Sunday, December 13, 2009
अफ़ज़ल गुरु की फ़ांसी का मज़ाक और २००१ के हमले का आंखो देखा हाल..
ये तो वाकई हद ही हो गयी कि मैंने अपने इस ब्लोग पर पिछले दो पूरे महिनों में कुछ भी पोस्ट नहीं किया.मुआफ़ी चाहूंगा.
अभी परसों सुरेशजी चिपलूणकर की एक पोस्ट पढ़ रहा था जिसमें उन्होनें अपने चिर परिचित अंदाज़ में व्यंग करते हुए २००१ में हुए संसद पर हमले का सरगना मास्टरमाइंड अफ़ज़ल गुरु को बर्थ डे पर विश किया था.
ये वाकई शर्म की बात है कि आज उस दिन को आठ साल हो गये हैं, और हमारी शिखंडी जमात उसे अभी तक फ़ांसी तक नहीं चढा पायी.
शिखण्डी हम इसलिये हैं कि जिसनें हमारे देश के संप्रभुता को चुनौती देते हुए प्रजातंत्र के सर्वोच्च मंदिर पर हमला करने का षडयंत्र रचने का दुस्साहस किया, उसको फ़ांसी देने के लिये में आप , मैं और करोडो भारतीय बृहन्नलाओं की तरह ताली पीट पीट कर अपने अपने बिल में घुसे हुए ही गुहार मचा रहे हैं, और अफ़ज़ल गुरु जैसा ही और कोई विनाशकारी दिमाग कहीं दूर बैठ कर मुस्कुराते हुए एक नयी योजना बना रहा होगा, बेखौफ़ हो कर, क्योंकि हम जैसों को राष्ट्र भक्ति या राष्ट्राभिमान का जज़बा सिर्फ़ फ़िल्मी गीतों की रिकोर्ड बजा देने से पूरा हो जाता है.
वैसे अफ़ज़ल गुरु से मेरा व्यक्तिगत दुश्मनी का नाता भी है.
एक तो उसने मेरे भारत (Repeat MY INDIA)्की सहिष्णुता का मज़ाक उडाते हुए ये दुस्साहस किया.
दूसरे, आज भाग्य की वजह से मैं आपके सामने ये पोस्ट लिखने को ज़िंदा बचा हुआ हूं, वरना उसके अनुयायी की एक गोली उस दिन दिल्ली के संसद प्रांगण में मेरी समाधी बना चुकी होती.
बात ज़्यादह विस्तार से नहीं लिखूंगा. बस यही कि ऐसी यादें भूलनें के लिये नहीं होती, क्योंकि इससे आपके देश का सन्मान जुडा होता है.
उन दिनों मेरा काम संसद भवन के आहाते में ही बन रहे Parliament Library Project में चल रहा था. मेरी टीम के ५० से भी ज़्यादा आदमी पिहले देड महिनें से रात दिन एक करके लायब्ररी के फ़र्नीचर को असेंबल करने में लगे हुए थे जिसे मैने डिज़ाईन और सप्लाय किया था.
मैं उसी दिन अल सुबह वहां पहुंचा था, क्योंकि प्रधान मंत्री के लिये बनाई हुई टेबल में कुछ बुनियादी बदल करना थे, क्योंकि श्री अटल बिहारी बाजपेयी की घुटनों की तकलीफ़ की वजह से , उस खास डिज़ाईन में उन्हे तकलीफ़ आ रही थे.
मैं जैसे ही लायब्ररी के ६ मंज़िल की भव्य वास्तु (३ मंज़िल गाऊंड लेवल से ऊपर , और तीन बेसमेन्ट ) में जाकर काम का जायज़ा ले ही रहा थे कि अचानक गोलीयों की और मशीनगनों की आवाज़ से हम सभी काम करने वाले चौंक गये. वहां हमारे साथ करीब अलग अलग कंपनीयों के १५०० मज़दूर और २०० अफ़सरान काम कर रहे थे क्योंकि २६ जनवरी को उदघाटन तय था.
पहले तो समज़ ही नहीं पाये कि क्या हो रहा है, क्यों कि अकसर फ़िल्मों में सुनाई देने वाली आवाज़ से ये आवाज़ें अलग ही थी.
मैं भागकर उस हॊल में पहुंचा जहां से संसद का वह VIP GATE दिखाई दे रहा था जहांसे अक्सर प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति और अन्य विशिष्ट व्यक्ति आया जाया करते थे.
