आतंकवाद के ३० दिन...
२६/११ को पूरे ३० दिन हो गये है. ज़ेहन में अभी भी वो यादें बाबस्ता है, वह त्रासदी, वह कसक ,वह पीडा़, वह झटपटाहट, वह निराशावाद सभी बरकरार है, किसी भी हिंदी फ़िल्म के मसाले से भरपूर स्क्रीन प्ले की तरह.
मगर यह एहसास जब अपनी निरंतरता को प्राप्त कर जाता है, तो कहीं जाकर एक स्थाई भाव अख्तियार कर लेता है, जो किसी भी सूरत में आप के मानस से किसी भी रबड से मिटाया नही जा सकता.ये चित्र देखा. अभी कल ही एक चित्रों की प्रदर्शनी लगाई गई थी उन दिनों के स्मृतिचित्रों की.
मगर मेरे पास कुछ टोटके हैं , जिन्हे मै कभी कभी इस्तेमाल कर स्ट्रेस या भावनाओं के अतिरेक से प्रेशर कूकर की सीटी की भांति रिलीज़ कर लेता हूं, जो मान्यताओं से भी कभी कभी विपरीत होता है.इसे मैं Comedy of Terrors कह सकता हूं.
हां , मैं कॊमेडी या हास्य की बात कर रहा हूं. मुन्नाभाई की फ़िल्म में दॊ. अस्थाना को याद करें, जब खीज या गु़स्सा चरम सीमा से बढ़ जाता है तो वे हंसने लगते थे. मेरा अलग है थोडा, कि मैं उस पी्डा या वेदना में भी हास्य ढूंढ लेता हूं ताकि दिल की चुभन के अहसासात को थोडा तो कम किया जा सके.
वैसे मैं कोई बहुत गलत भी नहीं हूं. अमेरिका में पिछले दिनों जिन फ़िल्मों नें रिकॊर्ड तोड व्यवसाय किया है, उनमें कॊमेडी या व्यंग से भरपूर फ़िल्में या कार्टून फ़िल्मों का बाहुल्य रहा है. बाकी को देखें तो फ़ेंटासी की फ़िल्में भी उन्हे राहत दे रहीं है, इस जगव्यापी रिशेशन या आतंकवाद के भयनुमा स्ट्रेस से.
कोई इसी नकारात्मकता से देख कर पलायनवाद की परिभाषा में डाल सकते है.मगर क्या गालिब नहीं पूछ रहे हैं कि दिले नादां तुझे हुआ क्या है? , आखिर इस दर्द की दवा क्या है?
अब देखिये इस Comedy of Terrors को. शेक्सपीयर ने लिखा था Comedy of Errors. और यहां इस त्रासदी में भी हमें व्यंग या हास्य कैसे निकलता है ये देखें.
पहले तो नेताओं को ही याद कर लिजिये. गुस्से से ज़्यादा अब हंसी आती है जब हम याद करते है कि महाराष्ट्र के गृह मंत्री कहते है, कि ऐसे छोटे मोटे हादसे तो होते ही रहते है. मगर उन्हे क्या पता था कि ना केवल वे और उनके boss, मगर राष्ट्रीय मंच पर भी ग्रूह मंत्री ( जिनकी अपनी खुद की लॊंड्री की दुकान है वे, याद आये?)भी अपना जॊब खो बैठे.
केरल के मुख्य मंत्री का फोटो भी कुत्ते के गले में देख कर हंसी आयी. मेरे पडोसी कुत्ते नें भी एक दिन मौन रखा था जब मुझ पर गुर्राया नहीं.
मुझे याद है, उन दिनों मुम्बई में चेंबुर मोनोरेल के प्रॊजेक्ट के उदघाटन के पोस्टर पूरे शहर में लगे थे और बाद में उन्ही के साथ सभी पार्टियों के भी शहीदों को श्रद्धांजली देने के पोस्टर लग गये थे. उसमें कॊंग्रेस्स के पोस्तर पर देशमुख जी का वही हंसता हुआ चित्र लग गया था जो उदघाटन के पोस्टर पे था( मैं उसका फ़ोटो नहीं खींच पाया, क्योंकि किसी ने उसे उतारने की कवायद शुरु कर दी थी.
क्या होता अगर ताज़ होटल में आतंकवादीयों और एन एस जी के कमांडो के बीच की मुठभेड़ के दौरान लाईट चली जाती ? ( यहां भारत में संभव है). कोई आतंकवादी कमांडो से पूछता की भाई साहब माचिस देना तो ज़रा..., या फ़िर कहता हमारी टाईम्स है, या कच्ची है.( बचपन में हारते समय अपन नें बहुत बार टाईम्स ले लिया था या पदने से बचने से कच्ची कर लिया करते थे)
पाकिस्तान तो रोज़ रोज़ कॊमेडी कर रहा है. पूरा देश और अंतरराष्ट्रीय जगत देख रहा है, मान रहा है, सबूतों पे सबूत दिये जा रहें हैं. मगर हमारे पडोसी तो इन्कार पे इन्कार किये जा रहे हैं. अब हम हाथ जोड कर कह रहें है, कि भाई साहब हम आप पर हमला नहीं कर रहें है, मगर इनकी तो फ़ूंक ही खिसकी जा रही है, बेकार में युद्ध का माहौल खडा कर रहे है. अब अगर खुदा न खास्ता युद्ध हुआ तो पाकिस्तान नहीं बचेगा. मगर क्या हमारे नेतृत्व में इतना दम है?
अब ज़रा बेहन जी का टेरर देखिये. जी हां मायावती की. ( जी नहीं लगाऊंगा, क्षमा करें). अब एक इंजिनीयर की ये औकात हो गई कि मायावती के जन्मदिन पर ५० लाख का तोहफ़ा भी नही दे सकता. उसे क्या जीने का हक है, अगर आका का ये अपमान करे तो. मगर आप हैं कि बिना शरम कह रहीं हैं कि ये सब विपक्ष की चाल है.
एक कार्टून भी इसी पर छपा है जो आपकी नज़र है.(साभार दैनिक भास्कर)
मगर सबसे ऊपर, रेंकिंग नं. १ है यह बात कि हमारे अंतर्राष्ट्रिय चौधरी, भाईयों के भाई, आतंकवादीयों के सिरमौर जनाब बुश साहब को भी कोई जुता मार गया. क्या खूब बात है.
हमारे यहां लोगों को कब अकल आयेगी.
Friday, December 26, 2008
Tuesday, December 9, 2008
मौन... एक श्रद्धांजली..
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