगा कि -


<strong>अमोघ को अपने लेवल ९ में पूरे भारत वर्ष में अव्वल स्थान प्राप्त हुआ और उसे चेम्पियन घोषित किया गया !!!

 Amogh 2

 

और साथ ही में १ से १० लेवल के चेम्पियन्स में भी वह सबसे प्रथम स्थान पर रहा और उसे Champion of the Champions घोषित किया गया !!!!

 

Amogh 4

(कंप्युटर और मलेशिया के विज़िट की स्पोंसरशिप लेते हुए)

यह बात तो सर्व दृष्टि से साबित हो गयी है, कि अमोघ नें कभी भी सच का साथ नही छोडा़ ,और सही और गलत की पहचान भी उसके बाल मन में उपज गयी है.अब यही मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति उसे अगले विश्च प्रतियोगिता (क्वालालम्पूर , मलेशिया- नवम्बर २००९)में भी सही राह पर चल कर लक्ष्य प्राप्त करने में मदत करेगी.इन्शाल्लाह!!!

मैं इस बात पर ज़रूर शर्मिंदा हूं कि मैंने उस परमपिता ईश्वर पर भी आक्षेप लगाया था कि शायद अब वह भी टी आर पी बढाने के लिये अपने सच्चे भक्तों की जगह ऐसे अवसरवादियों की सुनने लगा है,जिन्हे किसी भी सूरत में कामयाबी हासिल करनी है, BY HOOK or BY CROOK . और तो और मैने और नेहा नें यह भी सोच लिया था कि इस बार अमोघ को चेन्नई में Competition मे नही ले जायें.मगर उसकी शिक्षिका मॆडम लीना सचदेव नें शब्दशः मिन्नते करते हुए उसे भेजने के लिये राज़ी किया.

मुझे वाकई लगने लगा था कि आध्यात्म का जो मानस मेरे मन में और आत्मा में रचा बसा है, उसनें मेरा क्या भला किया वह महत्वपूर्ण नही है, क्योंकि मैं हमेशा से मानता आया हूं कि हमें हमेशा ही अपना कर्म करते रहना है, और फ़ल की आशा नही करना चाहिये.बल्कि क्या यह सही है, कि मैं अपने पुत्र को भी उसी संस्कारों और परंपराओं का चोला पहनाऊं जो उसे इस तामसिक हलाहल भरे विश्व की तपन,पीडा , और नैराश्य से बचाव भी ना करा सके, और उसे Expose कर दे. 

मगर इस दुविधा और नकारत्मक नैराश्य से उबारा उसी नें. और आशा, विश्वास, और सकरात्मक उर्जा का संचार कराया है  उसी नें..

हे भगवान- मुझे क्षमा करें ....

आज मैं संतुष्ट हूं कि अमोघ के पीछे अच्छेपन का सिला देने वाला जागृत है. यह इसलिये नही कि उसे प्रथम स्थान मिला है. यह तो उसमें विश्वास के पुर्नर्जीवन का सबब ही तो है!और आप सभी अच्छे अख़लाक़ के मालिक ब्लोग परिवार के मित्रों के मन से निकली दुआओं का असर भी,जो उसे अगली परीक्षाओं में भी यही संबल देता रहें..


धन्यवाद..


 Amogh 11

मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है,
वही होता है जो मंज़ूरे खुदा होता है.

Thursday, July 2, 2009

नील मुकेश या नील नितीन...

पिछले दिनों काम के सिलसिले में छुट्टियां भी एंजोय करने का मूड हो गया था, इसलिये फ़िर गायब हो गया.

मौसम की पहली बारीश छत्रपति शिवाजी महाराज के प्रसिद्ध दुर्गम किले रायगढ़ पर !!! क्या बात है. उसपर अलग से लिख रहा हूं.

कल न्युयोर्क फ़िल्म देखी. एक अलग विश्व, अलग समस्या और अलग तरीके से हेंडल किया गया वह महत्व पूर्ण विषय -

आतंकवाद!!!

शायद कबीरखान नें मुसलमानों के नज़रीये से भी पहली बार इस फ़िल्म में यह बात बताने की कोशिश की है, कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता. बात में दम है. दोनों ओर के दृष्टिकोण बडी बारीकी से और खुलासेवार पेश किये गये.अच्छा लगा.

फ़िल्म में रोशन का यह वाक्य बडा ही सारगर्भित है, जिसका सार यह है,कि एक मुसलमान होते हुए भी उसने काम के साथ कभी समझौता नही किया, और शायद अल्लाहताला नें ही उसे यह मौका दिया है, कि दुनिया में उस मुसस्सल ईमान की परख हो जाये, जिसके लिये हर मुसलमान इज़्ज़त की दृष्टि से देखा जाता है.

साथ ही में उसके जरिये यह बात भी बताई गयी कि चाहे कुछ भी हो जाये , आतंकवाद को किसी भी तर्क से जायज़ नही ठहराया जा सकता, जबकी बडी ही दुख की बात थी कि ९/११ के बाद ख्वामख्वाह मुसलमानों को तकलीफ़ों को झेलना पडा, और अमरीकी सरकार को अधिकतर इनोसेंट लोगों को छोडना पडा.




मुझे तो सबसे बढियां सीन वो लगा , जहां नील नितीन मुकेश नें अपने दादा स्वर्गीय मुकेश जी का वह गीत स्वयं गाया-

ज़िंदगी ख्वाब है, ख्वाब में झूट क्या, और भला सच है क्या!!

माशाल्लाह , बडा ही सुरीला गया है. खुदा उन्हे और ऐसे मौके दे, जहां वे गाना भी गाये.

आज मुझे पिछले साल की वह बात याद आ रही है, जो नील के पिता नितीन मुकेश जी नें एक व्यक्तिगत लंच में बताई थी, जब वे इंदौर आये थी लता मंगेशकर सन्मान समारोह में प्रस्तुति देनें.

उन्होने एक बडी ही रोचक बात बताई, कि जब फ़िल्मों के लिये नील को नाम चुनने को कहा गया तो उसे दो ओप्शन दिये गये थे--

नील मुकेश ...

या

नील नितीन...

यह बात बताते हुए नितीन मुकेश जी का सीना गर्व से फ़ूल गया था कि नील नें कहा:

मैं जो भी हूं आज अपने पिता की वजह से हूं , और साथ ही में मेरे दादाजी की भी विरासत का वारीस हू, और उनके आशिर्वाद हैं ही.

इसलिये मैं उन दोनों को मान देते हुए अपना नाम रखूंगा;

नील नितीन मुकेश..
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