वहां एक बडा़ सा कांच का खिडकीनुमा पार्टिशन था, जहां से सभी गतिविधियां साफ़ दिखाई पडती थी.
मैं जैसे ही वहां से झांकने का प्रयास कर ही रहा था, दूसरी तरफ़ से याने VIP GATE की तरफ़ से दो गोलीयां कांच से टकराई.कांच अच्छी क्वालिटी का था एक ईंच मोटा, और संयोग ही हुआ कि एक गोली उसे छेदते हुए इस पार निकली और दूसरी छिटक कर रिफ़्लेक्ट हो गई(चूंकि तीखे कोण से आई थी).
बस , जो गोली अंदर आयी उसपे मेरा नाम नहीं लिखा था, और वह सामने दिवार में धंस गयी, और जो पलटी थी वह लगभग बिल्कुल मेरी ओर ही आ सकती थी!!
मैं ताबड़तोब पीछे मुड़कर वापिस हो लिया. मैं और मेरे साथ के सभी मौजूद लोग अब तक ये पूरी तरह से समझ चुके थे कि संसद पर आतंकवादीयों का हमला हो व्हुका है, और अब हमारी भी खैर नहीं.
भय की और मौत की एक थंडी़ लहर मन के किसी कोने से गुज़र गयी. दिमाग काम नहीं कर रहा था कि अब हम अपने आप को कैसे बचायें. हम सभी बाहर की ओर भागने की सोचने लगए, मगर मालूम पडा़ कि बाहर सभी ओर सेना नें परिसर को घेर लिया है, और अब सबसे मेहफ़ूज़ जगह थी यही लायब्ररी की भव्य इमारत.
मैंने और मेरे मातहत इंजीनीयरों/सहायकों नें तुरंत ही अपन आदमीयों को समेटा और बेसमेन्ट नं. १ में स्थित हमें एलॊट किये गये कमरे में जाकर बैठ गये.(यहां अभी तक दरवाज़े नहीं लगाये गये थे). आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हमारी मनस्थिति का, कि एक सामूहिक भय का और अफ़वाहों का वातावरण बन गया था, और लगातार ये आशंका व्यक्त की जा रही थी,कि आतंकवादी बडी संख्या में थे और अब वे हमारी बिल्डींग में घुसने वाले ही थे.
तभी हमने अपने बेसमेंट के कमरे की छोटे से रोशनदान से देखा कि कैसे हमारे ज़ांबाज़ सिपाही आतंकवादीयों से लोहा ले रहे थे. एक बार तो हमारे सामने एक सिपाही कवर में से एकदम बाहर निकला.शायद उसनें किसी आतंकवादी को देख लिया था,जो उस द्वार के ऊपर की छत पर छिपा हुआ था.
मगर उससे पहले आतंकवादी नें खडे हो कर उस सिपाही को शूट कर दिया. हम असहाय से , उसे चिल्ला चिल्ला कर आगाह करने लगे, जैसे कि हमारी आवाज़ उस तक पहुंच रही होगी. हम तो सिनेमाहॊल में मूव्ही देख रहे उस दर्शकों की तरह से ये सब देख रहे थे,एक मायाजाल के वर्च्युअल जगत में स्लो मोशन में फ़टी फ़टी आंखों से देख रहे थे ये नज़ारा.वक्त जैसे ठहर ही गया था.
मगर बाद में पता चला कि उस सिपाही नें गोली लगने के बावजूद अपनी राईफ़ल से उस आतंकवादी को निशाना लगाकर मार गिराया और खुद शहीद हो गया. शायद ये सिपाही शहीद नानकचंद था, जिसने देशभक्ति के और कर्तव्यपूर्ति के उस जज़बे की वजह से अपनी जान दे दी.
फ़िर एक लंबी खामोशी छा गयी. भय और बढ गया, क्योंकि यूं लगने लगा कि शायद अब आतंकवादी भाग रहे थे, और शायद यह नई निर्माणाधीन भवन छिपने या भागने के लिये बेहतर होगा. बीच में ये भी सुना कि उन्होनें किसी VIP को भी बंधक बना लिया है.
मौत की आहट की उस खामोशी को तोडते हुए कुछ लोगों की भागते हुए बेसमेंट में आने की आहट होने लगी.यह भवन इतना बडा था कि अब तक हमें उसके सभी रास्तों और सीढीयों का पता हो गया था. तब मुझे याद आया कि बेसमेंट नं. २ में नीचे कुछ कमरे ऐसे भी थे जहां दरवाज़े लग चुके थे और कहीं अस्थाई ताले भी लगा दिये थे.
मैं अपने साथ कुछ लोगों को लेकर नीचे की ओर भागा.मगर रास्ते में ही हमें कुछ दस बारह लोगों की भीड दिखाई दी ,जो और नीचे की ओर जा रही थी.
पहले तो हम ठिटक कर खडे हो गये , कि शायद आतंकवादी तो नहीं. मगर बाद में पता चला कि बिहार के कुछ बाहुबली सांसद उस तरफ़ से भाग कर यहां छिपने के लिये आ गये थे. बडा ही अजीब नज़ारा था कि ऐसे रौबिले और स्वयं आतंकवादी की शक्ल वाले ये माफ़िया के गुंडे लठैत संस्कृति के नुमाईंदे, जिन्होने अपने अपराधी इतिहास के बावजूद, गुंडा राजनिती के बल पर चुनाव जीत कर संसद में आ गये थे, मेरे सामने थर थर कांप रहे थे मौत के भय से. एक पहलवान नुमा सांसद का तो पजामा तक गीला हो गया था. उसनें मुझे देख कर हाथ पैर जोड़ कर मुझसे दया याचना की भीख मांगने लगा जैसे कि मैं ही कोई आतंकवादी हूं. फ़िर दूसरे नें स्थिति भापकर मुझसे बिनती की कि उन्हे तहखाने में कहीं किसी अंधेरे कमरे में बंद कर दें और बाहर से ताला लगा दें. दूसरे नें साथ में और ये जोड दिया कि ताले की चाबी कहीं अंधेरे में फ़ेंक दे!!
मैं ठगा सा विधि का विधान देख रहा था. एक वह सिपाही था , जो अपनी जान तक कुर्बान कर गया, और दूसरे जान से डरके थर थर कांपने वाले ये सांसद हैं, जिनके लिये उसनें अपनी जान दी.
खैर, मौत का खौफ़ शहादत से ऊपर चढ़ कर बोलता है. हम सभी दूसरे नीचे के तल के बेसमेंट में चले गये और करीब चार बजे तक छोटे कमरों में छुपे रहे. बाद में जब हमारे एक साथी नें ऊपर जाकर वस्तुस्थिति का पता किया (BRAVE) तब जाकर हम सभी बाह्र निकले. मगर हमारे बहादुर साथीयों नें(सांसद) फ़िर भी ऊपर जाने से मना किया, और स्वयं नज़मा हेपतुल्ला जी आयीं और उन्हे बाहर निकाला.
क्या विरोधाभास और मज़ाक नही है, कि आज आठ साल के बाद भी अफ़ज़ल गुरु , जिसे हमारे न्यायालय ने बाकायदा न्याय प्रक्रिया के तेहत दोषी करा देते हुए फ़ांसी की सज़ा मुकर्रर की , उसे अभी तक किसी ना किसी खोखले तर्क के बिना पर ज़िंदगी मुहैय्या कराई जा रही है. ये उन्शहीदों और सच्चे देशभक्त लोगों की शहादत का मज़ाक है, और हम सभी उसे समझ कर भी कर्महीनता के कारण चुप बैठे है.
पता चला है कि कोई श्री राधा रंजन नें Hang Afazal Guru के नाम से ओनलाईन हस्ताक्षर अभियान चला रखा है,और अब तक १४०० लोगों ने उसपर समर्थन दिया है. मगर दुख की या शर्म की बात ये भी है कि किसी तथाकथित मानव अधिकार संगठन नें Justice for Afazal Guru नाम से समानांतर अभियान चला रखा है नेट पर, और उसपर १६६६ लोग अपना नाम दर्ज़ करा चुके हैं.
याने यहां भी हमारी हार?
क्या आप मुझसे सेहमत हैं?
क्या आप नहीं चाहेंगे कि हम सभी ब्लोगर दुनिया के भाई और बेहनों को नही चाइये कि हम अपना विरोध दर्ज़ करायें और एक सामाजिक चेतना में अपना भी सहभाग दें?
http://www.petitiononline.com/hmag1234/petition.html
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1 comment:
यध्यपि यह डायलोग पुराना हो गया लेकिन आज भी महत्वपूर्ण है ;
अफजल गुरु को फांसी पर लटका देना चाहिए, इसलिए नहीं की उसने पार्लिआमेंट पर अटैक किया, बल्कि इसलिए कि उसने अपने काम को ठीक से अंजाम नहीं दिया !
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